उपभोग बढ़ाने की एक समझ यह भी!

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पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उपभोग बढ़ाने का एक विशेष संदर्भ और मतलब है। इस नजरिये के मुताबिक उपभोग में निरंतर वृद्धि आर्थिक विकास (growth) का प्रमुख कारक है। उपभोग से मांग पैदा होती है, जिसे पूरा करने के लिए पूंजीपति निवेश करते हुए उत्पादन को बढ़ाते हैं। मगर उत्पादन एक हद से ज्यादा ना हो, इसे सुनिश्चित किया जाता है। मकसद यह होता है कि बाजार में चीजों की उपलब्धता मांग से कम बनी रहे। सिर्फ इसी स्थिति में संबंधित वस्तु की कीमत मनमाने ढंग से बढ़ाई जा सकती है। इसीलिए अक्सर देखा गया है कि जब चीजों की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में होने लगे, तो पूंजीपति उत्पादन वृद्धि को या तो रोक देते हैं, या फिर उसमें कटौती कर देते हैं।

बीसवीं सदी के मध्य दशकों को छोड़ दें, तो अपने उदय के समय से पूंजीवाद इसी रूप में चलता रहा है। इस क्रम में पश्चिम में कुछ अपवादों को छोड़ कर लगभग सभी देशों में अर्थव्यवस्था का इंजन उपभोग को माना गया है। मगर मांग को हमेशा अतृप्त रखा जाता है।

भारत में अक्सर सुनने में आता है कि हमारी अर्थव्यवस्था consumption driven यानी उपभोग आधारित है। इसी क्रम में चर्चा होती है कि चीन की अर्थव्यवस्था investment driven है। हाल के वर्षों में दुनिया भर में consumption driven ( उपभोग  आधारित) बनाम investment driven (निवेश आधारित) अर्थव्यवस्था की बहस तेज हो गई है। कारण चीन का आर्थिक महाशक्ति के रूप में उदय है। चीन में सकल घरेलू उत्पाद में निवेश, पूंजी निर्माण (capital formation) और बचत (savings) का प्रमुख योगदान बना हुआ है। अपने इसी ढांचे के जरिए चीन, जैसा कि कहा जाता है, दुनिया की फैक्टरी बना हुआ है। इससे उसकी उत्पादन क्षमता में लगातार बढ़ोतरी हुई है, जिस कारण वह उत्पादों की कीमत निम्न रखने में कामयाब है।

चूंकि चीन के उत्पाद सस्ते पड़ते हैं, इसलिए वे दुनिया भर के बाजारों में फैलते चले गए हैं। नव-उदारवादी पश्चिमी विशेषज्ञ इसे अति उत्पादन क्षमता (over-capacity) कहते हैं। उनका आरोप है कि अपनी over-capacity से चीन ने विश्व बाजार में असंतुलन पैदा कर दिया है। सरल शब्दों में इसका अर्थ है कि चीन के सस्ते उत्पादों की वजह से पश्चिमी पूंजीपतियों के लिए मुनाफा बढ़ाने में कठिनाई पेश आई है।

पिछले कुछ वर्षों से इसीलिए व्यापार युद्ध छेड़ा गया है। मकसद आयात शुल्क से चीनी वस्तुओं को महंगा बना कर अपने यहां के पूंजीपतियों के मुनाफे को संरक्षण देना है। इस युद्ध का ही एक पहलू चीन को लगातार दी गई ये सलाह है कि वह अपने यहां निवेश घटाए और उपभोग बढ़ाए। यानी वह पश्चिमी मॉडल का अनुकरण करे।

मगर चीन ने अपना रास्ता नहीं बदला है। यह आज के वैश्विक टकराव एक प्रमुख कारण है। शी जिनपिंग के कार्यकाल में चीन ने उस भ्रम को भी तोड़ दिया है कि वह धीरे-धीरे पश्चिमी मॉडल को अपनाने की दिशा में बढ़ रहा है। खास कर 2020 के बाद से चीनी अर्थव्यवस्था को नई चुनौतियों के मद्देनजर ढालने की जो कोशिशें हुई हैं, उनसे यह और साफ हुआ है कि चीन सरकार अपने ढंग के खास समाजवादी रास्ते पर चलने के लिए अडिग है। मगर यह रास्ता अक्सर नव-उदारवादी विशेषज्ञों को समझ में नहीं आता- अथवा, यह कहा जाए कि वे समझना नहीं चाहते।

