भारतीय लोकतंत्र की समस्याओं के जड़ में है वर्ण आधारित समाज और अज्ञान आधारित संकीर्ण धार्मिकता

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देश की राजनीति गरमाई हुई है। पर लोगों पर इसका कितना प्रभाव पड़ा है, इस बारे में फिलहाल कोई दावा नहीं किया जा सकता। जिस तरह विपक्ष के प्रमुख नेता राहुल गांधी की संसद सदस्यता छीनी गई, वह जितना विस्मयकारी है, उससे ज्यादा भयानक है।

सूरत की सीजेएम कोर्ट के फैसले से लेकर लोकसभा सचिवालय की अधिसूचना जारी होने के बीच कुछ ही घंटे का फासला रहा। जिस तेजी से सब कुछ हुआ, वह अचरज जगाता है। इसके बावजूद सत्ता-पक्ष और विपक्ष, दोनों के सामने आज बड़ी चुनौतियां नजर आती हैं। दोनों इन चुनौतियों को वो अपने-अपने ढंग से संबोधित भी कर रहे हैं।

अगर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने 30 दिनों का अपना लम्बा सत्याग्रह अभियान तय किया है तो सत्ताधारी भाजपा ने भी अपने कार्यकर्ताओं को जी-जान से जुटने का आह्वान किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने 28 मार्च की शाम साफ शब्दों में कहा कि उनकी सरकार ‘भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान’ जारी रखेगी।

इसका मतलब है कि विपक्षी नेताओं और सरकार से असहमत लोगों के खिलाफ केंद्रीय जांच एजेंसियों की छापेमारी, नेताओं की गिरफ्तारी और चुनाव से पहले विपक्षी खेमे में भय का माहौल बनाने की कार्रवाई जारी रहेगी।

मंगलवार को जिस समय मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता दिल्ली की सड़कों पर मशाल लेकर सरकार के दमनचक्र, खासतौर पर अपने नेता राहुल गांधी की संसद सदस्यता छीनने का विरोध कर रहे थे; प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक अपने पार्टी दफ्तर जाकर ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ जैसा भाषण किया।

मोदी जब भी बोलते हैं, देश के सारे टीवी चैनल उसका लाइव प्रसारण करते हैं। यह मौका सिर्फ देश के एक ही नेता को मिलता है। विपक्ष के विरोध-प्रदर्शन की सिर्फ इतनी खबर आई कि मशाल जुलूस निकाल रहे कांग्रेस नेताओं और कांग्रेस समर्थकों को लाल किला पहुंचने से पहले ही हिरासत में ले लिया गया।

ऐसे घटनाक्रम बताते हैं कि अगर विपक्ष चुनौतियों से घिरा है तो सत्तापक्ष भी चुनौती विहीन नहीं है। पर देश की जनता के सामने शायद सबसे ज्यादा चुनौतियां हैं। सबसे बड़ी चुनौती है कि लोगों का बड़ा हिस्सा अपने बारे में ठीक से सोच नहीं पा रहा है। परिस्थितियों का वस्तुगत आकलन नहीं कर पा रहा है। मुट्ठी भर लोगों के समझने और परिस्थितियों के सही आकलन से भारत जैसे बड़े देश में बदलाव की आशा नहीं की जा सकती।

संयोगवश, पूरी दुनिया ने कल इजराइल जैसे कट्टर अंध-राष्ट्रवादी देश में उठे जनाक्रोश को देखा। प्रधानमंत्री नेतन्याहू के कथित न्यायिक सुधार एजेंडे के खिलाफ लोगों ने जबर्दस्त प्रतिरोध प्रदर्शित किया। लोगों ने साफ शब्दों में कहा कि वे घरेलू स्तर पर अपनी न्यायपालिका की स्वायत्तता और स्वतंत्रता चाहते हैं।

