राजद्रोह पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार बेचैन क्यों?

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सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 124ए के तहत राजद्रोह (Sedition Law) सम्बंधी सभी मौजूदा मामलों में आगे की कार्रवाई पर रोक लगा दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि सरकार जब तक इस कानून की समीक्षा पूरी न कर ले, तब तक केंद्र और राज्य सरकारें इस कानून के तहत नए मामले दर्ज न करें। ऐसा आदेश देते हुए कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि उसे देश की सुरक्षा और लोगों के अधिकारों का भी ध्यान रखना है। 

अभी चीफ जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली इन तीन जजों की बेंच राजद्रोह कानून को चुनौती देने वाले एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा सहित पांच पक्षों द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी।

इस मामले में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में पेश शपथ-पत्र में कहा था कि उसने राजद्रोह कानून की धारा 124A पर पुनर्विचार और उसकी पुन: जांच कराने का निर्णय लिया है। लिहाजा, इसकी वैधता की समीक्षा पूरी होने तक इस मामले पर सुनवाई न करे लेकिन अदालत ने केंद्र सरकार की इस बात को नहीं माना है और कानून पर रोक लगा दी है। 

हालांकि विशेषज्ञों ने इसे सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला बताया है लेकिन केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू का बयान आया है कि ‘न्यायालय को लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी चाहिए। कोर्ट को सरकार और विधायिका का सम्मान करना चाहिए।’

देश में औपनिवेशिक काल से प्रचलित राजद्रोह कानून के दुरुपयोग के संदर्भ में चिंता ज़ाहिर करते हुए मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा है कि ‘राजद्रोह कानून का इस्तेमाल बिल्कुल उसी तरह से है, जैसे हम किसी बढ़ई को लकड़ी का एक टुकड़ा काटने के लिए आरी देते हैं लेकिन वह उसका इस्तेमाल पूरे जंगल को ही काटने में कर डालता है।’ 

इस मामले में बहस के दौरान कपिल सिब्बल ने अदालत को बताया कि इस कानून के तहत लगभग तेरह हजार लोग जेलों में बंद हैं।

धारा 124A क्या है—

धारा 124A कहती है कि जो कोई भी व्यक्ति लिखित या फिर मौखिक शब्‍दों या चिह्नों या प्रत्‍यक्ष अथवा परोक्ष रूप से नफरत फैलाने या फिर विधि संगत बनी सरकार के खिलाफ असंतोष को बढ़ावा देता है या इसकी कोशिश करता है, उसे 3 साल से लेकर उम्र कैद तक की सजा दी जा सकती है, और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।

यह कानून अंग्रेजों ने अपनी शोषणकारी नीतियों और मनमानी के विरोधियों का दमन करने के लिए बनाया था। जिसका इस्तेमाल महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक सरीखे स्वतंत्रता सेनानियों को भी जबरन गिरफ्तार करने के लिए किया गया था।

इस औपनिवेशिक कठोर कानून के प्रमुख विरोधी रहे केएम मुंशी ने इसका विरोध करते हुए साफ़-साफ़ कहा था कि ऐसे कानून भारत के लोकतंत्र के ऊपर बहुत बड़ा ख़तरा हैं। उनका कहना था कि किसी भी लोकतंत्र की सफ़लता का राज ही उसकी सरकार की आलोचना में है। केएम मुंशी और सिख नेता भूपिंदर सिंह मान के संयुक्त प्रयास के फलस्वरूप ही संविधान से राजद्रोह शब्द को हमेशा के लिए हटाने की स्थिति बनी थी।

इस कानून का प्रयोग अक्सर सरकार-विरोधी लोगों को चुप कराने के लिए किया जाता रहा है। ताज़ा आंकड़ों के अनुसार नागरिक संशोधन कानून (CAA) के विरोध-प्रदर्शन में शामिल 25, हाथरस गैंग रेप के बाद विरोध-प्रदर्शन करने वाले 22 और पुलवामा हमले के बाद 27 अलग-अलग लोगों के ऊपर राजद्रोह कानून के तहत मुकदमे दर्ज किये गए हैं। पिछले कुछ सालों में राजद्रोह के जो 405 मामले दर्ज हुए हैं उनमें सबसे ज़्यादा 96% मुकदमे 2014 के बाद के हैं।

यहां पर जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ द्वारा इस मुद्दे पर कहे गए शब्द प्रासंगिक हैं कि ‘हर सत्ता विरोधी काम राजद्रोह नहीं होता, इसलिए वक्त आ गया है कि अब हमें यह तय कर लेना चाहिए कि क्या राजद्रोह है और क्या नहीं।’ 

उन्होंने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला के खिलाफ़ दर्ज एक मामले में कहा था, “ऐसे किसी भी विचार की अभिव्यक्ति, जो कि सरकार के विचारों से असहमत और अलग हो, उसे राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है।”

यदि सरकार की नीतियों, योजनाओं तथा अन्य कार्यों की आलोचना या विरोध व्यक्त करना राजद्रोह माना जाता तो वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत इन तमाम सत्ताधारियों में से अधिकांश लोग इस कानून के तहत मुकदमे झेल रहे होते। जो पहले आये दिन किसी न किसी बहाने धरना, प्रदर्शन, हड़ताल, बंद आदि करते रहे थे।

