Thursday, March 28, 2024

क्या मोदी को गडकरी के जरिए संघ ने कोई संदेश देना चाहा है?

हाल ही में महाराष्ट्र स्थित लोकमत समाचार पत्र समूह के अंग्रेजी अखबार ‘लोकमत टाइम्स’ में प्रकाशित वह सनसनीखेज खबर काफी चर्चा में है, जिसके मुताबिक एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि वे विचारधारा से बंधे हैं, अन्यथा वे पार्टी के 252 सांसदों को लेकर अलग हो जाते और सरकार को गिरा देते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पार्टी के दबदबे को देखते हुए यह बहुत बड़ी बात है, लेकिन सवाल है कि किस मंत्री के साथ पार्टी के 303 में से 252 सांसद हो सकते हैं? 

यह बात जगजाहिर है कि भाजपा पिछले आठ साल से हर चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर लड़ रही है और ज्यादातर में उसे जीत भी हासिल हो रही है। हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने उत्तर प्रदेश सहित चार राज्यों में जीत हासिल कर दोबारा सरकार बनाई है। लोकसभा में भी पार्टी के ज्यादातर सांसद मोदी के नाम पर ही जीत कर आए हैं। 

अपने दम पर जीतने वाले कुछ गिने-चुने नेताओं को छोड़ दें तो ज्यादातर सांसद नए हैं, और मोदी के नाम पर ही जीते हैं। उन्हें यह भी पता है कि आगे भी वे मोदी के नाम पर या भाजपा की लहर में ही जीत सकते हैं। ऐसे में किसी भी मंत्री का यह दावा करना बकवास ही माना जा सकता है कि उसके पास 252 सांसद हैं। 

बहरहाल, जो भी हो, लेकिन इस खबर ने सोशल मीडिया में हलचल मचाई है। चूंकि यह खबर नागपुर स्थित अखबार ने छापी है, इसलिए भी इसकी ज्यादा चर्चा हो रही है। गौरतलब है कि नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय है और पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का निर्वाचन क्षेत्र भी नागपुर ही है। 

अखबार में ‘All is not well with BJP’s top leadership’ (भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के साथ सब कुछ ठीक नहीं) शीर्षक से छपी खबर के मुताबिक कैबिनेट की एक बैठक में मंत्री के विभाग से संबंधित किसी मुद्दे पर प्रधानमंत्री के साथ तीखे मतभेद उभर आने पर उक्त मंत्री ने यह चुनौती भी दी, ”अगर आप में हिम्मत है तो मुझे मंत्रिपरिषद से निकाल दीजिए।’’ 

अखबार में छपी इस सनसनीखेज खबर को लेकर जब सत्ता के शीर्ष से नाराजगी जताई गई तो अखबार के प्रबंधन ने खबर देने वाले दिल्ली स्थित अपने संवाददाता को तत्काल नौकरी से निकाल दिया। खबर में हालांकि मंत्री के नाम का खुलासा नहीं किया गया है, लेकिन माना जा रहा है कि यह मंत्री नितिन गडकरी ही हैं। भाजपा से जुड़े जानकार सूत्रों का मानना है कि संघ नेतृत्व के इशारे पर ही गडकरी ने यह बातें उक्त अखबार के संवाददाता को अपना नाम न छापने की शर्त पर बताई होगी। इस खबर के जरिए संघ नेतृत्व संभवत: मोदी को कोई संदेश देना चाहता होगा या उसका मकसद भविष्य की राजनीति के लिहाज से पार्टी और सरकार में अलग-अलग स्तरों पर माहौल को भांपना रहा होगा। 