न्यायपालिका को कमजोर करने वाले कथित न्यायिक सुधारों के खिलाफ उन्होंने अपने देश की समूची राजकीय व्यवस्था और गतिविधि को लगभग ठप्प कर दिया। सिर्फ आवागमन ही बाधित नहीं हुआ, सारे के सारे दफ्तर यहां तक कि विदेश स्थित इजरायली दूतावासों में भी काम ठप्प हो गया। किसी सरकारी एजेंडे या उद्घोषणा के खिलाफ ऐसी जन-एकता स्वतंत्र भारत के हाल के कुछ दशकों में शायद ही कभी देखी गयी।

हमारे यहां न्यायपालिका कितने दबावों में है और निचली अदालतों में न्याय की क्या स्थिति है, यह किसी से छिपा नहीं है। हमारी पुलिस व्यवस्था कितनी आततायी है, दुनिया के सभ्य देशों के लोग इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते।

सत्ताधारी नेताओं के आदेश पर सरकारी बुलडोजर किसी विपक्षी नेता, कार्यकर्ता या सत्ताधारियों से असहमत लोगों के घरों को गिरा देते हैं। टीवी चैनल उसे मजा ले-लेकर दिखाते हैं और उस अन्यायपूर्ण अमानवीय घटना को ‘न्याय होता हुआ’ बताते हैं। न्यायपालिका कुछेक आव्जर्वेशन देने के अलावा कुछ भी नहीं करती।

कैसी दिलचस्प बात है कि विपक्ष के एक बड़े नेता की संसद-सदस्यता खत्म कर दी जाती है, सिर्फ इसलिए कि उसने देश के बड़े सरकारी बैंकों का हजारों करोड़ लेकर विदेश भागे कुछ भ्रष्ट उद्योगपतियों के खिलाफ एक खास शब्द का प्रयोग करते हुए सत्ता-पक्ष के शीर्ष नेता को उन उद्योगपतियो से मिला हुआ बता देता है।

दूसरी तरफ, सत्ता-पक्ष का सबसे बड़ा नेता अपने पार्टी दफ्तर में अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए आह्वान करता है कि सरकार देश से भ्रष्टाचार को मिटाकर मानेगी। यह सब शब्दों की बेमतलब बौछार के अलावा और क्या है?

विपक्ष के नेता ठोस आंकड़ों के साथ बता रहे हैं कि सरकार और इसके सबसे बड़े नेता के नजदीकी बड़े उद्योगपतियों के लिए सरकारी बैंकों, निगमों और बीमा कंपनियों ने अपनी तिजोरी खोल दी है। सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति की खुलेआम लूट मची हुई है। इसके लिए वे पूरी दुनिया में चर्चित हो चुकी हिंडनबर्ग रिपोर्ट को सबूत के तौर पर पेश करते हैं।

विपक्ष चाहता है कि संसदीय समिति पूरे मामले की जांच करे। पर सरकारी पक्ष इस मांग पर बात करने के लिए तैयार नहीं होता। वह स्वयं ही संसद की कार्यवाही में बाधा डालता है। इस मसले से लोगों का ध्यान हटाने के लिए सत्ता-पक्ष के इशारे पर सरकार की जांच एजेसियां कुछ प्रमुख विपक्षी नेताओं के घरों-दफ्तरों पर छापेमारी करती हैं और कइयों को गिरफ्तार कर जेल मे डाल देती हैं।

सत्तापक्ष दावा करता है कि विपक्षी नेता भ्रष्ट हैं। सारी समस्या इनमें ही है। दूसरी तरफ, सत्ता-पक्ष के करीबी अफसरों और उद्योगपतियों का अभियान जारी रहता है। कहीं, देश की बड़ी सिमेंट फैक्ट्री का कोई खास उद्योगपति अधिग्रहण कर लेता है तो कहीं किसी एयरपोर्ट को चलाने वाली कंपनी पर सरकारी छापेमारी के बाद उक्त एयरपोर्ट के संचालन की जिम्मेदारी सत्ता के पसंदीदा उद्योगपति को मिल जाती है।

ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। पर सरकार हर वक्त अपने को परम राष्ट्रवादी और ईमानदार होने का स्वयं ही प्रमाणपत्र लेती रहती है। न्यायालयों का हाल भी कुछ कम चिंताजनक नहीं है। समय-समय पर न्यायालयों से कुछ अविश्वसनीय और विस्मयकारी फैसले आते हैं। फैसला देने वाले जज के रिटायर होने के फौरन बाद उसे कोई बड़ा शासकीय पद मिल जाता है। कभी गवर्नर तो कभी राज्यसभा का सदस्य बना दिया जाता है।

लेकिन ऐसे पूर्व न्यायाधीश और सरकार चलाने वाले, दोनों ही अपने हर आचरण के ईमानदार और निष्पक्ष होने का दावा करना जारी रखते हैं। सत्ता-पक्ष के राजनीतिक कार्यकर्ताओं को खुलेआम बड़े पदों पर बिठाया जा रहा है। देश के मीडिया संस्थानों पर सत्ता-पक्ष का संपूर्ण कब्जा-सा हो चुका है। टीवी चैनल जब कभी आलोचना करते हैं, सिर्फ विपक्ष की करते हैं। सरकार की प्रशंसा में पूजा-अर्चना से भी ज्यादा समर्पण दिखाते हैं।

शासन और शासकों से असहमत लोगों को मीडिया, खासकर टीवी चैनलों के एंकर खुलेआम ‘देशद्रोही’ तक कहते रहते हैं। अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यकों को न सिर्फ भड़काया जा रहा है अपितु उन्हें इसी आधार पर गोलबंद किया जा रहा है।

संविधान के विरूद्ध ऐलान करने में सत्ताधारियों के तमाम आनुषंगिक संगठन देशव्यापी स्तर पर सक्रिय हैं। इनमें एक ऐलान है- हिन्दू राष्ट्र के गठन का। अचरज की बात कि पंजाब के उग्र सिख नौजवानों को खालिस्तान का नारा लगाने पर देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया जाता है। लेकिन हिन्दू राष्ट्र बनाने के आह्वान पर सत्तापक्ष स्वयं खुशी जाहिर करता है।

अभी हाल ही में सत्ता-पक्ष का समर्थक एक कथित युवा धर्मात्मा अपने सार्वजनिक प्रवचन में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की अपनी मंशा का ऐलान करता है। वह खुलेआम नारा लगाता हैः ‘तुम मेरा साथ दो, मैं तुम्हें हिन्दू राष्ट्र दूंगा।’ शासन या न्यायतंत्र की तरफ से उसके खिलाफ कुछ भी नहीं किया जाता।

संविधान और लोकतंत्र पर इतने भयानक हमलों के बावजूद हमारे समाज के बड़े हिस्से में मौजूदा सत्ता-संरचना और शासक समूह के विरूद्ध किसी तरह के बड़े प्रतिरोध की बात तो दूर रही, गहरा मोहभंग भी नहीं नजर आता। अभी हाल में हुए कुछ राज्यों के चुनाव के नतीजे इस बात की पुष्टि करते हैं।

आखिर क्या वजह है कि हमारे समाज में इतनी भी जागरुकता नहीं दिखती कि लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के बचाव में बोलें या कुछ करें। आखिर ऐसा क्यों हो गया है हमारा समाज? इतनी ज्यादतियों के बावजूद अगर समाज का बड़ा हिस्सा शासक समूह से अपने समर्थन में कमी नहीं करता तो इसके पीछे हमारे समाज की अपनी विचित्र किस्म की विशिष्टताएं हैं।

