Friday, March 29, 2024

दुनिया के लिए घर बनाने वाले हमेशा बेघर और बेसहारा क्यों रहते हैं?

28 मई 2023 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए संसद भवन (सेंट्रल विस्टा) का उद्घाटन करने जा रहे हैं। यह जानकारी लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला के जरिये मीडिया में जारी की गई है। 27 सितंबर 2021 को अमेरिकी दौरे से लौटे पीएम आराम करने के बजाय सीधे नए संसद निर्माण स्थल पर औचक निरीक्षण के लिए चले गये थे। इसकी वीडियो जारी करते हुए एएनआई ने स्रोत के रूप में पीएमओ लिखा था। यह वीडियो मीडिया में खूब सुर्खियां बटोरता रहा।

गोदी मीडिया ने पीएम मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा में कसीदे पढ़ने शुरू कर दिए थे। देखिये विदेशों में दिन-रात मीटिंग और सभाओं के बाद जेट-लेग थकान के बावजूद कितनी उर्जा और लगन है अपने मोदी जी में। मोदी जी ने इस भवन के निर्माण में कार्यरत श्रमिकों से भी रुककर बात की थी। इसी प्रकार मार्च 2023 में भी पीएम मोदी संसद भवन के निर्माण कार्य का जायजा लेते देखे गये। यहां तक कि इस निर्माण कार्य से जुड़े श्रमिकों को 26 जनवरी की परेड में विशेष अतिथि के रूप में भी निमंत्रित किया गया।

लेकिन क्या पीएम मोदी ने उन मजदूरों से यह जानने की भी कोशिश की कि वे इतने महत्वपूर्ण कार्य के लिए कैसे नियुक्त हुए? वे किन प्रदेशों से यहां तक पहुंचे हैं? क्या वे मुख्य सिविल कांट्रेक्टर के पे रोल पर हैं, या क्या वे कभी सीधे उनके संपर्क में आ सके हैं? क्या वे लोग पंजीकृत श्रमिक हैं और उन्हें न्यूनतम मजदूरी, श्रम कानून सहित वे सुविधायें हासिल हैं, जो किसी भी अन्य सार्वजनिक क्षेत्र से जुड़े श्रमिकों को हासिल हैं?

दरअसल देश में विनिर्माण क्षेत्र में अधिकांश श्रमिक बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड और उत्तर प्रदेश से आते हैं। इनमें से अधिकांश के पास शहरी क्षेत्रों में रुकने का कोई ठिकाना नहीं होता। कार्यस्थलों के पास ही अस्थाई टिन शेड, कई बार अधबने भवनों के भीतर ही कई वर्ष गुजार देते हैं। एक जगह निर्माण पूरा होने से पहले ही इनकी ये बस्तियां उजड़ कर नए निर्माण स्थल के आस-पास गुलजार होने लगती हैं। अप्रैल में गांवों में गेहूं की कटाई के बाद ये श्रमिक काम की तलाश में देश के विभिन्न कोनों में चले जाते हैं, और इनके घर वापसी का समय अक्सर दीपावली या छठ पर्व होता है।

बंगाल के मालदा लेबर की मांग विनिर्माण क्षेत्र में बहुत है। इन्हें कैटरपिलर कहा जाता है, जो कद-काठी में छोटे होने के बावजूद अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा काम निकालकर ठेकेदार के मुनाफे को सुनिश्चित कर देते हैं। इसीलिए इनके लिए अक्सर अग्रिम राशि इनके परिवार वालों को थमा दी जाती है। इसके बाद ये और इनका काम बोलता है। ठेकेदार की भाषा में ये कभी परेशान या लेबर स्ट्राइक नहीं करते। इनके अलावा स्टील वर्क में झारखंड की लेबर की भी मांग रहती है।