पत्रकारों के विरुद्ध राजद्रोह का केस—

कोविड-19 संक्रमण रोकने और उसके रोगियों के इलाज की समुचित व्यवस्था करने में सरकार की लापरवाही की आलोचना करने के लिए एनडीटीवी के पत्रकार विनोद दुआ, किसान आंदोलन में ग्रेटा थनबर्ग टूलकिट प्रकरण में गिरफ्तार दिशा रवि, इंडिया टुडे के पत्रकार राजदीप सरदेसाई, नेशनल हेरल्ड की वरिष्ठ सलाहकार संपादक मृणाल पांडे, क़ौमी आवाज़ के संपादक ज़फ़र आग़ा, द कारवां पत्रिका के संपादक और संस्थापक परेश नाथ, द कारवां के संपादक अनंत नाथ और इसके कार्यकारी संपादक विनोद के. जोस के ख़िलाफ़ राजद्रोह क़ानून के तहत मामला दर्ज किया गया।

इनमें से अधिकांश के विरुद्ध आरोप लगाया गया था कि ‘इन लोगों ने जानबूझकर गुमराह करने वाले और उकसाने वाली ग़लत ख़बरें प्रसारित कीं और अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया। सुनियोजित साज़िश के तहत ग़लत जानकारी प्रसारित की गई।’ 

जबकि इस तर्क के आधार पर तो देश के सारे गोदी मीडिया को जेल में बंद कर दिया जाना चाहिए जो दिन-रात देश को गुमराह करने के लिए झूठ और साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने वाली सामग्री परोस कर देश को कमजोर कर रहा है। 

सरकार की आलोचना करने के लिए पत्रकारों के विरुद्ध राजद्रोह का मामला दर्ज करने से संविधान प्रदत्त विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी का अतिक्रमण होता है। इस तरह सरकार अपने आलोचकों और विरोधियों को मुंह बंद रखने के लिए इस कानून की आड़ ले रही है।

इस मामले में ज्य़ादा चिंताजनक यह है कि इस कानून के अंतर्गत एक बार गिरफ्तार हुए व्यक्ति के लिए जल्दी बेल हासिल कर पाना मुश्किल होता है, क्योंकि ऐसे मामलों की सुनवाई की प्रक्रिया काफ़ी लंबे वक्त तक चलती है। जिससे बेगुनाह लोग परेशान होते हैं। 

सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून को अभी केवल स्थगित किया है, इसलिए इसकी वैधता समाप्त नहीं हुई है और यह कानून पूर्ववत बना हुआ है। फिर भी इस पर सरकार बेचैन है और देश के सर्वोच्च न्यायालय को ‘लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी चाहिए तथा कोर्ट को सरकार और विधायिका का सम्मान करना चाहिए’ जैसी असंवैधानिक ‘हिदायत’ दी गई है। इससे पहले भी भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह ने सबरीमाला प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए 27 अक्टूबर, 2018 को कहा था कि अदालतों को ऐसे फैसले देने से बचना चाहिए जिन्हें लागू नहीं किया जा सकता है। भाजपा की ऐसी धारणा उसके तानाशाही रवैये और न्यायालय के प्रति असम्मान की भावना को ही प्रकट करती है।

शायद इसीलिए 2014 में केंद्रीय सत्ता पर भाजपा के आरूढ़ होने के बाद राजद्रोह कानून के अंतर्गत दर्ज हुए मुकदमों में जैसे बाढ़ ही आ गई है। और, इसीलिए वह चाहती है कि यह काला कानून हर हाल में बचा रहे ताकि उसके द्वारा अपने आलोचकों और विरोधियों का उत्पीड़न किया जा सके। 

वे अपना अलोकतांत्रिक चेहरा छिपाने के लिए प्रतिप्रश्न उठा रहे हैं कि इस कानून को जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने क्यों नहीं हटाया? इस पर उनसे पूछा जा सकता है कि इन नेताओं ने तो अनुच्छेद 370 को भी नहीं हटाया था तो भाजपाई सरकार ने उसे क्यों हटा दिया? हालांकि इस कानून की धारा 124A का गैरजरूरी इस्तेमाल सिर्फ इंदिरा के शासनकाल में ही हुआ था।

अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह सम्बंधी कानून की इस धारा को लेकर संशोधनवादी रुख अपनाया है, तो आशा की जानी चाहिए कि वह जुलाई में होने वाली सुनवाई के बाद भी कायम रहेगा; क्योंकि सत्ताधारियों द्वारा अपनी गलत नीतियों और फैसलों की पर्देदारी के लिए इस कानून का दुरुपयोग बहुत तेजी से किया जाने लगा है। वे ऐसा करके पत्रकारों, लेखकों, विपक्षी नेताओं और लोकतंत्र के पक्षधर सामान्य नागरिकों को आतंकित कर रहे हैं। 

लोकतंत्र विरोधी यह प्रवृत्ति ऐसे में और भी अधिक खतरनाक होने की सम्भावना बढ़ जाती है जब सरकार पेगासस जैसे अति गोपनीय जासूसी हथियार से लैस है। जिसका इस्तेमाल देश के न्यायाधीशों, पत्रकारों, वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए किया गया है। इन्हें झूठे मुकदमों में फंसाकर डराने से देश में तानाशाही और तज्जनित अराजक तत्वों को बढ़ावा मिल रहा है। 

देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती के लिए इस कानून को ख़त्म कर लोगों को सही तरीके से विचारों की अभिव्यक्ति और जनांदोलनों की आज़ादी मिलेगी। विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता ही एक स्वस्थ लोकतंत्र का पहला गुण है। इसके बिना लोकतंत्र की कल्पना तक नहीं की जा सकती है।

(श्याम सिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल नैनीताल में रहते हैं।)

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