ऐसा मानने का पुख्ता आधार भी है, क्योंकि आज की तारीख में गडकरी ही ऐसे नेता हैं, जिन्हें भाजपा में संघ के शीर्ष नेतृत्व का सर्वाधिक विश्वस्त माना जाता है। इसलिए वे ही मोदी से ऐसी या इतनी बात कर सकते हैं। वैसे भी मोदी और गडकरी के संबंध कभी भी सहज नहीं रहे हैं। जब 2009 से 2012 तक गडकरी भाजपा के अध्यक्ष थे तब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। यानी राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की आमद नहीं हुई थी और भाजपा की अंदरूनी राजनीति में उन्हें लालकृष्ण आडवाणी खेमे का ही माना जाता था। 

संघ नेतृत्व ने ही लालकृष्ण आडवाणी और उनके समर्थकों की असहमति को नजरअंदाज कर गडकरी को पार्टी का अध्यक्ष बनवाया था। आडवाणी और उनके सिपहसालारों की तरह मोदी भी अध्यक्ष के रूप में गडकरी को नापसंद करते थे। इसी वजह से जब भी वे दिल्ली आते थे तो आडवाणी के प्रति अपनी वफादारी जताने के लिए गडकरी से मिलना तक पसंद नहीं करते थे। अलबत्ता पार्टी में अपने मित्रों से बातचीत के दौरान वे गडकरी का मजाक उड़ाते हुए यह जरूर पूछ लेते थे कि ‘नागपुरी डमरू’ के क्या हालचाल हैं। उनकी नापसंदगी तो इस हद तक थी कि गडकरी के पूरे अध्यक्षीय कार्यकाल के दौरान उन्होंने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भी कभी भाग नहीं लिया। 

चूंकि संघ नेतृत्व गडकरी के कामकाज से संतुष्ट था, इसलिए वह चाहता था कि गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल भी मिले यानी 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा उन्हीं के नेतृत्व में लड़े। लेकिन संघ नेतृत्व की यह चाहत लालकृष्ण आडवाणी और उनके समर्थको को मंजूर नहीं थी। हालांकि उस समय तक आडवाणी संघ की निगाह से उतर चुके थे, लेकिन पार्टी पर उनका दबदबा काफी हद बना हुआ था। 

संसद के दोनों सदनों में पार्टी और विपक्ष के नेता भी उनके भरोसेमंद सुषमा स्वराज और अरुण जेटली थे। संसदीय दल के अध्यक्ष तो आडवाणी खुद थे ही। नरेंद्र मोदी सहित लगभग सभी भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी उनके ही फरमाबरदार थे। उनकी प्रधानमंत्री बनने की हसरत भी खत्म नहीं हुई थी, लिहाजा वे अपने ही किसी विश्वस्त को पार्टी का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। 

कुल मिलाकर पूरा आडवाणी खेमा गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल देने के खिलाफ था, लेकिन संघ का खुल कर विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। अरुण जेटली उस समय राज्यसभा में विपक्ष के नेता हुआ करते थे और यूपीए सरकार में वित्त मंत्रालय संभाल रहे पी. चिदंबरम से उनकी दोस्ती जगजाहिर थी। भाजपा में अध्यक्ष पद के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। गडकरी दोबारा अध्यक्ष बनने के लिए नामांकन दाखिल कर चुके थे। 

चूंकि संघ नेतृत्व साफ तौर पर गडकरी के साथ था, लिहाजा पार्टी में किसी भी नेता में यह हिम्मत नहीं थी कि वह संघ नेतृत्व के खिलाफ खड़े होने या दिखने का दुस्साहस कर सके। यह लगभग तय हो चुका था कि गडकरी निर्विरोध दोबारा अध्यक्ष चुन लिए जाएंगे। लेकिन निर्वाचन की तारीख से चार-पांच दिन पहले अचानक गडकरी के व्यावसायिक प्रतिष्ठान ‘पूर्ति समूह’ से जुड़ी कंपनियों के ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मार दिए। 