कृषि क्षेत्र के बाद देश में सबसे अधिक रोजगार पैदा करने वाले विनिर्माण क्षेत्र में पिछले कुछ दशकों में भारी तादाद बढ़ी है। 90 के दशक के बाद इसमें लगभग 7 गुना इजाफा हुआ है। पिछले 20 वर्षों के दौरान विनिर्माण एवं रियल एस्टेट में लगी पूंजी तेजी से बढ़ी है। आज देश की सबसे बड़ी कंपनियों में इनके नामों को देखा जा सकता है। जहां रियल एस्टेट और विनिर्माण क्षेत्र से जुड़े कॉन्ट्रैक्टर्स टॉप के कॉर्पोरेट में स्थान पा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ इस क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।

इसकी सबसे बड़ी वजह इस क्षेत्र में वर्क-कॉन्ट्रैक्ट की प्रकृति है। रियल एस्टेट मालिक या भवन के मालिक के साथ श्रमिकों का प्रत्यक्ष संबंध कभी बन ही नहीं पाता। इन दोनों के बीच में आर्किटेक्ट, कंसलटेंट, सिविल कांट्रेक्टर सहित कई अन्य ठेकेदारों की एक लंबी श्रृंखला होती है। हर काम के लिए अलग वर्क कॉन्ट्रैक्ट मुख्य कॉन्ट्रैक्ट के जरिये जारी किये जाते हैं। ऐसे में किसी अस्थाई श्रमिक के लिए कई बार तो असली मालिक जिसे उस भवन का उपभोग करना है, के बारे में कई साल काम करने के बाद भी पता नहीं चल पाता।

उदाहरण के लिए सेंट्रल विस्टा के निर्माण के लिए देश की एक बेहद प्रतिष्ठित विनिर्माण कंपनी को इसका ठेका दिया गया है, और इसी प्रकार कंसल्टेंसी और स्ट्रक्चरल कंसल्टेंट्स की नियुक्ति की गई है। मुख्य कांट्रेक्टर और कंसलटेंट हैं, लेकिन कोई जरूरी नहीं कि उनके द्वारा अपने स्थायी श्रमिकों के माध्यम से इस कार्य को संपन्न किया जाये। जो कंपनी ठेका हासिल करती है, जरूरी नहीं कि वही सीधे इस काम को अपने श्रमिकों के जरिये अंजाम दे। इसके लिए सब-कॉन्ट्रैक्ट पर सिविल, खुदाई, स्टील वर्क, इंटीरियर, इलेक्ट्रिकल, प्लंबिंग, पेंटिंग जैसे कई अन्य कार्यों के लिए सब-कांट्रेक्टर की नियुक्ति का चलन है।

इन सब-कॉन्ट्रैक्टर्स के द्वारा कई बार ठेका आगे दे दिया जाता है। इन सारे कॉन्ट्रैक्ट्स को लागू कराने वाले इंजीनियर, मेट और श्रमिक की भी एक कड़ी होती है। इस अंतिम कड़ी में जुड़ने वाला श्रमिक बिहार, बंगाल, उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के सुदूर गांवों में रह रहा वह व्यक्ति होता है, जिसे अक्सर उस गांव या पड़ोस के गांव का अनुभवी श्रमिक जो अब मेट बन गया है, के द्वारा महानगरों में निर्माणाधीन अट्टालिकाओं के लिए तैयार किया जाता है।

अधिकांश मामलों में कार्य-स्थल के साथ ही इन श्रमिकों के लिए अस्थाई टिन की चादरों से बने शेड होते हैं, जो गर्मियों में देर रात तक तपते हैं, और अक्सर उन्हें खुले में मच्छरों और गर्म हवा के थपेड़ों के बीच थकान मिटानी पड़ती है। 3-5 साल तक चलने वाले निर्माण कार्य में नींव की खुदाई से लेकर ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के निर्माण में इन श्रमिकों को कार्य-स्थल के पास रखने का एक फायदा यह होता है कि सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक काम करने के लिए ये सबसे उपयुक्त होते हैं, क्योंकि कार्यस्थल से दूर रहने की स्थिति में समय पर प्रोजेक्ट पूरा कर पाना संभव नहीं हो पाता है।

