“नित्य-परिवर्तनशील अनंत/अदृश्य जगत में जनसमूह ऐसी अवस्था में पहुंच गए थे जहां वे एक ही समय में हरेक बात पर विश्वास कर रहे थे और इसके साथ ही किसी भी बात पर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था।” – हन्ना आरेंट (Hannah Ardent) की किताब “सोर्स ऑफ़ डिक्टेटरशिप” से। यह किताब बीसवीं शताब्दी में जर्मनी और अन्य देशों में तानाशाही के उदय के बारे में है।
दिन-ब-दिन यह समझना मुश्किल होता जा रहा है कि देश की राजनीति किस दिशा की ओर जा रही है। संसद के बजट सत्र का उद्घाटन करते हुए संसद भवन में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संसद और देश को बताया कि आजादी का अमृतकाल शुरू हो गया है; यह समय राष्ट्र निर्माण के अवसर का है।
राष्ट्रपति ने कहा कि 2047 तक ऐसे भारत का निर्माण किया जाएगा जो अतीत के गौरव से पूरी तरह जुड़े होंने के साथ-साथ ही आधुनिकता के तमाम सुनहरे/स्वर्ण युग भी हाज़िर होंगे और मानवाधिकारों का पूरा सम्मान होगा। अमृत काल की परिभाषा स्पष्ट करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि देश ने कुछ समय पहले आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाई थी इसे ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ नाम दिया गया था।
इस तरह अब (आज़ादी के 75 वर्ष पूर्ण होने के बाद) से लेकर वर्ष 2047 तक का समय अमृत काल का समय है। राष्ट्रपति ने यह भी बताया है कि केंद्र सरकार गुलामी की हर निशानी और मानसिकता से मुक्ति दिलाने के लिए लगातार कोशिश कर रही है जिसके तहत राजपथ अब कर्तव्य पथ और मुगल गार्डन (राष्ट्रपति भवन का बाग) अब अमृत उद्यान बन गया है। राष्ट्रपति के अनुसार अब भारत की पहचान एक ऐसे देश के रूप में हो रही है जो दूसरे देशों की समस्याओं को हल कर सकता है।
अमृत काल की इस पृष्ठभूमि में पिछले कुछ महीनों और वर्तमान समय के कई प्रतीकात्मक दृश्य सामने आते हैं। एक दृश्य कांग्रेस द्वारा कन्याकुमारी से श्रीनगर तक की गई ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का है जिसमें राहुल गांधी राजमार्गों और सड़कों पर चहलकदमी करते नजर आ रहे हैं।
वह एक ऐसे राजनीतिक व्यक्ति हैं जो केंद्रीय स्तर पर दो बार सत्ता की लड़ाई हार चुके हैं। उनके पास राजनीति की पारिवारिक विरासत है और वह धर्मनिरपेक्षता, संविधान, कानून के राज, संविधान के द्वारा स्थापित किए तर्कों और उसूलों की विरासत का उत्तराधिकारी होने का दम भी भरते हैं। वह सरकार पर कुछ चुनिंदा कॉर्पोरेट घरानों को फ़ायदा पहुंचने के आरोप के साथ-साथ ही बेरोजगारी और बढ़ती महंगाई जैसे मुद्दों को भी उठाते हैं।
कहीं कुछ लोग उनकी ओर अपने आप खींचे चले आते हैं; उन्हें यह महसूस होता है कि वे सड़क पर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक व्यक्ति से मिल रहे हैं, लेकिन वे यह निष्कर्ष नहीं निकाल पाते कि वह क्या चाहता है। उनकी राजनीति समाज में थोड़ी-बहुत गूंज तो पैदा करती है लेकिन वह राजनीतिक गर्मजोशी पैदा नहीं करती जिसकी ज़रूरत है।
उनकी तार्किक बातें लोगों के दिलों को इस तरह नहीं छू पातीं जिस तरह भावुक भाषण देने वाले राजनेताओं की छूती हैं। वे देश की राजनीति के हैमलेट के तौर पर उभरते हैं (शेक्सपियर के नाटक ‘हैमलेट’ का नायक जो यह चुनाव नहीं कर सकता कि वह निर्णायक कदम कब उठाए)।
