आत्मनिर्भर और खुशहाल भारत की नारेबाजी नहीं, ठोस जन-पक्षधर नीति चाहिए जनाब 

हर साल देश का केंद्रीय बजट बड़े गाजे-बाजे के साथ तैयार किया जाता है। हर बार वित्त मंत्री के पास एक कार्यभार यही बना रहता है कि वे कैसे आम लोगों को बिना कुछ दिए भी कुछ शेरो-शायरी या बजट फाइल को ही अनूठे ढंग से संसद में लाने की तरकीब ढूंढें।

2023-24 के बजट में भी पिछले वर्षों की तुलना में कुछ इधर तो कुछ उधर करके काम चला लिया गया। 2014 से पहले देश में पंचवर्षीय योजना पर काम किया जाता था, जिसे अब खत्म कर दिया गया है। पूरा अख़बार चाट जाने के बाद भी पता नहीं चलता कि देश के आर्थिक विशेषज्ञों से सुसज्जित नीति आयोग और वित्त मंत्रालय के लिए बजट में सबसे बड़ी चुनौती या कार्यभार क्या हैं? इसे हम नीचे दिए गये चार्ट से समझने की कोशिश करते हैं।

वर्ष 2023-24 के लिए कुल 45,03,097 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया था। लेकिन इसमें सबसे बड़ी रकम शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा या 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफ्त अनाज स्कीम में नहीं खर्च किया गया। इसे खर्च किया गया ब्याज चुकाने में। जी हां, कुल बजट के 23.98% हिस्से को ब्याज चुकाने में इस्तेमाल किया जा रहा है।

इसके बाद ट्रांसपोर्ट के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने पर सबसे बड़ी रकम खर्च की जा रही है। अटल बिहारी वाजपेई सरकार के बाद क्या एनडीए और क्या यूपीए की सरकार रही ही, जमकर इस मद पर खर्च किया गया। इस मद में 5.17 लाख करोड़ रूपये का आवंटन किया गया। इसके बाद रक्षा (4.33 लाख करोड़), सब्सिडी (3.74 लाख करोड़) पर खर्च का प्रावधान किया गया।

इसमें शिक्षा और स्वास्थ्य मद पर खर्च को कितना स्थान दिया गया? सरकार के लिए शिक्षा (10वें) और स्वास्थ्य (13वीं) प्राथमिकता पर थी। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यह कोई पहली बार हो रहा है। पिछले कई दशकों से यही सिलसिला चला आ रहा है, और आगे भी हमारे देश की सरकारों के लिए यही राह तय है। नीचे दिए गये चार्ट में आप देख सकते हैं कि सरकार के पास प्राथमिकता में क्या चीजें हैं, और अगर इसी दिशा में 2024 और बाद में भी चला गया तो देश किन हालातों में जाने की तैयारी कर रहा है। 

किसी भी विकासशील अर्थव्यस्था के लिए जीडीपी के आंकड़े कभी भी पहली शर्त नहीं हो सकते। हमारे देश की आबादी 142 करोड़ है, जो पहले ही दुनिया में पहले स्थान पर है। जनसांख्यिकीय लाभांश की बातें हम 2014 से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के भाषणों में सुन रहे हैं, लेकिन शिक्षा और रोजगार का हाल बेहतर होने की जगह रसातल की ओर उन्मुख है। अभिजात एवं उच्च-मध्य वर्ग का तबका तेजी से भारत छोड़ विदेशों की नागरिकता ग्रहण करने पर लगा हुआ है। जो धनवान हैं, उनके बच्चे पश्चिमी देशों में रिकॉर्ड संख्या में उच्च शिक्षा के लिए अरबों डॉलर खर्च कर जा रहे हैं, जिनमें से अधिकांश लोग फिर वापिस मुड़कर नहीं देखने वाले।

लेकिन पलायन की समस्या सिर्फ धनी और उच्च मध्य वर्ग तक सीमित होती तो भी गनीमत थी। हाल के वर्षों में बड़ी संख्या में लाखों युवा अवैध तरीकों से अमेरिका और यूरोपीय देशों में किसी तरह घुसने की कोशिशों में गिरफ्तार किये जा चुके हैं। पिछले वर्ष ही सिर्फ अमेरिका में (अक्टूबर 2022 से लेकर सितंबर 2023) के बीच में रिकॉर्ड 96,917 भारतीय अवैध तरीके से घुसने के प्रयास में यूएस कस्टम एंड बॉर्डर प्रोटेक्शन (यूसीबीपी) के आंकड़ों के अनुसार गिरफ्तार किये जा चुके थे। अमेरिका के अलावा जर्मनी, इंग्लैंड, फ़्रांस सहित विभिन्न यूरोपीय देशों से भी इसी प्रकार की रिपोर्टें आ रही हैं। डेमोग्राफिक डिविडेंड का ऐसा भद्दा इस्तेमाल अगले 25 वर्षों में हमें विश्व गुरु बनने के बजाय पूरी तरह से बर्बाद देश बना सकता है, क्योंकि तब काम करने लायक हाथों की जगह बैसाखी के सहारे चलने वाले बूढ़े लोगों का भारत होगा।