छापे की कार्रवाई दो दिन तक चली। पूरा मामला मीडिया में छाया रहा। आडवाणी खेमे ने मीडिया प्रबंधन के जरिए गडकरी पर इस्तीफे का दबाव बनाया। जेटली को निर्विवाद रूप से मीडिया प्रबंधन का उस्ताद माना जाता था। छापे की कार्रवाई में क्या मिला, इस बारे में आयकर विभाग की ओर से कोई जानकारी नहीं दी गई थी लेकिन ‘सुपारी किलर’ की भूमिका निभा रहे मीडिया के एक बड़े हिस्से ने गडकरी के खिलाफ ‘सूत्रों’ के हवाले से खूब मनगढंत खबरें छापी। 

टीवी चैनलों ने तो अपने स्टूडियो में एक तरह से ‘अदालत’ लगाकर गडकरी पर मुकदमा ही शुरू कर दिया। अध्यक्ष के रूप में उनके दूसरी बार होने वाले निर्वाचन को नैतिकता की कसौटी पर कसा जाने लगा। मीडिया में यह सब तब तक चलता रहा, जब तक कि गडकरी अपना नामांकन वापस लेकर अध्यक्ष पद की दौड़ से हट नहीं गए। 

कहा जाता है और भाजपा में भी कई लोग दबे स्वर में स्वीकार करते हैं कि भाजपा के अंदरुनी सत्ता-संघर्ष के चलते गडकरी के यहां आयकर के छापे की कार्रवाई के पीछे जेटली का ही दिमाग था और उन्होंने चिदंबरम से मिलकर इस ऑपरेशन को अंजाम दिलवाया था। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी इस योजना को आडवाणी और मोदी की सहमति भी हासिल थी। खुद गडकरी ने भी अपने यहां छापे की कार्रवाई को एक बड़ी राजनीतिक साजिश करार दिया था।

जो भी हो, गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल न मिलने से भाजपा के सारे अंदरुनी समीकरण उलट-पुलट हो गए। अपने दोस्त जेटली की खातिर गडकरी के यहां छापे डलवाने का चिदंबरम का फैसला न सिर्फ भाजपा की बल्कि देश की राजनीति को भी प्रभावित करने वाला साबित हुआ। पिछले आठ वर्षों से कांग्रेस जो दुर्दिन देख रही है और खुद चिदंबरम को जेल जाना पड़ा है, उसकी एक बड़ी वजह प्रकारांतर से वह फैसला भी है। 

गडकरी के मैदान से हटने पर अध्यक्ष के लिए नए नामों पर विचार शुरू हुआ। आडवाणी की ओर से सुषमा स्वराज और अरुण जेटली का नाम आगे बढ़ाया गया लेकिन संघ की ओर दोनों नाम खारिज कर दिए गए। आखिरकार संघ की पसंद के तौर पर राजनाथ सिंह के नाम आम सहमति बनी और वे एक बार फिर पार्टी अध्यक्ष चुन लिए गए। अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह के निर्वाचन की घोषणा के तीन दिन बाद आयकर विभाग की ओर से साफ किया गया कि गडकरी के यहां छापों की कार्रवाई में कुछ नहीं मिला। 

लेकिन इससे क्या होना था, आडवाणी खेमे का मकसद तो पूरा हो ही चुका था। गडकरी के हाथों से दूसरी बार अध्यक्ष बनने का मौका झटक कर जहां आडवाणी और उनके समर्थक राहत महसूस कर रहे थे, वहीं संघ नेतृत्व बुरी तरह आहत था। उसे यह अच्छी तरह अहसास हो चुका था कि गडकरी को छलपूर्वक दूसरी बार अध्यक्ष बनने से रोका गया है। 