यहां पर बेहद नारकीय स्थितियों में रहते हुए श्रमिक के लिए सिर्फ एक सहारा यह होता है कि वह इसी बहाने कुछ जमापूंजी जुटाकर गांव में आश्रित सदस्यों के लिए कुछ खुशियां बटोर सकें। कई बार खेती में कर्ज और खेती में नुकसान होने की स्थिति में उच्च दर पर साहूकार से लिया ऋण इन श्रमिकों को महानगरों की ओर धकेल देता है।

लेकिन सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अपनी युवावस्था से लेकर 60 वर्ष की उम्र तक ये करोड़ों लोग देश के शहरी मध्य वर्ग के लिए आशियाना तो जरूर बनाते हैं, लेकिन हर लिहाज से जब ये इमारतें बनकर तैयार हो जाती हैं, तो स्वंय कभी इसके भीतर प्रवेश के बारे में ये कभी हिम्मत भी नहीं जुटा सकते। सिविल वर्क पूरा होते ही इनमें से अधिकांश मजदूरों के लिए साईट पर काम नहीं रह जाता। अब उनके लिए किसी दूसरे ठिकाने की तलाश और काम पूरा हो जाने के बाद एक बार फिर से वही विस्थापन का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला बना रहता है।

यह सिलसिला तब तक खत्म नहीं होता जब तक कि उसके हाथ-पांव चलते हैं। एक बार यह सिलसिला रुका तो उसके बाद उन्हें फिर से एक बार अपना देस हमेशा के लिए बुलाता जान पड़ता है, भले ही वहां पर उसकी सामाजिक हैसियत दोयम दर्जे की ही क्यों न हो। यहां वे अपना शेष जीवनकाल इस उम्मीद में बिताते हैं कि उनकी नई पीढ़ी महानगरों में उनके द्वारा छोड़े गये निशानों पर चल उनसे बेहतर जीवन जीयेंगे और उसमें से कुछ हिस्सा उन्हें भी नसीब होगा।

लेकिन अधिकांश इस उम्र की दहलीज तक ही नहीं पहुंच पाते। दिल्ली मेट्रो के निर्माण की शुरुआत के बाद इन श्रमिकों के लिए भी सुरक्षा उपकरणों में जूते, हेलमेट एवं अन्य बुनियादी सुरक्षा उपाय एक आवश्यक शर्त बना दिए गये हैं, अन्यथा इसके पहले बड़े-बड़े निर्माण स्थलों पर बिना किसी सुरक्षा के भी सारा काम धड़ल्ले से चला करता था।

विनिर्माण स्थलों में मौजूद बालू और गिट्टी के ढेर से खेलते इनके बच्चे आपने भी अवश्य देखे होंगे। इसके साथ ही विनिर्माण क्षेत्र में महिला श्रमिकों की भागीदारी का प्रश्न भी है। आज बड़ी संख्या में महिलाएं इस क्षेत्र में कार्यरत हैं। पुरुषों की अपेक्षा उनके लिए इस क्षेत्र में काम करना कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण और जोखिम भरा है। इनकी सुबह 5-6 बजे होती है। झाड़ू, सफाई, खाना बनाने, बच्चों को संभालने के साथ दिन की शुरुआत होती है।