राहुल के मुक़ाबले में 8 फरवरी 2023 को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देने के लिए खड़े होते हैं। वह हर दूसरे-तीसरे वाक्य में देश, राष्ट्र, आत्मनिर्भरता, पूरे विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता, 2014 के बाद हुए देश के बेमिसाल विकास, देश के गौरवशाली अतीत और उनके (प्रधानमंत्री) द्वारा की जा रही अथक मेहनत का उल्लेख करते हैं।
उनके भाषण से ऐसा प्रतीत होता है कि देश ने 1947 से 2014 तक कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की। प्रधानमंत्री के अनुसार 2004 से 2014 (जब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे) की अवधि एक गुमशुदा (Lost Decade) दशक है।
लोगों के मन में इन दोनों राजनेताओं की छवि विरोधी/विपरीत मनोभाव पैदा करती है। नरेंद्र मोदी अपनी कामयाबी को तो भुनाते ही हैं, अपनी नाकामयाबी को भी ढंकने में माहिर हैं। उदाहरण के लिए, वह देश को विकास के शिखर पर ले जाने का दावा भी करते हैं पर साथ-साथ 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की स्थिति को देश के भीतर आर्थिक असमानता और कमजोरी का सबूत नहीं मानते। वह यह दर्शाने में सफल हो जाते हैं उनके हरेक काम से देश का गौरव बढ़ रहा है।
नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति संवैधानिक विरासत को लेकर अपना पैंतरा स्पष्ट नहीं करती। कुछ महीने पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कुलपति शांतिश्री पंडित ने कहा था, “भारत को संविधान द्वारा परिभाषित नागरिक (Civic) देश के रूप में देखना इसके इतिहास, प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को नकारना है।”
यह सच है कि किसी भी भौगोलिक क्षेत्र के लोगों के पास अपने इतिहास, संस्कृति और विरासत की अनंत जटिल प्रथाएं होती हैं लेकिन वर्तमान समय में राज्य संविधान के आधार पर फलते-फूलते हैं। संविधान देशों के इतिहास, संस्कृति और परम्पराओं को अपने में समाहित करके जन-सहमति वाले कानूनी ढांचे पेश करते हैं, लेकिन भाजपा की राजनीति अपनी विरासत ऐसी प्राचीनता में ढूंढती है जिससे मानवता की साझी संस्कृति नहीं बल्कि सिर्फ एक धर्म की महानता ही उजागर होती है।
यह राजनीति इतिहास और मिथिहास को तोड़-मरोड़ कर रचे गए उस आख्यान में बदल जाती है जिसमें सिर्फ एक ही धर्म के झंडे लहराते हैं। इतालवी कवि जियोर्जियो कैप्रोनी (जियोर्जियो कैप्रोनी) का काव्य-कथन है, “मैं वहां वापस आ गया/ जहां मैं पहले कभी गया ही नहीं था।” लोगों को यह अहसास कराया जा रहा है कि उन्हें एक महान अतीत वापस दिया जा रहा है, उनके लिए नयी आत्म-छवि और नई अस्मिता गढ़ी जा रही है, जिसे उन्होंने खो दिया था; वे वहां ‘वापस’ जा रहे हैं, जहां वे पहले कभी गए नहीं थे।”
प्राचीन गौरव को पुनर्स्थापित करने की यह कवायद चमकदार और सम्मोहक है; इसके मोह-पाश में आनंदमई हो जाने का अनुभव बहुत ही सुखद होता है। जरा सोचिए, अगर आपके शहर का नाम उसके प्राचीन नाम से बदल दिया जाए तो क्या आप खुश नहीं होंगे? क्या आप अपने प्राचीन और महान अतीत को पुनः पाकर क्या आपको गर्व नहीं होगा? क्या आपके अंदर श्रद्धा नहीं उमड़ेगी? जरूर उमड़ेगी; आप अपने अतीत के गौरव से लबालब भर जाएंगे। क्या हुआ अगर शहर के सीवर काम नहीं करते या लोग सड़कों पर सोते हैं या बेरोजगारी से लड़ते हैं; यह इसलिए छोटी-मोटी दिक्कतें होती हैं।
