Friday, April 26, 2024

जनगणना में जाति को शामिल करना क्यों समाज और विकास के हक में है?

वर्ग और वर्ण आधारित भीषण गैरबराबरी, जटिल और असहज वर्गीय रिश्तों में पिचकते भारतीय समाज में जब कभी वर्गीय और वर्णीय(जातिगत) रिश्तों में सुधार की बात या कोशिश होती है, समाज और राजनीति में सक्रिय कुछ खास श्रेणियों और विचारों के लोग असहज होकर ऐसे प्रयासों का विरोध करने लगते हैं। हर क्षेत्र में जातियों की चर्चा की जाती है। चुनावी राजनीति में जोरों से होती और हर दल करते हैं। मीडिया के समाचार विश्लेषण में तमाम जातियों के आंकड़े पेश किए जाते हैं। उनमें सटीक प्रतिशत-संख्या बताने का दावा भी कर दिया जाता है। एकेडमिक जगत हो या कार्यपालिका का क्षेत्र, हर जगह जाति पर बात होती है। न्यायालयों और आयोगों के फैसलों और सिफारिशों में भी इनकी चर्चा होती है। अभी हाल ही में एक बहुचर्चित और सुप्रीम न्यायिक फैसले में समाज में जातियों के ठोस आंकड़े की उपलब्धता अनुपलब्धता का जिक्र आया था। एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट में जातिवार राष्ट्रीय जनगणना कराने का भी सुझाव शामिल था। 

पर अपने देश के किसी हिस्से में जनगणना का जब भी मसला आता है, कुछेक दल, कुछ सरकारें, कुछ कुलीन बुद्धिजीवी-संपादक और खास श्रेणियों के लोग जनगणना में कुछ जातियों की गिनती न कराने पर जोर देने लगते हैं। उनके पास तर्क तो नहीं पर कुतर्क बहुत होते हैं। मसलन, कभी वे कहते हैं कि सभी जातियों की गणना कराने से जातिवाद बढ़ जायेगा और कभी कहते हैं कि ऐसी गणना की जरूरत ही क्या है? ऐसे में कोई हमें बताए कि अपने देश में सन् 1941 से ही जातिवार जनगणना नहीं हो रही है, क्या जातिवाद हमारे यहां खत्म हो गया या कम हो गया? इस सवाल के जवाब में जातिवार जनगणना के विरोधियों या आलोचकों के कुतर्क की असलियत सामने आ जाती है। फिर भी वे कुतर्क से बाज नहीं आते। मैं समझता हूं कि राष्ट्रीय जनगणना या किसी प्रदेश की जनगणना में जो लोग जातियों की गणना के विचार, प्रस्ताव या पहल का विरोध करते हैं, वे न सिर्फ वर्ण-व्यवस्था के साथ खड़े हैं, अपितु समुदायों में बहुस्तरीय गैरबराबरी बनाये रखने के हिमायती भी हैं। ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं, इसे जानने के लिए इन ठोस तथ्यों से रूबरू होना जरूरी है।

भारत में जनगणना का इतिहास बताता है कि सन् 1872 में जब इसकी शुरुआत हुई तो लोगों की धार्मिक और जातिगत पृष्ठभूमि, दोनों की गणना की गई। सन् 1931 तक यह सिलसिला चला। लेकिन 1941 में कुछ प्रशासनिक और विश्वयुद्ध से जुड़ी समस्याओं के नाम पर जनगणना के दौरान जाति की गणना नहीं कराई गयी। आजाद भारत में लोगों की धार्मिक पृष्ठभूमि की गणना तो होती रही पर जातियों की गणना बंद कर दी गयी। फिर संवैधानिक जरुरतों के मद्देनज़र कुछ जातियों की गणना का सिलसिला शुरू हुआ। तब से सिर्फ एससी-एसटी समुदायों(SC/ST) की गणना कराई जाती है। 