बैंकों का एनपीए बढ़ता ही जा रहा है

मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में रिकॉर्ड संख्या में बैंकों का एनपीए हुआ। ललित मोदी, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी और विजय माल्या की अगुआई में लाखों करोड़ रूपये या तो घाटे में दिखा दिए गये, या बरमुडा, मारीशस और यूरोपीय बैंकों में यह रकम चुपचाप खिसकाकर भारत के धनाढ्य लोग पलायन कर गये। लेकिन दूसरे कार्यकाल में भी कोई सुधार नहीं दिखा। 2019 से 2023 के बीच भी बैंकों ने 10.60 लाख करोड़ रुपये की रकम राइट-ऑफ कर दी है। इस रकम में भी 52.3% कर्ज चंद बड़े कॉर्पोरेट समूहों द्वारा चुकता नहीं किया गया है। तमाम कोशिशों के बावजूद सरकार इसमें से 10% हिस्से को ही वसूलने में कामयाब रह सकती है, ऐसा पिछले अनुभव से हम सभी जान चुके हैं।

देश का बढ़ता कर्ज असल में आपके सिर पर है 

2014 तक देश के उपर 55 लाख करोड़ का कर्ज था, जो पिछले वर्ष बढ़कर 205 लाख करोड़ रूपये हो चुका था। 9 वर्षों में 150 लाख करोड़ रूपये का नया कर्ज लेकर वित्त मंत्रियों ने कितने करोड़ नए रोजगार सृजित किये, पूछने वाला कोई नहीं है। देश की संवैधानिक संस्थाओं का हाल हम सभी जानते हैं। ऐसी कई संस्थाओं के बारे में अब कोई चर्चा नहीं होती। लोकपाल के लिए 2013 में पूरा देश सड़कों पर था। रात-रात भर देश का मीडिया अदालत चला रहा था। उस लोकपाल की शक्ल भी अब 140 करोड़ लोगों को याद नहीं। सीवीसी, लोकायुक्त और महालेखापरीक्षक की रिपोर्टे अब सरकार को चिंतित नहीं करतीं।

देश में जांच एजेंसियों की बात करें तो ईडी के द्वारा दायर 95% से अधिक मामले विपक्षी पार्टियों पर ठोंके गये हैं। 1947 से 2014 तक 55 लाख करोड़ रूपये कर्ज लेने वाले (कांग्रेस, वीपी सिंह, वाजपेई सरकार) की तुलना में 150 लाख करोड़ रूपये का नया कर्ज लेकर घी पीने वाली सरकार के खिलाफ ईडी, सीबीआई को कोई सुराग नहीं मिल रहा है। लोकतंत्र की यह कौन सी श्रेणी है, क्या कोई इसे समझा सकता है?  

यही वजह है कि आज भारत के डेमोग्राफिक डिविडेंड का फायदा देश के बजाय पश्चिमी देश उठाने जा रहे हैं। मई 2023 में इजराइल के साथ हुए समझौते में 42,000 भारतीय श्रमिक भेजे जाने पर करार हो चुका है। अब उसी कड़ी में इजराइल बिल्डर एसोसिएशन (आईबीए) की ओर से कुछ दिन पहले भारत से करीब 10,000 निर्माण श्रमिकों की खेप भेजने के लिए कहा है। जल्द ही यह संख्या 30,000 तक पहुंचने की उम्मीद है। यूनान से भी अपने देश के कृषि क्षेत्र में काम करने के लिए भारत से संपर्क किया गया है। खबर है कि उसके द्वारा 10,000 श्रमिक भेजे जाने की मांग की गई है। इसी प्रकार इटली ने भी अपने कस्बों में सफाई कर्मियों के तौर पर काम करने के लिए भारत सरकार से संपर्क साधा है। हरियाणा सरकार ने भी पिछले महीने इजरायल में बढ़ई, सरिया मोड़ने, टाइल लगाने और प्लास्टरिंग जैसे कामों के लिए 10,000 कुशल श्रमिकों की भर्ती का नोटिस निकाला था। इजराइल-हमास युद्ध के चलते फिलिस्तीनियों से खाली हुए पदों पर इजरायल को फौरी तौर पर 90,000 विदेशी कामगारों की जरूरत है। चूंकि भारत में न नौकरी है और न ही स्किल्ड वर्कर, इसलिए दुनिया में अकुशल श्रमिक मुहैया कराने के मामले में अब अफ्रीका महाद्वीप के गरीब मुल्कों को टक्कर देने के लिए भारतीय तैयार हो रहे हैं।

