Saturday, April 27, 2024

बेशुमार रंगों में जीने वाले ‘कितने पाकिस्तान’ के लेखक कमलेश्वर  

कमलेश्वर के कई रूप थे। पूरी तरह बेखौफ होकर फिरकापरस्ती, जहरीले जातिवाद और सामाजिक-मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म समझ रखने वाले साहित्यकार। निष्पक्ष और जनपक्षीय प्रगतिशील संपादक/पत्रकार। दक्ष फिल्म स्क्रिप्ट राइटर। अपनी बुलंद आवाज में श्रोताओं को जकड़ लेने वाली कॉमेंट्री करने वाले कॉमेंटेटर। दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक। कई साहित्यिक आंदोलनों की अगुवाई करने वाले। जनसरोकारों को जनवादी सांचों के साथ साप्ताहिक दूरदर्शन कार्यक्रम ‘परिक्रमा’ में प्रस्तुत करके लाखों दर्शकों को तार्किक संवेदनशीलता के साथ सोचने के लिए मजबूर करने वाले।  ‘कितने पाकिस्तान’ सरीखे हस्तक्षेपकारी तथा अब तक सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले उपन्यास के लेखक कमलेश्वर!                     

विधिवत शुरुआत करते हैं कमलेश्वर की भारतीय साहित्य को अनमोल देन (उपन्यास) ‘कितने पाकिस्तान’ से। उपन्यास का पहला पन्ना खोलते ही आपको लिखा मिलता है : ‘इन बंद कमरों में मेरी सांस घुटी जाती है/खिड़कियां खोलता हूं तो जहरीली हवा आती है!’ कितने पाकिस्तान की भूमिका में कमलेश्वर ने अंत में लिखा है कि, “मेरी दो मजबूरियां भी इसके लेखन से जुड़ी हैं। एक तो यह कि कोई नायक या महानायक सामने नहीं था, इसलिए मुझे समय को ही नायक-महानायक और खलनायक बनाना पड़ा। और दूसरी मजबूरी यह की इसे लिखते समय लगातार यह एहसास बना रहा कि जैसे यह मेरी पहली रचना हो… लगभग उसी अनकही बेचैनी और अपनी असमर्थता के बाद से मैं गुजरता रहा… आखिर इस उपन्यास को कहीं तो रुकना था। रुक गया। पर मन की जिरह अभी भी जारी है…”। इस उपन्यास के कवर के पीछे कमलेश्वर की ही लिखी इबारत है जो लगता है कि किसी ने अपने लहू सने हाथों से दीवारों पर लिखी है, “यह उपन्यास मानवता के दरवाजे पर इतिहास और समय की एक दस्तक है… इस उम्मीद के साथ कि भारत ही नहीं, दुनिया भर में एक के बाद एक दूसरे पाकिस्तान बनाने की लहू से लथपथ यह परंपरा अब खत्म हो…।                   

1990 में कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ लिखना शुरू किया था और 99 में खत्म किया। उनके शब्दों में कहें तो ‘खत्म’ तो यह आज भी नहीं हुआ। जाहिरन उपन्यास के लेखन का प्रारंभ जब किया गया तब असहिष्णुता चरम पर थी और चैन की जिंदगी गुजर- बसर करने वाला हर शख्स दिल और दिमाग से खौफजदा था। एक ऐसा माहौल बना तथा बनाया जा रहा था, जो फासीवाद की आहट के वक्त होता है। इस मारक संक्रमण के कीड़ों ने देश के हर कोने-अंतरे में अपने लिए जगह ढूंढ ली थी। उन्हीं सालों में बाबरी विध्वंस हुआ था और बर्बर सांप्रदायिक दंगों का अनवरत सिलसिला परवान चढ़ा था। इन्हीं के बीच ‘कितने पाकिस्तान’ का लिखा जाना चलता रहा। कई पड़ाव लांघ कर यह उपन्यास जब सामने आया तो हिंदी साहित्य के ज्यादातर बड़े एवं मठाधीश आलोचकों ने इसे लगभग खारिज कर दिया। स्वयंभू आलोचकों ने भी इसे असफल रचना का सर्टिफिकेट देते हुए कहा कि पाठक इसके करीब भी नहीं गुजरेंगे। सबको धता मिली।