कोई हमें ये समझा दे कि देश में जब धार्मिक आधार पर गणना कराने में कोई समस्या नहीं है और कुछ जाति-समूहों की गिनती कराने में किसी तरह की दिक्कत नहीं है तो समाज की शेष जातियों(हिन्दू अपर कॉस्ट और पिछड़ी जातियों(OBC)) की गणना से परहेज क्यों? क्या समस्या है?  क्या इनकी गणना एक संवैधानिक जरूरत नहीं है? ईडब्ल्यूएस(EWS) आरक्षण की सुप्रीम कोर्ट में चली लंबी सुनवाई के दौरान क्या इसकी जरूरत रेखांकित नहीं हुई थी? क्या मंडल आयोग की रिपोर्ट के लिए काम करते समय आयोग के माननीय सदस्यों ने जातिवार गणना के आंकड़ों की अनुपलब्धता का सवाल नहीं उठाया था? यही नहीं,  मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भी जातिवार जनगणना कराने का सुझाव दिया। पर आयोग की 40 में सिर्फ एक ही सिफारिश पर सन् 1990-91 में कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में इस कदर बावेला मचवाया कि तत्कालीन सरकार आयोग की अन्य मांगों पर विचार करने का साहस नहीं कर सकी। देश की दोनों प्रमुख पार्टियों-कांग्रेस और भाजपा की तरफ से मंडल आयोग की आरक्षण सम्बन्धी सिफारिश का उस समय विरोध हो रहा था। 

अगर भारत में राष्ट्रीय जनगणना का इतिहास देखें तो जातिवार जनगणना न कराना परम्परा से विच्छेद था। बाद में कुछ जातियों को गणना में शामिल करना और कुछ को छोड़ देना अटपटा फैसला था। आज की परिस्थिति और प्रशासनिक जरूरतों को देखें तो राष्ट्रीय जनगणना या किसी प्रदेश की अपनी खास जनगणना में हिन्दू उच्चवर्णीय जाति समूह और ओबीसी के तहत आने वाली जातियों की गणना न कराने का कोई औचित्य ही नहीं है। इसलिए मैं समझता हूं, बिहार सरकार का जातिवार जनगणना कराने का मौजूदा फैसला पूरी तरह वाजिब, संवैधानिक और तर्कसंगत है। जहां तक मेरी जानकारी है, इस तरह की जनगणना का फैसला सर्वदलीय सहमति के साथ नीतीश कुमार की अगुवाई वाली सरकार ने अपनी कैबिनेट की बैठक में लिया था।

उस समय सरकार में जद-यू के साथ भाजपा प्रमुख घटक के रूप में शामिल थी।। बिहार एनडीए की उस सरकार में मुख्यमंत्री नीतीश(जद-यू) के साथ भाजपा के दो नेताओं को उप मुख्यमंत्री बनाया गया था। यानी गठबंधन और अन्य दलों का यह सर्वसम्मत फैसला था। मजे की बात है कि जातिवार जनगणना कराने की मांग को लेकर बिहार का एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल उससे पहले दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री मोदी से भी मिला था। लेकिन प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय जनगणना में सभी जातियों की गणना कराने में असमर्थता जताई। उसके बाद ही बिहार ने राज्यस्तरीय जातिवार जनगणना का कदम उठाया। केंद्र ने बिहार सहित कई राज्यों को स्पष्ट किया कि कोई राज्य अपने स्तर पर ऐसी गणना कराता है तो केंद्र को कोई गुरेज नहीं होगा। 

बिहार में अभी कराई जा रही जनगणना की इस पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। वैसे भी बिहार से ‘राष्ट्रीय स्तर पर जातिवार जनगणना’ की मांग बहुत पहले से की जाती रही है। बिहार और कुछ अन्य प्रदेशों के नेताओं के भारी दबाव के चलते ही तत्कालीन यूपीए सरकार ने 2011 की जनगणना में जातियों की गणना का कॉलम रखने का वादा किया था। कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने सिर्फ कागज पर या किसी सभा के मंच पर ही नहीं, बाकायदा भारतीय संसद में इसका ऐलान किया। उस समय के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की तरफ से सदन में इस आशय का बयान आया। स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी ओबीसी सांसदों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को इसका आश्वासन दिया था। पर यूपीए सरकार ने अपना वादा नहीं निभाया। दिखावे के लिए और ओबीसी समुदाय के सांसदों की नाराजगी कुछ कम करने के लिए अलग से एक ‘सामाजिक आर्थिक व जातिवार गणना का सर्वेक्षण'(SECC-2011) कराने का फैसला किया गया।