इसीलिए पिछले साल जब चीनी अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए वहां कुछ मौद्रिक कदम उठाए गए, तो शुरुआत में धारणा बनाई गई की आखिरकार चीन ने निजी क्षेत्र का मुनाफा बढ़ाने की जरूरत समझी है। इस कारण कुछ दिन तक चीन के शेयर बाजारों में खूब तेजी रही। मगर कुछ समय बाद जब पश्चिमी विशेषज्ञों को महसूस हुआ कि यह वैसा प्रोत्साहन पैकेज (stimulus) नहीं है, जैसा पूंजीवादी देशों में होता है, तो फिर विदेशी निवेशक चीन के वित्तीय बाजारों से पैसा निकालने लगे।

और अब फिर वैसा ही भ्रम पश्चिमी मीडिया में देखने को मिल रहा है। 16 मार्च को चीन की सरकार ने महत्त्वपूर्ण आर्थिक कदमों की घोषणा की, जिसका मकसद आम उपभोग में वृद्धि बताया गया है। इसके बारे में शंघाई स्थित फुदान यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर शी लेइ ने कहा- ‘चीन में (1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में) सुधार और खुलेपन की नीति लागू होने के बाद से उपभोग को बढ़ावा देने वाला यह सबसे व्यापक दिशा-निर्देश है। यह अभूतपूर्व है, क्योंकि इसमें वह सब कुछ शामिल किया गया है, जिससे पेशेवरना अंदाज में (उपभोक्ताओं के) खर्च को प्रभावित किया जा सकता हो।’

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी और स्टेट काउंसिल (कैबिनेट) ने संयुक्त रूप से इन दिशा-निर्देशों को जारी किया। इसमें आठ क्षेत्रों में 30 विशेष कदमों का जिक्र है। चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने लिखा- ‘इन दिशा-निर्देशों का का मकसद उपभोग संबंधी बाधाओं को दूर करना है। यह पार्टी और सरकार के घरेलू मांग बढ़ाने के दृढ़ संकल्प को जाहिर करता है। इसके जरिए बताया गया है कि इस वर्ष के आर्थिक कार्यों में ध्यान मुख्य रूप से घरेलू मांग को बढ़ाने पर केंद्रित रहेगा।’