व्यापक हिंदी पाठक वर्ग ने रफ्ता-रफ्ता कितने पाकिस्तान को हाथों-हाथ लेना शुरू किया और आज तलक यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। गौरतलब तथ्य है कि आए साल इस उपन्यास का नया संस्करण सामने आता है और देखते-देखते बिक जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी इस उपन्यास को शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है। यहां भी कमलेश्वर ने मील के पत्थर सरीखा इतिहास बनाया हुआ है! हर भारतीय भाषा में इसका अनुवाद हुआ। उर्दू में जिन हिंदी कृतियों का सबसे ज्यादा स्वागत हुआ है, ‘कितने पाकिस्तान’ उनमें अव्वल है। पाकिस्तान में भी इसे खूब पढ़ा गया और आज भी पढ़ा जाता है।

पाकिस्तान के अदबी इदारों-मंचों से इसकी बात वहां के आला दर्जे के आलोचक व विद्वान कई संदर्भों में करते हैं। पुराने-प्रबुद्ध और नए! गोया सभी। वहां के टीवी चैनलों पर होने वाली साहित्यिक चर्चाओं में भी इसका जिक्र यदा-कदा होता रहता है। निर्विवाद सत्य है कि पाकिस्तान में इस नॉवेल की बदौलत कमलेश्वर सबसे ज्यादा माकूल भारतीय हिंदी लेखक हैं। यह दर्जा पहले यशपाल और फिर भीष्म साहनी को हासिल था। उन दोनों महान लेखकों का मुकाम भी ज्यों का त्यों है लेकिन कमलेश्वर का अलहदा।                                           

इतिहास के हजारों पन्नों, विचारों और विभाजन पर कई भाषाओं में लिखे गए साहित्य से गुजर कर कमलेश्वर ने कितने पाकिस्तान लिखा था। लिखा भी क्या जिया था। पहले पहल बेशक आलोचकों ने इसे नकार दिया था लेकिन बाद में प्रगतिशील और जनवादी धारा के ख्यात आलोचकों ने इसे मान्यता दी। जरूरी उपन्यास बताया। कालजयी का खिताब दिया। जीवन पर्यंत लेखन कार्य में साधनारत रहे कमलेश्वर को कितने पाकिस्तान के लिए अखिल भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया लेकिन उनका कहना था कि इस उपन्यास का इतनी व्यापकता के साथ पढ़ा जाना ही उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है।

इन पंक्तियों के लेखक को एक बार उन्होंने कहा था कि काश! आने वाली पीढ़ियों के लेखकों को ऐसी रचनाएं न लिखनी पड़ें। किसी को 1947 का दंश न झेलना पड़े। उनका कहना था कि कितने पाकिस्तान पर हुआ श्रम समूचे तौर पर तभी सार्थक होगा जब दोनों देशों के लोग विभाजनकारी मानसिकता से उबर जाएंगे और तवारीख के दोषियों को खुद सजा देंगे। 

जहरीली हवा का आवागमन दोनों मुल्कों के अवाम को बेमौत मार रहा है, ऐसा वह कहते-मानते थे। यकीनन कितने पाकिस्तान कमलेश्वर की वह रचना है जिसे कभी भी हाशिया नहीं हासिल होगा। साधारण भाषा में लिखा गया यह असाधारण उपन्यास पठन-पाठन की दुनिया में सदा प्रासंगिक रहेगा। साल दर साल इसकी बिक्री में होने वाला इजाफा जाहिर करता है कि दुनिया से जिस्मानी तौर पर कब के कूच कर गए कमलेश्वर अदबी दुनिया का शाश्वत हिस्सा सदैव रहेंगे। कलम का ऐसा सम्मान बहुत कम लेखकों के हिस्से आता है। मुकाम भी। शिल्प के लिहाज से ‘कितने पाकिस्तान’ एक प्रयोगधर्मी रचना है। कला ‘कला के लिए’ या ‘अवाम के लिए’ की बहस के बीच यह बीच का रास्ता नहीं ढूंढता और साफ-साफ शिद्दत के साथ लोगों की ओर खड़ा मिलता है।