दिन भर कार्यस्थल पर खटने और बच्चों के लिए कार्यस्थल पर क्रेच की सुविधा के अभाव में इन्हें उन्हें अपने आस-पास ही रखना होता है। कई बार ये बच्चे दुर्घटना के भी शिकार हो जाते हैं। ऐसी कई रिपोर्ट हैं जिसमें देखा गया है कि भारी काम की वजह से महिलाओं में मिसकैरिज या बच्चे की डिलीवरी के चंद दिनों बाद ही फिर से काम पर लौटने की मजबूरी उनके लिए जीवनभर की शारीरिक दुर्बलता, असाध्य बीमारियों की वाहक बन जाती है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आएलओ) की एक रिपोर्ट बताती है कि 2020 तक तकरीबन 77% भारतीय श्रमिक असुरक्षित रोजगार में कार्यरत थे। यह प्रतिशत कम होने के बजाय निरंतर बढ़ा ही है।

27 मार्च 2020 को देश में 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा पर इंडियन एक्सप्रेस ने 1.5 करोड़ विनिर्माण श्रमिकों के पास किसी भी प्रकार की सार्वजनिक सुरक्षा पालिसी नहीं होने पर रिपोर्ट की थी। कुल 5 करोड़ विनिर्माण श्रमिकों में से एक तिहाई संख्या (1.5 करोड़) किसी भी श्रम कल्याण बोर्ड में पंजीकृत न होने की वजह से किसी भी सरकारी सुविधा से महरूम थे। उस दौरान देश ने देखा था कि किस प्रकार दिल्ली, लुधियाना, मुंबई, सूरत सहित देश के विभिन्न शहरों से लाखों की संख्या में श्रमिक अपने परिवारों और छोटे-छोटे बच्चों के साथ खुद को जिंदा रखने के लिए अपने-अपने गांवों की ओर पैदल ही निकल पड़े थे।

यह हृदयविदारक दृश्य आज भी सोचकर कई लोगों के दिलों में एक हूक अवश्य उठाती है कि हम कैसे देश में हैं, जहां कुछ लोगों के लिए तो कोविड-19 लॉकडाउन असल में पहली बार वर्क फ्रॉम होम, घर पर पहली बार पूरा समय देने का वक्त और कइयों के लिए तो नए-नए पकवान और ऑनलाइन रहते हुए ज़ूम मीटिंग, विचारों की नई श्रृंखला, योगा क्लास सहित बच्चों के लिए पहली बार एंड्राइड फोन के जरिये नई अछूती दुनिया की खोज सरीखा मनोरंजक समय बन गया था।

लेकिन दूसरी तरफ वे करोड़ों लोग जो सारे देश के लिए आशियाना बनाते थे, अचानक से न सिर्फ बेरोजगार हो गये थे, बल्कि उस दिहाड़ी के अभाव में उन्हें पहली बार अहसास हुआ कि उनके सिर के ऊपर तो कोई छत ही नहीं है। जो है, वो इन अजनबी शहरों से सैकड़ों मील दूर है, ऊपर से वहां तक पहुंच बनाने के लिए यातायात के सारे साधन सरकार द्वारा बंद कर दिए गये हैं, और सड़कों पर सरकार की पुलिस लाठी-डंडे लेकर उनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार करने पर आमादा है।

श्रमिकों के लिए वित्तीय राहत का जहां तक प्रश्न है तो इस संबंध में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह संख्या 3.5 करोड़ बताई थी क्योंकि देश में कुल पंजीकृत श्रमिकों की संख्या दरअसल यही थी। हालांकि केंद्र सरकार की आधिकारिक इन्वेस्ट इंडिया की वेबसाइट में यह संख्या 5.1 करोड़ दर्ज थी। जबकि सीटू से जुड़े विनिर्माण श्रमिक यूनियन, कंस्ट्रक्शन वर्कर्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (सीडब्ल्यूऍफ़आई) के महासचिव वी शशि कुमार के अनुसार, 2020 तक देश में विनिर्माण क्षेत्र में कुल 6 करोड़ श्रमिक कार्यरत थे।