इजराइल जैसा देश, जो पूरी दुनिया में अपनी राष्ट्रवादी-उग्रता, हथियारों के उद्योग और फिलिस्तीनी लोगों के खिलाफ हिंसा के लिए जाना जाता है, वहां का समाज भी घरेलू स्तर पर अपने लिए लोकतंत्र, स्वतंत्रता और मानवाधिकार चाहता है। अपनी संवैधानिक संस्थाओं, खासकर न्यायपालिका की स्वायत्तता और उनकी निष्पक्षता चाहता है।

पर भारतीय समाज, खासकर उत्तर के हिंदी-भाषी विशाल इलाके के लोगों का सबसे प्रभावशाली हिस्सा समाज में सिर्फ अपने वर्चस्व और सामाजिक रूप से उत्पीड़ित समुदायों के लगातार पिछड़ा बने रहने में ही अपनी ‘आजादी’ का एहसास करता है। ऐसा क्यों है? पूरी दुनिया में ऐसी मानसिकता और सोच के समुदाय शायद ही कहीं इतने बड़े पैमाने पर मिलें।

क्या यह सच नहीं कि हमारे समाज में ‘उच्च वर्णीय पृष्ठभूमि’ के अनेक गरीब व्यक्ति भी किसी ‘निम्न वर्ण’ के गरीब और शरीफ इंसान के मुकाबले अपने ही वर्ण के बेहद अमीर और उत्पीड़क किस्म के व्यक्ति से अपनी ज्यादा निकटता महसूस करते हैं? ऐसा समाज-बोध और नागरिक-बोध शायद ही दुनिया के किसी और देश में मिले। मौजूदा सत्ता-पक्ष ने समाज में व्याप्त ऐसी मानसिकता का जमकर इस्तेमाल किया है।

अनेक संगठनों ने दलितों-पिछड़ों के सीमित आरक्षण को उच्च-वर्णों में उनके साथ हुए अन्याय के तौर पर प्रचारित किया है। ऐसे में यह महज संयोग नहीं कि इजराइल जैसे देश की जनता घरेलू स्तर पर अपने लोकतंत्र और न्यायिक स्वायत्तता की रक्षा के लिए देशव्यापी स्तर पर सक्रिय हो जाती है पर भारतीय़ लोकतंत्र, संवैधानिकता और न्यायतंत्र पर इतने सारे हमलों के बावजूद हमारे यहां आम समाज में कोई खास हलचल नहीं दिखती।

हमारे वर्ण-आधारित समाज और अज्ञान-आधारित संकीर्ण धार्मिकता ने हाल के कुछ दशकों में लोगों को इतना बेबस और असमर्थ बना रखा है कि संवैधानिक संस्थाओं के कुंद और कमजोर किये जाने के बावजूद कुछेक अपवादों को छोड़कर बड़े पैमाने पर कोई सशक्त आवाज नहीं उठ रही है! ऐसे समाज की हर प्रमुख शासकीय, सवैधानिक या लोकतांत्रिक संस्थाओं पर ‘हिन्दू उच्च वर्णीय लोगों’ का ही कब्जा है।

इसीलिए सत्ता-पक्ष महज एक बहुमत-प्राप्त दल या समूह नहीं रह गया है, वह सर्वसत्तावाद का संगठित समूह बनकर उभरा है। यही कारण है कि शासन करने वाले राजनीतिक समूह, अफसरशाही, कॉरपोरेट, मीडिया, और न्यायपालिका के बीच ‘समान-सोच और मिजाज’ के लोगों का प्रचंड बहुमत दिखता है। संयोगवश, इनमें कहीं कोई लोकतंत्र और संवैधानिकता के पक्ष में आवाज उठाने की कोशिश करता है तो उसकी बातें समाज के बड़े हिस्से में नागवार गुजरती हैं।

भारत के पिचकते लोकतंत्र के लिए यह बहुत बड़ा खतरा है। समाज को जब तक सही दिशा नहीं मिलेगी, राजनीति में सुधार संभव नहीं होगा।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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Amarnanda
Amarnanda
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1 year ago

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