मनुष्यों और जानवरों के बीच पुराना है विषाणुओं का आना-जाना

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प्रकृति में हज़ारों लाखों की संख्या में जीवाणु और विषाणु हैं, जिनमें से कुछ लाभकारी हैं और अन्य बीमारी का कारक बनते हैं। यह बात महत्वपूर्ण है कि इन जीवाणुओं और विषाणुओं की क्षमता सीमित है यानि जो विषाणु पपीते को बीमार करता है वह आम में नहीं लगता, या जो किसी गाय को बीमार करता है वह मनुष्य पर प्रभाव नहीं डालता। बीमारी के कारक और उसके होस्ट में लगभग ताले-चाबी के जैसा विशिष्ट सम्बंध है। 

कभी कोई चाबी ज़रा सी घिस जाए या टेढ़ी हो जाए तो वह लगभग अपने से मिलती-जुलती किसी दूसरे ताले को भी खोल देती है। यही कोरोना वायरस के साथ हुआ। आमतौर पर चमगादड़ में पाया जाने वाला यह विषाणु मनुष्य की कोशिकाओं में घुसने में एक छोटे से परिवर्तन के कारण कामयाब हो गया है। प्रकृति में DNA बहुत धीमी गति से बदलता है और कभी अचानक स्वत: स्फूर्त बदलाव भी उसमें आते हैं।

कोरोना का मनुष्य में जंप करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, एड्स, बर्ड फ़्लू, स्वाइन फ़्लू के विषाणु सब हमारे ही जीवनकाल में मनुष्य में संक्रमित हुए हैं। कुछ सौ वर्ष पीछे जायें तो स्मॉल पॉक्स, टीबी, फूट एंड माउथ के विषाणु पालतू पशुओं से मनुष्य में आए। मनुष्य को संक्रमित करने वाले दूसरे कई अन्य जीवाणु /विषाणु हैं जो दूसरे जानवरों में संक्रमित हुए हैं। तो मनुष्य ऐसा कोई पाक-साफ़ नहीं है।

रोचक सवाल यह है कि कोरोना के पास मनुष्य की कोशिका में घुसने की चाबी से मिलती-जुलती चाबी कैसे आई। एक अनुमान यह है कि अपनी विकास यात्रा में मनुष्य गुफा मानव की तरह 50,000 वर्ष रहा और वहाँ चमगादड़ों के सानिध्य में रहा, इसीलिए कोरोना जैसे विषाणु इन दोनों के बीच संक्रमित होते रहे हैं। इसीलिए मनुष्य के शरीर में ऐसी स्मृति बची है कि फट से उसने विषाणु को पहचान कर अपने भीतर आने दिया। 

फ़िलहाल कोई सबूत नहीं है कि यह वायरस सीधे चमगादड़ से मनुष्य में जंप किया है। यह भ्रामक थ्योरी है कि चीन में चमगादड़ का सूप पीने से यह बीमारी फैली है। तो फ़िलहाल चीन के खानपान की कोरोना फैलाने में कोई भूमिका नहीं है। बहुत सम्भव है कि मनुष्य और चमगादड़ के बीच कोई अन्य जानवर इंटरमीडिएट है, जिसकी अभी पहचान नहीं हुई है।

जनवरी में चीन के वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस का पूरा जीनोम सीक्वेन्स किया फिर एक हफ़्ते के भीतर फ़्रांस में फिर से कोरोना वायरस का पूरा जीनोम सीक्वेन्स किया गया और अन्य कई देशों में भी उसके बाद यह हुआ और वैज्ञानिक इस दिशा में शोध कर रहे हैं कि अलग-अलग देशों में रोगियों से मिले इस वायरस में कितना अंतर है, साथ ही विभिन्न जानवरों से मिले इस तरह के वायरस को भी सीक्वेन्स किया जा रहा है ताकि यदि कोई इंटरमीडियट होस्ट है तो उसकी पहचान की जाए। 