इसमें से सिर्फ 3.5 करोड़ श्रमिक ही पंजीकृत होने की वजह से 2.5 करोड़ लोगों के लिए सरकार से किसी प्रकार के राहत की गुंजाइश नहीं थी। देश में भवन निर्माण एवं अन्य विनिर्माण क्षेत्र से जुड़े श्रमिकों के लिए वेलफेयर सेस फंड में तब 52,000 करोड़ रूपये की राशि जमा थी, और उसके जरिये सभी 3.5 करोड़ पंजीकृत श्रमिकों के बैंक खातों में सहायता राशि जमा करने के लिए तत्कालीन श्रम एवं कल्याण मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने विभिन्न राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेश की सरकारों को निर्देश दिए थे।

2020 की यह 6 करोड़ की संख्या बताती है कि भारत में कृषि क्षेत्र के बाद रोजगार के मामले में विनिर्माण क्षेत्र में सबसे बड़ी संख्या में श्रम शक्ति लगी हुई है। लेकिन असल बात तो यह है कि पंजीकृत और गैर-पंजीकृत श्रमिक भी मुख्यतया असंगठित श्रम बाजार का ही हिस्सा हैं। इनके बीच बस इतना सा फर्क है कि किसी अनपेक्षित घटना पर छोटा-मोटा मुआवजा पंजीकृत श्रमिक के हिस्से में आ जाएगा।

वास्तव में देखें तो रियल एस्टेट, विनिर्माण क्षेत्र, या देश के सबसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय राजमार्ग, यहां तक कि प्रगति मैदान, द्वारका में निर्माणाधीन अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन सेंटर या संसद भवन या पीएम आवास ही क्यों न हो, इन सभी मजदूरों को अस्थाई रोजगार के आधार पर ठेकेदार द्वारा लेबर सप्लाई करने वाले ठेकेदार के ही मार्फत नियुक्त किया जाता है।

ऐसे में बरबस गोरख पाण्डेय ही बार-बार याद आते हैं:-

प्रस्तुत है उनकी कविता: स्वर्ग से बिदाई

भाइयों और बहनों!

अब यह आलीशान इमारत

बन कर तैयार हो गई है

अब आप यहां से जा सकते हैं

अपनी भरपूर ताक़त लगाकर

आपने ज़मीन काटी

गहरी नींव डाली

मिट्टी के नीचे दब भी गए आपके कई साथी

मगर आपने हिम्मत से काम लिया

पत्थर और इरादे से

संकल्प और लोहे से

बालू, कल्पना और सीमेंट से

ईंट दर ईंट आपने

अटूट बुलंदी की दीवारें खड़ी कीं

छत ऐसी कि हाथ बढ़ाकर

आसमान छुआ जा सके

बादलों से बात की जा सके

खिड़कियां

क्षितिज की थाह लेने वाली आंखों जैसी

दरवाज़े-शानदार स्वागत!