संघ नेतृत्व को मात देने के बाद आडवाणी आश्वस्त हो गए थे कि 2014 के आम चुनाव में भी भाजपा और एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद की उनकी उम्मीदवारी में कोई अड़चन नहीं आएगी। लेकिन इसी बीच उनके पटु शिष्य माने जाने वाले नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षाएं भी अंगड़ाई लेकर दिल्ली की ओर देखने लगी थीं, जिसका अंदाजा शायद आडवाणी को नहीं था। आडवाणी यह भी अंदाजा नहीं लगा पाए कि अध्यक्ष पद के चुनाव में गडकरी को ठिकाने लगाने में अहम भूमिका निभाने वाले उनके खास सिपहसालार अरुण जेटली कब पूरी तरह से मोदी के खैरख्वाह होकर उनकी पालकी के कहार बन गए। 

बारह वर्ष तक गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए ‘हिंदू ह्दय सम्राट’ और ‘विकास पुरुष’ की छवि धारण कर चुके मोदी का संघ के समर्थन से राष्ट्रीय राजनीति में किस तरह अवतरण हुआ, यह एक अलग कहानी है, लेकिन इस कहानी की यह पूरी प्रस्तावना या पृष्ठभूमि तैयार करने में जेटली का और परोक्ष रूप से मोदी का जो योगदान रहा, उसे और कोई याद रखे या न रखे मगर गडकरी तो निश्चित ही नहीं भूले होंगे। 

जहां तक गडकरी और मोदी के तनावपूर्ण रिश्तों की बात है, वे मोदी के प्रधानमंत्री बनने और गडकरी के उनकी सरकार में मंत्री बनने के बाद भी कायम रहे हैं। संघ नेतृत्व से गडकरी की नजदीकी भी मोदी को पसंद नहीं हैं। इसके अलावा यह बात भी जगजाहिर है कि मोदी सरकार में गडकरी ही एक मात्र ऐसे मंत्री हैं जिनका काम न सिर्फ दिखता है बल्कि उसकी व्यापक सराहना भी होती है। उनके काम को मिलने वाली वाहवाही मोदी और उनके करीबी नेताओं की आंखों में खटकती है। पिछले दिनों गडकरी के मंत्रालय से संबंधित परियोजनाओं के लिए आवंटित बजट राशि जारी करने में भी वित्त मंत्रालय द्वारा रोड़े अटकाए जाने की जो खबरें आई हैं, उन्हें भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा गया है। मंत्रिमंडल की बैठक में मोदी और उनके बीच हुई कथित तनातनी को भी इसी से जोड़ कर देखा जा सकता है। 

इस सबके अलावा गडकरी का मुंहफट स्वभाव भी मोदी को रास नहीं आता है। मोदी हमेशा कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते रहे हैं और अपने भाषणों में वे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की भी अक्सर अनावश्यक आलोचना करते हैं और उनका मजाक उड़ाते हैं। इसके विपरीत गडकरी ने कई मौकों पर नेहरू के विजन की और देश के निर्माण में उनके योगदान की तारीफ की है। 

मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने लंबे समय से कांग्रेस को कमजोर करने के लिए विभिन्न राज्यों के कांग्रेस नेताओं को भाजपा में शामिल करने का अभियान चला रखा है, लेकिन इसके विपरीत गडकरी ने हाल ही में पुणे में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि देश में लोकतंत्र की मजबूती के लिए अखिल भारतीय पार्टी के रूप में कांग्रेस का मजबूत होना जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि हार से निराश होकर कांग्रेस के नेताओं को पार्टी छोड़ कर इधर-उधर नहीं जाना चाहिए और भरोसा रखना चाहिए कि उन्हें भी जीत मिलेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि गडकरी की यह बातें मोदी को निश्चित ही नागवार गुजरी होंगी।  

बहरहाल लोकमत समाचार की खबर के मुताबिक मोदी को चुनौती देने वाले मंत्री अगर गडकरी ही हैं और यह चुनौती उन्होंने संघ नेतृत्व के इशारे पर ही दी है तो आने वाले समय में भाजपा के अंदर सत्ता और संगठन के स्तर पर इसका कुछ न कुछ असर जरूर देखने को मिल सकता है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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