तो उन 30 कदमों में शामिल हैः

  • रोजगार के अवसरों को बढ़ा कर श्रमिकों की आय में ‘विवेक-सम्मत वृद्धि’ को प्रोत्साहित करना
  • न्यूनतम मजदूरी में बढ़ोतरी
  • पूरे वेतन के साथ साल में अवकाश के प्रावधान पर सख्ती से अमल कराना।
  • आम परिवारों पर मौजूद ऋण या अन्य वित्तीय देनदारियों का बोझ घटाना।
  • बच्चों के पालन-पोषण की लागत घटाना। इसके तहत चाइल्ड केयर सब्सिडी योजना शुरू करने और नवजात शिशु संबंधी सेवाओं की उपलब्धता बढ़ाने पर जोर दिया जाएगा।  
  • बुजुर्गों के लिए सुविधाओं में वृद्धि। बुजुर्गों की देखभाल और बाल सेवा उपलब्ध कराने में निजी क्षेत्र को अधिक भूमिका दी जाएगी।
  • ग्रामीण एवं शहरी निवासियों के लिए बुनियादी पेंशन की व्यवस्था में सुधार।
  • व्यक्तिगत रिटायरमेंट एकाउंट्स के जरिए पेंशन व्यवस्था में एक नया स्तंभ जोड़ा जाएगा।
  • शेयर एवं जायदाद बाजारों में स्थिरता लाना। इसके तहत पूंजी बाजार में धोखाधड़ी के खिलाफ कार्रवाई को सख्त किया जाएगा। लिस्टेड कंपनियों में अवैध ढंग से शेयरों की संख्या घटाने की शेयर-धारकों की प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाएगा।
  • जायदाद की कीमत में और गिरावट ना आए, इसे सुनिश्चित करना। इसके लिए नगर निकायों को कॉमर्सियल जायदाद को खरीदने, शहर बनने की तरफ अग्रसर गांवों तथा पुराने मकानों का पुनरुद्धार करने की इजाजत दी गई है।
  • इसके लिए उन्हें अतिरिक्त धन उपलब्ध कराने की घोषणाएं पहले ही हो चुकी हैं।
  • ऋण चुकाने में अक्षम हो रहे छोटे व्यापारियों की मदद।
  • इसके अलावा अधिक विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए नए क्षेत्रों में को इसके लिए खोलना।
  • पर्यटन, होमस्टे, इंटरनेट के जरिए स्वास्थ्य देखभाल, शीतकालीन खेल आदि जैसी गतिविधियों को प्रोत्साहित कर सेवा क्षेत्र का दायरा बढ़ाने की बात कही गई है।
  • आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के विभिन्न प्रकार के उपयोग को बढ़ावा देना। इनके तहत ऑटोनोमस (स्वचालित) वाहनों, पहनी जा सकने वाली स्मार्ट चीजों, अल्ट्रा-हाई-डेफिनिशिन वीडियो, ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस, रोबोट्स आदि का उपयोग बढ़ाने को प्रोत्साहित किया जाएगा।

(https://www.gov.cn/zhengce/202503/content_7013808.htm)

सूची अभी और लंबी है। हमने यहां कुछ खास बिंदुओं का उल्लेख इस बात का आभास कराने के लिए किया है कि उपभोग का अर्थ चीन के नेतृत्व ने क्या समझा है। पिछले महीने भारत में पेश आम बजट में भी जोर उपभोग बढ़ाने पर था। उसके तहत आय कर छूट की सीमा बढ़ा कर 12 लाख रुपये कर दी गई। भारत में आय कर दाता अपेक्षाकृत धनी वर्ग में आते हैं। उनके हाथ में कुछ और रकम और सौंप कर उम्मीद की गई कि इससे उपभोग/ मांग में बढ़ोतरी होगी, जिससे उद्योगपति निवेश बढ़ाने के लिए प्रेरित होंगे और इस तरह अर्थव्यवस्था गतिमान हो जाएगी। एक तो ऐसा होने की संभावना न्यूनतम है, मगर ऐसा हो भी जाए, तो यह प्रश्न बना रहेगा कि उस आर्थिक गति से देश के बहुसंख्यक आम लोगों को क्या मिलेगा?  

यह समझ, या कहें नजरिए का फर्क है। अमेरिकी टीवी चैनल सीएनबीसी ने एक विश्लेषण में कहा कि चीन में की गई पहल उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण की दिशा में दीर्घकालिक संक्रमण की शुरुआत है। इस कार्य योजना में आम वेतन में वृद्धि, कार्य घंटों को अवैध ढंग से बढ़ाने पर रोक, सवैतनिक सालाना अवकाश और चाइल्ड केयर की व्यवस्था को मजबूत करने जैसी बातें शामिल हैं, जिनसे उपभोग का व्यापक आधार बनेगा।

जारी दस्तावेज में कहा गया है कि वह लोगों की आजीविका को सर्वोपरि मानने (people’s livelihood first) के नजरिए पर आधारित है। हांगकांग के अखबार साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट से अर्थशास्त्री शी लेइ ने कहा- अतीत में नीति-निर्माताओं ने खर्च बढ़ाने के उपायों पर चर्चा करते समय अक्सर आय बढ़ाने की जरूरत की उपेक्षा की है। उन्होंने कहा- ‘असल में उपभोक्ताओं को खर्च बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत नहीं पड़ती, अगर उनके पास पैसा हो। और अगर उनकी आय नहीं बढ़ती है, तो ऐसे प्रोत्साहनों से कोई अंतर नहीं पड़ता।’