अपने घुटनों बाजुओं और

बरौनियों के बल पर

सैकड़ों साल टिकी रहने वाली

यह जीती-जागती इमारत तैयार की

अब आपने हरा भरा लॉन

फूलों का बग़ीचा

झरना और ताल भी बना दिया है

कमरे-कमरे में ग़लीचा

और क़दम-क़दम पर

रंग-बिरंगी रोशनी फैला दी है

गर्मी में ठंडक और ठंड में

गुनगुनी गर्मी का इन्तज़ाम कर दिया है

संगीत और नृत्य के साज-सामान

सही जगह पर रख दिए हैं

अलगनियां प्यालियां

गिलास और बोतलें

सजा दी हैं

कम शब्दों में कहें तो

सुख-सुविधा और आज़ादी का

एक सुरक्षित इलाक़ा

एक झिलमिलाता स्वर्ग

रच दिया है

इस मेहनत और इस लगन के लिए

आपको बहुत धन्यवाद

अब आप यहां से जा सकते हैं

यह मत पूछिए कि कहां जाएं

जहां चाहें वहां जाएं

फ़िलहाल, उधर अन्धेरे में

कटी ज़मीन पर जो झोपड़े डाल रक्खे हैं

उन्हें भी ख़ाली कर दें

फिर जहां चाहें वहां जाएं

आप आज़ाद हैं

हमारी ज़िम्मेवारी ख़त्म हुई

अब एक मिनट के लिए भी

आपका यहां ठहरना ठीक नहीं

महामहिम आने वाले हैं

विदेशी मेहमानों के साथ

आने वाली हैं अप्सराएं

और अफ़सरान

पश्चिमी धुनों पर शुरू होने वाला है

उन्मादक नृत्य

जाम छलकने वाला है

भला यहां आपकी क्या ज़रूरत हो सकती है

और वे आपको देखकर क्या सोचेंगे

गंदे कपड़े धूल में सने शरीर

ठीक से बोलने, हाथ हिलाने

और सिर झुकाने का भी शऊर नहीं

उनकी रुचि और उम्मीद को कितना धक्का लगेगा

और हमारी कितनी तौहीन होगी

मान लिया कि इमारत की

यह शानदार बुलन्दी हासिल करने में

आपने हड्डियां गला दीं

ख़ून-पसीना एक कर दिया

लेकिन इसके एवज़ में मज़ूरी दी जा चुकी है

मुंह मीठा करा दिया है

धन्यवाद भी दे चुके हैं

अब आपको क्या चाहिए ?

आप यहां से टल नहीं रहे हैं

आपके चेहरे के भाव भी बदल रहे हैं

शायद अपनी इस विशाल और ख़ूबसूरत रचना से

आपको मोह हो गया है

इसे छोड़कर जाने में दुख हो रहा है

ऐसा हो सकता है

मगर इसका मतलब यह तो नहीं

कि आप जो कुछ भी अपने हाथों से बनाएंगे

वह सब आपका हो जाएगा

इस तरह तो यह सारी दुनिया आपकी होती

फिर हम मालिक लोग कहां जाते

याद रखिए

मालिक मालिक होता है

मज़दूर मज़दूर

आपको काम करना है

हमें उसका फल भोगना है

आपको स्वर्ग बनाना है

हमें उसमें विहार करना है

अगर ऐसा सोचते हैं

कि आपको अपने काम का

पूरा फल मिलना चाहिए

तो हो सकता है

कि पिछले जन्मों के आपके काम

अभावों के नरक में ले जा रहे हों

विश्वास कीजिए

धर्म के सिवा कोई रास्ता नहीं

अब आप यहां से जा सकते हैं

क्या आप यहां से जाना ही नहीं चाहते ?

यहीं रहना चाहते हैं

इस आलीशान इमारत में

इन ग़लीचों पर पांव रखना चाहते हैं

ओह! यह तो लालच की हद है

सरासर अन्याय है

क़ानून और व्यवस्था पर सीधा हमला है

दूसरों की मिल्कियत पर क़ब्ज़ा करने

और दुनिया को उलट-पलट देने का

सबसे बुनियादी अपराध है

हम ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे

देखिए, यह भाईचारे का मामला नहीं है

इनसानियत का भी नहीं

यह तो लड़ाई का

जीने या मरने का मसला है

हालाँकि हम ख़ून-ख़राबा नहीं चाहते

हम अमन-चैन

सुख-सुविधा पसन्द करते हैं

लेकिन आप मजबूर करेंगे

तो हमें क़ानून का सहारा लेना पड़ेगा

पुलिस और ज़रूरत पड़ी तो फ़ौज बुलानी होगी

हम कुचल देंगे

अपने हाथों गढ़े

इस स्वर्ग में रहने की

आपकी इच्छा भी कुचल देंगे

वरना जाइए

टूटते जोड़ों, उजाड़ आंखों की

आंधियों, अंधेरों और सिसकियों की

मृत्यु, ग़ुलामी

और अभावों की अपनी

बेदरो-दीवार दुनिया में

चुपचाप

वापस चले जाइए ।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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