महान अतीत की मीठी चाशनी पेश करने के साथ-साथ देश के समर्थ लोगों के लिए तीव्र गति की रेलगाड़ियां चलाई जा रही है, महान नेताओं की गगनचुंबी मूर्तियां बनाई जा रही हैं; संसद के लिए एक भव्य इमारत बन रही है; सब कुछ चमचमा रहा है; चमकते बिंबों के इस वर्तमान में बेरोजगारी, भुखमरी और बढ़ती महंगाई जैसी छोटी-मोटी परेशानियां बेमानी हो गयी हैं।
इन विरोधी छवियों (नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी) के समय में एक नाम प्रेत की तरह उभरता है: ‘गौतम अदानी’। कुछ दिन पहले तक वह देश में हुई महान प्रगति का प्रतीक माना जाता था। देश के शीर्ष एक प्रतिशत अमीर तरक्की करके देश की 40 प्रतिशत संपत्ति के मालिक बन गए हैं और यह तर्क दिया जा रहा था कि अमीरों की तरक्की का मतलब है देश की तरक्की।
अमेरिकी कंपनी ‘हिंडनबर्ग रिसर्च’ की रिपोर्ट के बाद अडानी ग्रुप कंपनियों के शेयरों की कीमत में भारी गिरावट आई है; उसे 108 बिलियन डॉलर से ज्यादा का नुकसान हुआ है। उनकी कंपनियों में जीवन बीमा निगम और देश के सार्वजनिक बैंकों का पैसा भारी स्तर पर लगा हुआ है; ऐसा निवेश राजनीतिक प्रश्रय से ही संभव है।
वह प्रधानमंत्री और भाजपा के करीबी हैं जगजाहिर है, लेकिन लोकसभा और राज्यसभा में उनके बारे में उठे सवालों के जवाब देने से इनकार किया जा रहा है। देश की वित्त मंत्री कह रही हैं कि यह सिर्फ एक कंपनी का मामला है। सत्ता पक्ष की दृष्टि से यही सही दृष्टिकोण है, अमृत काल में विष का उल्लेख क्यों हो?
हमारा मिथिहास हमें बहुत कुछ जटिल तरीके से बताता है कि जब समुद्र मंथन से अमृत की उत्पत्ति हुई थी विष भी उत्पन्न हुआ। वह विष शिवजी ने पिया था; वर्तमान का विष कौन पिएगा?
ये प्रतीक देश में हो रहे राजनीतिक घमासान का हिस्सा हैं; उपरोक्त परिदृश्य में जनसंघर्षों का उल्लेख नहीं है; उनकी कथा अलग है। संसद में भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, हिन्दी के क्रांतिकारी कवि दुष्यंत कुमार का शे’र पढ़ा, “तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं/कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।‘ यह तंज राहुल गांधी और कांग्रेस पर कसा गया था।
हम प्रधानमंत्री को बता सकते हैं, इस ग़ज़ल का अगला शे’र है, “मैं बेपनाह अंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं/ मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।‘ देशवासी प्रधानमंत्री के शे’र पर नहीं रुकेंगे उन्होंने ग़ज़ल के अगले शे’र भी पढ़ने हैं; वे ‘अंधे तमाशबीन’ नहीं हैं।
दुष्यंत कुमार के कुछ अन्य शे’र इस प्रकार हैं: ” तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की, ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।”, “सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। लोगों को मिलकर सोचना होगा। देश का जीवन कुछ प्रतीकों तक सीमित नहीं हो सकता।
( स्वराजबीर पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक हैं और वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी हैं।)
आप की सच्ची पत्रकारिता को सलाम