भविष्य का उपन्यास अभी बहुत आगे तक जाएगा लेकिन यकीनन कोई-कोई उपन्यासकार ही ‘कितने पाकिस्तान’ सरीखी मकबूलियत हासिल कर पाएगा। इसलिए भी कि ‘कितने पाकिस्तान’ सुकून नहीं बल्कि दर्द अथवा पीड़ा देता है। पढ़ने वाले, लिखने वाले-दोनों को! 6 जनवरी 1932 को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में जन्मे कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना कब ‘कमलेश्वर’ बने, किसी को पता नहीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जिसे कभी हिंदुस्तान का ऑक्सफोर्ड कहा जाता था और जिसने राजनीति, समाज विज्ञान, पत्रकारिता और साहित्य को कई हस्तियां दीं-उसी विश्वविद्यालय में कमलेश्वर ने हिंदी साहित्य में एमए की और संभवत: यहीं से वह ‘कमलेश्वर’ हुए जिन्हें हम दिग्गज भारतीय लेखक के तौर पर जानते हैं। इलाहाबाद, दिल्ली और मुंबई मुख्य तौर पर कमलेश्वर के कामकाजी ठीए-ठिकाने रहे। बेशक सृजनात्मक लेखन के लिए उन्हें पहाड़ी तथा जंगली डाक बंगले खूब भाते थे।                      

डाक बंगला उनके एक उपन्यास का शीर्षक भी है। इस उपन्यास और कितने पाकिस्तान के अलावा उन्होंने तीसरा आदमी, समुंदर में खोया हुआ आदमी, काली आंधी, आगामी अतीत, सुबह दोपहर शाम, रेगिस्तान, लौटे हुए मुसाफिर और एक और चंद्रकांता इत्यादि उपन्यास लिखे।                                   

कमलेश्वर की अदबी दुनिया में शुरुआती शिनाख्त कहानी लेखक की है। 300 के करीब कहानियां उन्होंने लिखीं। राजा निरबंसिया, सांस का दरिया, नीली झील, बयान, नागमणि, अपना एकांत, जॉर्ज पंचम की नाक, मुर्दों की दुनिया, नागमणि, कस्बे का आदमी, खोई हुई दिशाएं और स्मारक आदि उनकी बहुप्रसिद्ध कहानियां हैं तथा उनके कई कथा संग्रहों के शीर्षक भी इन्हीं कहानियों में से लिए गए हैं। कई कथा आंदोलनों का समय-समय पर उन्होंने नेतृत्व किया। इन मायनों में वह ‘साहित्यिक आंदोलनजीवी’ थे।              

कई साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन कमलेश्वर ने बखूबी किया। सारिका, गंगा, नई कहानियां, कथा यात्रा, इंगित, विहान, श्री वर्षा इनमें प्रमुख हैं। सारिका को उन्होंने आंदोलनों का हथियार बनाया। समूचे भारत के विभिन्न भाषाओं के लेखक इस पत्रिका से जुड़े और हिंदी पट्टी का, अन्य भाषाओं में लिखे जा रहे महत्वपूर्ण कथा साहित्य से परिचय कमलेश्वर के संपादकत्व वाली सारिका की बदौलत ही हुआ। ‘गंगा’ कहने को कथा पत्रिका थी लेकिन विषय वस्तु के लिहाज से वह विविधता से परिपूर्ण थी। ‘लिंक हाउस’ समूह की यह पत्रिका ‘गंगा स्नान’ भी कराया करती थी और जिसे यह स्नान कराया जाता था वह कतई स्नान नहीं करना चाहता था!

‘गंगा स्नान’ स्लग वाले नियमित स्तंभ में देश के नामी पत्रकारों-संपादकों को कायदे से ‘नहलाकर’ बाकायदा उनकी मैल उतारी जाती थी और उनका असली चेहरा जनता के रूबरू कराया जाता था। तब के कतिपय संपादकों-पत्रकारों को मासिक पत्रिका गंगा का इंतजार इसलिए भी रहता था कि कहीं इस बार उन्हें तो नहीं धोया गया! कमलेश्वर ने इस पत्रिका को बेहद तीखी धार दी। अपने मिजाज के अनुकूल।                                           

