26 तारीख़ को दिल्ली में ‘द रिपब्लिक मीडिया कॉन्क्लेव-2023’ का आयोजन किया गया था। देश के प्रधानमंत्री को इस कॉन्क्लेव को सम्बोधित करना था। सम्बोधन के दौरान सबसे बड़ी जनसंख्या वाले तथाकथित लोकतांत्रिक देश ने जो कुछ देखा-सुना वह दुखद ही नहीं त्रासद कहा जा सकता है। हमारे देश के प्रधानमंत्री एक चुटकुला सुनाते हैं, जो उन्होंने बचपन में सुना था।
इस चुटकुले में एक लड़की की आत्महत्या की बात है। लड़की अपने पिता के लिए एक सुइसाइड नोट छोड़ जाती है। लड़की का पिता प्रोफेसर है। वह देखता है कि उसकी बेटी घर से गायब है। उसे जब बेटी का सुइसाइड नोट मिलता है, उसमें लिखा होता है कि वह अपनी ज़िन्दगी से थक गई है और जीना नहीं चाहती। वह कांकरिया नदी में कूदकर अपनी जान देने की बात करती है।
चुटकुले के अनुसार लड़की के पिता नोट पढ़कर इस बात पर गुस्सा प्रकट करते हैं कि वे इतने साल से मेहनत करके अध्यापन का काम कर रहे हैं, पर उनकी बेटी कांकरिया (की स्पेलिंग) सही से नहीं लिख पाती। चुटकुला खत्म होते ही कॉन्क्लेव में उपस्थित पढ़े-लिखे तथाकथित संभ्रान्त लोग मोदी जी के संग ठहाका लगाते हैं, तालियां भी बजाते हैं। काफी समय तक तो मुझे समझ में नहीं आया कि चुटकुला का संदर्भ और महत्व क्या था?
आगे वीडियो को देखकर पता चला कि वह यह चुटकुला अरनब गोस्वामी की तारीफ में सुनाई गई थी, क्योंकि प्रधानमंत्री के अनुसार अरनब की हिंदी काफी अच्छी हो गई थी। पर यह घटना हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है। हमारे देश के मुखिया की सोच, ऑडियेंस में बैठे कोट-टाई वाले लोगों की संवेदना का स्तर और मीडिया के एक बड़े हिस्से की चापलूसी वाला अंदाज़।
इस चुटकुले के बारे में सुनते ही ट्विटर में कमेंट्स की बाढ़ आ गई। कांग्रेस की प्रियंका वाड्रा ने सबसे पहले ट्वीट किया ‘‘अवसाद और आत्महत्या, खासकर युवा वर्ग में, हंसी की बात नहीं है। एनसीआरबी डाटा के अनुसार 2021 में 164033 लोगों ने आत्महत्या की थी, जिनमें अधिकतर की उम्र 30 वर्ष थी। यह त्रासदी है, मज़ाक नहीं!’’
राहुल गांधी से लेकर आम आदमी पार्टी, शिव सेना और राजद के ट्वीट भी आए। राजद के सांसद मनोज कुमार झा ने तो यह कहा कि सबसे खतरनाक बात तो यह है कि इस क्रूर मज़ाक पर लोग ठहाके लगा रहे थे। उन्होंने कहा कि समाज बीमार है!
इंटरनेट पर लोगों का गुस्सा फूट पड़ा कि आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दे पर देश का प्रधानमंत्री चुटकुला कैसे सुना सकता है? क्या आत्महत्या जैसे सवाल पर हम इतने असहिष्णु हो गए हैं कि हम आज के युवा वर्ग के संकट को महसूस करना तो दूर, उसकी ओर देखते तक नहीं?
भारत में एनसीआरबी का डेटा देखें तो 2021 में आत्महत्या का जो आंकड़ा आया वह भयावह था। प्रतिदिन करीब साढ़े चार सौ लोग आत्महत्या कर रहे थे। इनमें से 35 प्रतिशत 18-30 वर्ष आयु के थे और करीब 31 प्रतिशत 30-45 वर्ष आयु के लोग। यानि प्रति घंटे 6।
समाजवादी पार्टी ने अपने ट्वीट के माध्यम से द क्विंट के हवाले से बताया कि हर 9 मिनट में एक महिला आत्महत्या करती है। अवसाद के कई कारण हो सकते हैं लेकिन सोचने की बात तो यह है कि इस देश का वह तबका, वह हिस्सा जो देश के उत्पादन में सबसे सक्रिय हिस्सेदार बन सकता है, उत्साह की जगह अवसाद से ग्रस्त हो रहा है-वह पढ़ने वाला टीनएजर हो, कॉलेज-यूनिवर्सिटी जाने वाला युवा हो या फिर पढ़ाई पूरा करने के बाद बिना काम के रोज़गार दफ्तर के चक्कर काटता हो। यह उसकी गलती नहीं है! यह हमारी व्यवस्था पर कोबरा की भांति कुंडली मारे बैठे थैलीशाह हैं और उनकी सेवा करने वाले सत्ताधारी व उनके गुर्गे हैं जो इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं।
2021 में डेढ़ लाख से अधिक लोगों की खुदकुशी की जो संख्या सामने आई वह मुख्यतः कोविड के समय के कुप्रबंध के कारण थी। लाखों लोगों को काम छोड़कर घर लौटना पड़ा, जहां वे परिवार पर अपने को बोझ समझकर परेशान हो रहे थे। एनसीआरबी 2021 के आंकड़े बताते हैं कि उस वर्ष 13000 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की। अधिकतर तो परिवार की समस्याओं व स्थिति से परेशान थे। कई छात्रों को परीक्षा के परिणाम को लेकर परेशानी थी, बाकी को अपना भविष्य अंधकारमय लगता था। तो प्रश्न उठता है कि जब ‘‘विकास’’ हो रहा है और भारतीय अर्थव्यवस्था चाक-चौबन्द है तो देश का युवा वर्ग अवसादग्रस्त क्यों है? यह विरोधाभास कैसा?