भूमंडलीकरण का दौर के पलटने और अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में डॉनल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में टैरिफ वॉर में आई आक्रामकता ने अन्य देशों की तरह चीन के सामने भी नई चुनौतियां पेश की हैं। उसके सामने समस्या अपने उत्पादों के लिए नया बाजार बनाने की आई है- इसलिए कि टैरिफ वॉर के कारण अमेरिका और संभवतः यूरोप में भी उसके उत्पाद महंगे हो जाएंगे। वैसे में उनका बाजार सिकुड़ना तय हो जाएगा। इसलिए अपनी विशाल घरेलू आबादी का उपभोग बढ़ा कर बाजार का विस्तार करने का उपाय चीन के शासकों ने सोचा है।

इस क्रम में उन्होंने जो योजना बनाई है, उसके केंद्र में राजकोषीय, वित्तीय, औद्योगिक, निवेश एवं उपभोग संबंधी नीतियों में निकट समन्वय बनाना है। संघीय सरकार, स्थानीय सरकारों, विभिन्न विभागों और निजी क्षेत्र के बीच तालमेल बना कर एक सुसंगत प्रयास करने की योजना पेश की गई है। यह स्वीकार किया है कि एक ही ढंग की योजनाएं अलग-अलग क्षेत्रों में कारगर नहीं होंगी। इसलिए आवश्यकता यह है कि हर क्षेत्र की जरूरतों के मुताबिक वहां पहल की जाए, ताकि लोगों का जीवन स्तर ऊंचा हो। जीवन स्तर बढ़ने के साथ उपभोग का बढ़ना स्वाभाविक प्रक्रिया होती है।

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दशक भर पहले ‘साझा समृद्धि’ (common prosperity) को अपने कम्युनिस्ट शासन का लक्ष्य घोषित किया था। ताजा योजना पर गौर करें, तो जीवन स्तर को ऊंचा करते हुए उपभोग बढ़ाने की सोच उस लक्ष्य से मेल खाती है। इस रूप में ये पहल दीर्घकालिक परियोजना का हिस्सा है।

विशुद्ध रूप से बाजार अर्थव्यवस्था के नजरिए से सोचें, तब भी उपभोक्ताओं के आधार को व्यापक बनाना सही दिशा में पहल मानी जाएगी। इसलिए इसमें किसी आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस समय अमेरिका सहित ज्यादातर पूंजीवादी देशों में शेयर बाजारों में गिरावट का दौर है, बड़ी संख्या में अंतरराष्ट्रीय निवेशक चीन के हांगकांग शेयर बाजार में लौट आए हैं। डॉनल्ड ट्रंप के सत्ता संभालने के बाद हांगकांग के हेनसेंग इंडेक्स में 25 प्रतिशत से ज्यादा का उछाल आ चुका है। (https://www.newsweek.com/chinese-stock-market-outpacing-us-under-trump-2047146)

स्पष्टतः, चीन की इस पहल ने प्रोत्साहन पैकेज को लेकर मौजूद दो अलग नजरियों के बीच फर्क को और साफ कर दिया है। इस फर्क की जड़ में अर्थव्यवस्था के स्वरूप और एवं उद्देश्य को लेकर मौजूद समझ का अंतर है। मुद्दा यह है कि आर्थिक वृद्धि दर में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी अपने-आप में एक लक्ष्य है, या अर्थव्यवस्था के संयोजन का लक्ष्य समग्र जनसंख्या की खुशहाली है? अगर विभिन्न समाज या देश अपनी सोच में अंतर को स्पष्ट कर लें, तो यह संभव है कि अपनी अर्थव्यवस्थाओं के नए सिरे से संयोजन या संगठन की दिशा में वे बढ़ सकते हैं। मगर ऐसा तब तक नहीं हो सकता, जब तक विमर्श पर मुट्ठी भर धनिक तबकों का नियंत्रण है, जो सारी बहस को अपने मुनाफे के अनुरूप ढाल लेते हैं।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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