लोगों को खासा अचरज हुआ जब कमलेश्वर हिंदी ‘दैनिक जागरण’ के राष्ट्रीय संस्करण के संपादक के रूप में नमूदार हुए। तब दैनिक जागरण उत्तर प्रदेश से प्रकाशित होता था और उसका दक्षिणपंथी रुझान जगजाहिर था। इधर, कमलेश्वर वामपंथी रुझान के थे। अचरज की वजह यही थी। कमलेश्वर ने दैनिक जागरण में रहते हुए किसी किस्म का कोई विचारधारात्मक समझौता नहीं किया। हमख्याल (वरिष्ठ कथाकार) अरुण प्रकाश को उन्होंने अहम पद पर रखा। जब सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगा तो कमलेश्वर की कलम भी विरोध में और ज्यादा नुकीली हो गई। आते-आते वह दिन भी आ गया जब कमलेश्वर ने बाबरी मस्जिद मसले को लेकर प्रगतिशील रवैया अपनाते हुए मजबूत स्टैंड ले लिया। अखबार को उन्होंने अपने तथा अपनी टीम के बूते लोकप्रिय बना ही दिया था लेकिन मालिक उनकी विचारधारा नहीं बदल पाए और कानपुर से मिलने वाली हिदायतों के बावजूद कमलेश्वर अपनी धुन और तेवर के साथ जुटे रहे बल्कि कहिए कि लड़ते रहे।

कानपुर लाइन से हटकर उन्होंने अपने तईं दैनिक जागरण के अलग अंक निकाले जो सांप्रदायिकता का खुला विरोध करते थे। इसे कमलेश्वर की बगावत माना गया। थक-हार कर कानपुर वालों ने खुद दिल्ली में डेरा भी जमाया लेकिन कमलेश्वर को टस से मस नहीं ही कर पाए। आखिरकार विद्रोही कमलेश्वर ने अपनी पूरी टीम के साथ दैनिक जागरण से सामूहिक इस्तीफा दे दिया, इस आह्वान के साथ कि फिरकापरस्त स्याही से वह अखबार को नहीं चलाएंगे। कमलेश्वर ने मालिकों पर तो जरूर दबाव डाला लेकिन खुद को अलग करने के फैसले की बाबत सहकर्मियों को साथ बाहर निकलने के लिए कुछ नहीं कहा।

फिर भी अरुण प्रकाश और अन्य वरिष्ठ पत्रकारों ने उन्हीं के साथ दैनिक जागरण को सांप्रदायिक अखबार घोषित करते हुए सामूहिक इस्तीफा दे दिया! प्रगतिशील हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यह अध्याय जरूर गौरवशाली ढंग से लिखा जाएगा। अखबारी पत्रकारिता की दूसरी पारी उन्होंने ‘दैनिक भास्कर’ के साथ शुरू की। वह इसके सलाहकार संपादक थे और जयपुर संस्करण के पूर्णकालीन संपादक। वहां भी उन्होंने जल्दी अलविदा कह दिया। अलबत्ता मालिकों के विशेष आग्रह पर नियमित स्तंभ जरूर लिखते रहे।                               

मुंबई प्रवास के दौरान कमलेश्वर का साबका सिनेमा की दुनिया से पड़ा। अपने समकालीनों की अपेक्षा उन्होंने 99 फिल्मों के संवाद, कहानी और पटकथाएं लिखीं। इनमें ‘मौसम’ और ‘आंधी’ को वशिष्ट माना जाता है। कमलेश्वर ने नाटक भी लिखे। उनके मकबूल नाटकों में अधूरी आवाज, रेत पर लिखे नाम और हिंदुस्तान हमारा हैं। कमलेश्वर के शिखर काल में आज की तरह का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अथवा टीवी चैनल वगैरह नहीं हुआ करते थे। ‘दूरदर्शन’ था जिसकी पहुंच अधिकांश घरों तक थी और लोग इकट्ठे होकर किसी एक घर में टीवी देखने जाया जाया करते थे। उन्हीं दिनों कमलेश्वर ने टेलीविजन को बेहद लोकप्रिय बनाने में महती भूमिका अदा की। मुंबई (तब बंबई) दूरदर्शन केंद्र के लिए वह ‘परिक्रमा’ नामक एक खास कार्यक्रम तैयार किया करते थे। इसमें जन भावना की सशक्त अभिव्यक्ति होती थी और विभिन्न वर्ग खुशहाल अपेक्षा रखते थे कि एक दिन कमलेश्वर उन पर भी फोकस करेंगे। घर-घर इस कार्यक्रम के प्रदर्शन का इंतजार रहता था। कमलेश्वर इसकी स्क्रिप्ट लिखते थे, निर्देशन करते थे और आवाज भी खुद देते थे।