महिलाएं तो विवाह के बाद भी आत्महत्या से सुरक्षित नहीं होतीं-बल्कि उनके आत्महत्या की संभावना बढ़ जाती है। लैन्सेट के एक अध्ययन से पता चलता है कि आत्महत्या करने वाली महिलाओं में 17 प्रतिशत से अधिक विवाहित थीं। और जहां तक भारत का विश्व में स्थान है तो आपको ताज्जुब होगा कि विश्व महिला आत्महत्याओं का एक-तिहाई से अधिक हिस्सा भारत से है!
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बहुत हद तक महिला के अवसादग्रस्त होने की संभावना अधिक होती है क्योंकि उनके पास कोई सपोर्ट सिस्टम नहीं है। भारत में भले ही अमृतकाल की बात हो रही हो, विकास और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का जुमला उछाला जाए सच्चाई तो यह है कि महिलाओं की अपेक्षाएं ठोकर खाती दिख रही हैं, उनके सपने पूरे नहीं होते, पितृसत्तात्मक समाज उनकी तरक्की को बर्दाश्त नहीं कर पाता और उनपर हिंसा बढ़ती जा रही है। अब तो हिंसा करने वाले जेल से छूटकर शेर बन रहे हैं। कैसे सुरक्षित हो आधी आबादी?
दूसरी ओर राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानन्द राय ने बताया था कि 2018-20 के बीच 25000 लोगों ने बेरोज़गारी या दिवालियापन के कारण अत्महत्या की थी। सरकार भले ही आत्मनिर्भर भारत रोज़गार योजना का ढिंढोरा पीटती रहे, सच्चाई तो यह है कि बेरोज़गारी पिछले 50 सालों में सबसे अधिक है। और इसी समय विमुद्रीकरण और जीएसटी लाकर सरकार ने देशवासियों की कमर तोड़ दी। इसके ठीक बाद कोविड आया। इसमें भारी कुप्रबंध देखा गया।
आज भी हमारी अर्थव्यवस्था वापस अपनी पुरानी स्थिति के करीब नहीं आ सकी है। ऐसे हालातों को देखते हुए सत्ताधारियों को युद्ध स्तर पर ऐसी नीतियां बनाने की पेशकश करनी चाहिये, जिससे देश के काम करने वाली जनसंख्या को औसाद से मुक्त किया जा सके और जान देने से रोका जा सके। इसमें किसी भी प्रकार का काम-चलाऊ दृष्टिकोण नहीं चल सकता।
इस संदर्भ में देखा जाए तो बजाए इसके कि प्रधानमंत्री हंसी-मज़ाक और चुटकुले के लिए आत्महत्या की कहानी चुनें, उन्हें 10 वर्ष के अपने कार्यकाल का पुनरावलोकन करना चाहिये। एनसीआरबी के आंकड़ों का गहन अध्ययन करते हुए इस दिशा में गम्भीर प्रयास करना चाहिये कि नीतिगत पहल के माध्यम से इस स्थिति को कैसे पलट दिया जा सके।
कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत एक विडियो में मोदी जी से बहुत गुस्से में पूछती नज़र आती हैं ‘‘क्या हो गया है आपकी संवेदनशीलता को-इतना गंदा, इतना भद्दा मज़ाक करते हैं!’’ वह आत्महत्या के आंकड़े बताते हुए पूछती हैं ‘‘कभी सोचा है कि क्या विवशता है… ये ऐसा क्यों हो रहे हैं… क्योंकि गरीबी, गुर्बत, बेरोज़गारी, महंगाई से ये जूझ नहीं पा रहे हैं… आपको देश से माफी मांगनी चाहिये!’’ श्रीनेत का गुस्सा जायज़ है। पर सवाल तो यह है कि यदि किसी की संवेदनशीलता इतनी कम हो जाए कि उसे बेहद हल्के अंदाज़ में आत्महत्या जैसे गम्भीर मुद्दे पर चुटकुला सुनाना सामान्य लगे, तो आप माफी की अपेक्षा किससे करेंगे?
(कुमुदिनी पति महिला अधिकार कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)