इस अनुमान की वज़ह यह है कि COVID-19 (SARS-CoV-2) उस विषाणु परिवार का सदस्य है जिसके भीतर कई SARS (Severe Acute Respiratory Syndrome )-CoV व MERS (Middle East Respiratory Syndrome)-CoV विषाणु आते हैं जिनमें से कई चमगादड़ में पाये जाते हैं और एकाधिक किसी इंटरमीडियट के ज़रिए पहले भी मनुष्य में जंप कर चुके हैं। उदाहरण के लिए 2003 में जो SARS का आउटब्रेक हुआ वह मनुष्य में सिवेट बिल्ली से चीन में फैला, हालांकि यह वायरस चमगादड़ में पहले से मौजूद रहा है। 2012 का MERS फ़्लू ऊँटों से मनुष्य में फैला और इसका केंद्र साऊदी अरेबिया था। 2009 का बहुचर्चित स्वाइन फ़्लू मैक्सिको में शुरु हुआ और वह सुअरों के माध्यम से मनुष्य में संक्रमित हुआ।  

वायरस अपने आप में सजीव नहीं होता, यानि अपने आप यह प्रजनन में सक्षम नहीं है। वह निर्जीव और सजीव के बीच की एक कड़ी है। यह एक सरल संरचना है जिसमें एक या अधिक प्रोटीन के मामूली खोल या वसा की परत के भीतर DNA या RNA का एक छोटा सा सूत्र पाया जाता है जोेननम मुश्किल से 3-8 जीन कोड करता है। किसी जीवित कोशिका पर हमला करने के बाद वायरस के जीन सक्रिय होते हैं और होस्टकोशिका के संसाधनों का इस्तेमाल करके अपने जीनोम (डीएनए या आरएनए) की हज़ारों प्रतियाँ बनाते हैं।

जब संक्रमित कोशिका के संसाधन चुकने लगते हैं तो वे अपने जीनोम कॉपी करना बंद कर देते हैं और कोट प्रोटीन बनाने लगते हैं। कोट प्रोटीन से वायरस का बाहरी खोल बनता है जिसमें एक-एक कर वायरस जीनोम पैक होने लगते हैं और आख़िर में संक्रमित कोशिका को फाड़कर बाहर निकलते हैं, और फिर नई कोशिकाओं को संक्रमित करते हैं।

चीन में कोरोना पहचान लिया गया उसका एक कारण यह है कि पिछले 15 वर्षों से वैज्ञानिक SARS और MERS विषाणुओं पर रिसर्च कर रहे थे, इन विषाणुओं पर निगाह रख रहे हैं और ऐसी महामारी की आशंका जता रहे हैं। 2015 में नेचर मैगज़ीन में इस विषय पर अमेरिकी और चीनी वैज्ञानिकों के मिले-जुले काम से एक महत्वपूर्ण रिसर्च आर्टिकल छपा। जर्मनी और अन्य देशों के वैज्ञानिक भी इस विषय में शोध कर रहे थे। 

यह आख़िरी बीमारी इस तरह की नहीं है, हम हर 5-10 साल में इस तरह की आपदा में फँसते रहेंगे। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन का असर होगा और अधिक आपदायें आयेंगी। लेकिन उनसे पार पाने के लिए लम्बे समय के लिए प्लानिंग करनी होगी। समाज को अपने मूलभूत इंफ़्रास्ट्रक्चर को दुरुस्त करना होगा और लोगों के बीच वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करना होगा ताकि इन महामारियों की मारक क्षमता को कम किया जा सके। 

आज मार्च 22 तारीख़ तक दुनियाभर में 318,867 लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से 13,676 की मौत हो चुकी है और 96,008 इस बीमारी से ठीक हो चुके हैं। फ़िलहाल कोई अचूक दवा इस बीमारी की नहीं है, तो ऐसी स्थिति में एपीडेमियोलोजिस्ट (यानि वह वैज्ञानिक जो महामारियों के फैलने के और उनकी सम्भावित रोकथाम के विशेषज्ञ) ही सबसे ज़्यादा मददगार हैं और उनकी सलाह है कि लोग यदि भीड़भाड़ से बचें और आपसी शारीरिक सम्पर्क में कम से कम आयें तो इस बीमारी की रफ़्तार धीमी की जा सकती है और अधिकाधिक लोगों को बचाया जा सकता है और इस बीच वैक्सीन या ड्रग्स ट्रायल किए जा सकते हैं।

(मूल रूप से उत्तराखंड निवासी वैज्ञानिक सुषमा नैथानी ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी में रिसर्च प्रोफ़ेसर हैं और एल्ज़वेयर प्रकाशन के करंट प्लांट बायोलॉज़ी की प्रमुख सम्पादक हैं। वे हिन्दी व अंग्रेजी की समर्थ कवयित्री हैं और उनका संग्रह प्रकाशित हो चुका है।)

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