वह आवाज उन दिनों उस महानगर के लोगों को ‘अपनी आवाज’ लगती थी। परिक्रमा का प्रसारण अन्य केंद्र भी किया करते थे। परिक्रमा की तर्ज पर कमलेश्वर ने कई मौलिक वृत्तचित्र तैयार किए जो खूब देखे जाते थे। कानपुर की तीन बहनों ने सामाजिक विसंगतियों के चलते पंखे से लटक कर सामूहिक आत्महत्या कर ली थी और घटनाक्रम (दुर्घटना कहना–लिखना ज्यादा मुनासिब होगा) ने देश के हर संवेदनशील प्राणी को भीतर तक झकझोर दिया था। कमलेश्वर ने इस पर डॉक्यूमेंट्री बनाई।

इस प्रस्तुति में भी आवाज उन्हीं की थी जो एक घंटा लंबे कार्यक्रम में कई बार ऐसे डगमगाई कि देखने वालों को लगा कि टेलीविजन में पर्दे के पीछे से बोलने वाला शख्स बस रोने ही वाला है! कमलेश्वर ने इस पत्रकार को बताया था कि कानपुर की तीन बहनों की खुदकुशी वाली प्रस्तुति की स्क्रिप्टिंग के दौरान वह कई बार रोए और आज भी वह घटना उन्हें थर्रा देती है! ‘हिंदोस्ता हमारा’ को दूरदर्शन का पहला धारावाहिक माना जाता है। कमलेश्वर दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक भी रहे। अपने इस अफसरशाही रूप में भी उन्होंने जन- अपेक्षाओं के लिए उल्लेखनीय काम किया।                                

सहयोग भावना और नई प्रतिभाओं को किसी भी सूरत में नहीं सूखने देने की जिद वाले कमलेश्वर सरीखे लोग बहुत कम बचे हैं। उन्होंने लेखन से बहुत धन अर्जित किया लेकिन जरूरतमंद लेखकों और अन्य लोगों की जमकर माली सहायता भी की। यहां संभावनाशील कथाकार तथा सारिका में उनके सहयोगी रहे रमेश बत्रा का जिक्र प्रासंगिक है। अंतिम दिनों में बत्रा जी लीवर सिरोसिस का गंभीर शिकार हो गए थे। वह जालंधर के मूल बाशिंदे थे और यहां उन्होंने आसरा ढूंढा। लीवर सिरोसिस महंगी बीमारी है। जालंधर में पैसे खत्म हुए तो ‘आसरा’ देने वाले भी दूर होते गए। गुरबत की अतिरिक्त बीमारी के साथ उन्होंने फिर दिल्ली में पनाह ली। लिवर सिरोसिस जब उनकी जान लेने की हद तक चला गया तब कमलेश्वर को रमेश बत्रा की इस हालत की खबर लगी। उन्होंने रमेश बत्रा को तलाशा और सुध ली तथा पैसे खर्च करके अस्पताल में भर्ती कराया।

वह उन्हें उन दिनों के सबसे महंगे अस्पताल अपोलो लेकर जाना ही चाहते थे कि रमेश बत्रा जहान से कूच कर गए। अंत्येष्ठि का सारा खर्च कमलेश्वर जी ने किया। वह न होते तो शायद रमेश बत्रा किसी सरकारी अस्पताल के उपेक्षित से कोने में खामोशी से दम तोड़ देते और संस्कार…? सोचकर ही मन सिहर जाता है। कमलेश्वर ने न जाने कितनी भूखी आत्माओं का अन्नसंकट दूर किया। जो लोग उन्हें कुलीन वर्ग में रखते हैं, उन्हें यह जानना बहुत जरूरी है। गुरबत के दिन देखने वाले कमलेश्वर को महंगी सिगरेट-शराब के साथ-साथ महंगी कलमों और कागजों का भी बेहद शौक था। वह कहा करते थे कि इससे उन्हें और ज्यादा रोशनी मिलती है। यह सब न हो तो भी वह इसी मानिंद (भी) जी लेंगे और लिखते रहेंगे। उनके ऐसे विचारों को इंगित करती एक चिट्ठी इन पंक्तियों के लेखक के पास भी है। (देखें: चित्र)। आगामी पीढ़ी में से किसी और को दूसरा ‘कितने पाकिस्तान’ न लिखने की कामना करने वाले कमलेश्वर ने दिल्ली में 27 जनवरी 2007 को आखिरी सांस ली।

(वरिष्ठ पत्रकार अमरीक सिंह का लेख।)

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