संयुक्तराष्ट्र संघ के द्वारा वर्ष 2022 की यूएनडीपी रिपोर्ट में मानव विकास सूचकांक में शामिल कुल 191 देशों में भारत को 132वें स्थान पर रखा गया था। यूएनडीपी के विकास के पैमाने पर राष्ट्र में स्वास्थ्य, शिक्षा एवं औसत आय को पैमाना बनाया जाता है। रिपोर्ट में पाया गया है कि कोविड-19 महामारी के दौरान और उसके बाद भारत अपनी पूर्व स्थिति से नीचे खिसक चुका है। औसत उम्र भी पहले के 69.7 वर्ष से घटकर 67.2 वर्ष हो चुकी है। 2019 से न्यूनतम मजदूरी की दर 178 रूपये से आगे नहीं बढ़ी है। इसका अर्थ है कि पिछले 5 वर्षों से भारत में न्यूनतम मजदूरी में कोई इजाफा नहीं हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि पिछले 5 वर्षों में देश में महंगाई के कारण आम लोगों की आय बढ़ने या स्थिर रहने के बजाय बेहद कमजोर हुई है।

ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा में काम की मांग लगातार बढ़ी है, लेकिन केंद्र के द्वारा वर्ष 2020-21 और 2021-22 में इस मद में वृद्धि के बाद इस वर्ष घटा दिया गया था। कुछ राज्यों में मनरेगा के लिए आवंटन बंद कर दिया गया है। पश्चिम बंगाल को मनरेगा में अनियमितता का हवाला देकर इससे पहले ही वंचित किया जा चुका है। मनरेगा की रकम हासिल करने के लिए रियल टाइम में ऑनलाइन हाजिरी सहित अब आधार के साथ लिंक करने की शर्त ने बड़ी संख्या में ग्रामीण गरीबों की पहुंच से दूर कर दिया है।

ग्रामीण भारत में रोजगार और आजीविका के साधन तेजी से खत्म होने की सूरत में करोड़ों भारतीय अपनी आजीविका के लिए शहरों का रुख करते हैं, जहां पहले से बड़ी तादाद में बेरोजगारों की भरमार है। यह स्थिति निर्माण क्षेत्र एवं छोटे-बड़े पूंजीपतियों के लिए श्रम को बेहद सस्ती दरों पर हासिल करने का आधार प्रदान करते हैं। स्थायी रोजगार के स्थान पर असंगठित श्रम बल एवं गिग इकोनॉमी को आवश्यक बूस्ट तो मिला है, लेकिन बड़ी संख्या में सर्विस सेक्टर को ड्राइव करने वाले आईटी इंडस्ट्री में गतिरोध और मंदी के कारण कई सहायक उद्योग धंधे लड़खड़ा रहे हैं।

वैकल्पिक आर्थिक मॉडल की बात कौन करेगा?

बड़ा सवाल यही है कि मोदी सरकार के पास तो विकास का एक तय मॉडल पहले से है। देश के बड़े कॉर्पोरेट घरानों एवं फॉर्मल इंडस्ट्री को ध्यान में रखते हुए ही उसके द्वारा नोटबंदी और फिर जीएसटी के साथ-साथ पेटीएम और जनधन खाते की शुरुआत की गई थी। कोविड-19 महामारी ने भी इन्हीं बड़े कॉर्पोरेट समूहों और क्रोनी पूंजी को और मजबूत करने का काम किया। लाखों एमएसएमई उद्योग ही करोड़ों आम भारतीयों का सहारा था, जिसे इस प्रकिया में एक-एक कर बर्बादी की कगार पर पहुंचने के लिए विवश किया गया। आज भी केंद्र सरकार के पास देश में बड़ी संख्या में रोजगार उत्पन्न करने का कोई रोडमैप नहीं है। सरकार की ओर से तो अब और भी बड़ी मात्रा में उच्च पूंजी निवेश वाले उद्योगों में निवेश के लिए विदेशी कंपनियों को खुला आमंत्रण एवं सुविधायें मुहैया कराई जा रही हैं।

90 के दशक में विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत को जिस राह पर चलने का निर्देश दिया, उसके भयावह परिणाम आज हमारे सामने हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस सहित विपक्षी दलों के नए गठबंधन ‘इंडिया समूह’ में भी वैकल्पिक मॉडल को लेकर कोई समझ नहीं बन रही है। राहुल गांधी की 14 जनवरी से प्रस्तावित भारत जोड़ो न्याय यात्रा में एक बार फिर से लाखों युवाओं, किसानों, असंगठित श्रमिकों की भीड़ देखने को मिल सकती है। बड़ा सवाल यह है कि क्या विपक्ष के पास भी कोई वैकल्पिक आर्थिक मॉडल है, या वह भी आम चुनाव जीतने की सूरत में थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ उन्हीं कॉर्पोरेट समूहों के पैरों तले ही करोड़ों युवाओं की किस्मत में चमत्कारिक बदलाव की आस जगा रहे हैं? अगर ऐसा ही रहा तो उनके नारों से निराशा की गर्त में डूबे युवाओं की आस पूरी नहीं होने जा रही। अगर लाखों की संख्या में देश का युवा इंडिया गठबंधन के साथ लामबंद नहीं हुआ, तो भाजपा के पास मीडिया, धन-बल के साथ-साथ इवेंट मैनेजमेंट का इतना असाधारण पैकेज है, जो एक बार फिर उसे ही अपरिहार्य साबित करने के लिए काफी होगा, जो देश के भविष्य के लिए निर्णायक साबित होगा।         

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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