सरकार के अंदर बैठी ‘कुलीनों’ की मजबूत लॉबी ने लगभग 4890 करोड़ की सरकारी खर्च कराकर यह फूहड़ ‘खेला’ किया, जो न सिर्फ फालतू अपितु बेमानी भी था। जो काम ‘भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त’ के कार्यालय के तत्वावधान में कराई जाने वाली आधिकारिक राष्ट्रीय जनगणना में बहुत तरीके और सहजता से कराया जा सकता था, उसे न कराकर अलग सर्वेक्षण कराया गया। उसके आधे-अधूरे आंकड़े आज तक सार्वजनिक भी नहीं किये गये। मेरी याददाश्त में भाजपा की मौजूदा मोदी सरकार ने 2014 से अब तक 9-10 बार वादा कर चुकी है कि SECC-11 के जातियों की संख्या वाले आंकड़े जल्दी ही सार्वजनिक किये जायेंगे। पर जिस तरह वे ‘अच्छे दिन’ अब तक नहीं आये, वैसे ही SECC के वे कथित आंकड़े भी कहीं नहीं नजर आए! 

यह कम विस्मयकारी नहीं कि इस मामले में यूपीए(कांग्रेस) और एनडीए(भाजपा) की सरकारों का रवैया समान रहा है! वैसे भारतीय समाज, राजनीति और नौकरशाही में वर्चस्व और सर्वसत्ता की संरचना को देखें तो दोनों सरकारों के समान रवैये की वजह समझना ज्यादा कठिन नहीं है। 

इधर, कांग्रेस ने जातिवार जनगणना को सैद्धांतिक रूप से भी सही मान लिया है। स्वयं राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान तेलंगाना में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जातिवार जनगणना की मांग का समर्थन किया। देश के अन्य सभी प्रमुख दलों-एसपी, बीएसपी, एनसीपी। राजद, जद-यू, सीपीएम, सीपीआई, सीपीआई-एमएल, बीजेडी, टीआरएस, शिवसेना, वाईआरएस कांग्रेस और टीडीपी आदि ने इसका पुरजोर समर्थन कर रखा है। यानी भाजपा-आरएसएस को छोड़कर देश के हर राजनीतिक दल और संगठन की इस पर व्यापक सहमति है। एक समय(2018) भाजपा ने भी समर्थन किया था। पर अब वह समर्थन से पीछे हट गयी। इसकी बड़ी वजह है-आरएसएस। बताया जाता है। आरएसएस नेतृत्व के निर्देश के बाद ही भाजपा ने सन् 2018 में जाहिर किये अपने विचार को पलटने का फैसला किया। तब तत्कालीन गृह मंत्री(राष्ट्रीय जनगणना का कार्यालय उन्हीं के मंत्रालय के अधीन था) राजनाथ सिंह ने आधिकारिक स्तर पर 2021 की राष्ट्रीय जनगणना में जातिवार गणना का कॉलम शामिल करने का ऐलान किया था। पर बाद में भाजपा और मोदी सरकार का फैसला पलट गया। 

बिहार में जातिवार जनगणना के सवाल पर आज भाजपा जिस उहापोह में नजर आ रही है शायद वह उसकी सियासी और सामाजिक मजबूरी है। एक तरफ आरएसएस से मिली ‘सैद्धांतिकी’ है और दूसरी तरफ बिहार में समाज की संरचना और चुनावी राजनीति में उसकी जरूरत। संभवत: उसका एक खेमा जातिवार जनगणना का विरोध कर रहा है और दूसरा खेमा इस पर अपनी सशर्त सहमति जताने की बात कर रहा है। कुछ मीडिया खबरों में मैंने देखा कि पार्टी के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी कुछ असंगतियों को दूर करके जनगणना कराने की बात कह रहे हैं।   

बहरहाल, बिहार में जनगणना के पहले चरण का काम 7 जनवरी को शुरू हो गया। यह कैसे बेहतर ढंग से संपन्न हो; इस पर बिहार सरकार निश्चय ही विचार कर रही होगी। सरकार को सभी पक्ष के सकारात्मक सुझावों पर भी गौर करना चाहिए ताकि जातिवार जनगणना का सिलसिला सुसंगत ढंग से आगे बढ़े और बिहार के इस जनगणना मॉडल को राष्ट्रीय स्वीकार्यता भी मिले। निश्चय ही अगर यह जनगणना अच्छे ढंग से संपन्न हो गयी तो इसके सही नतीजों से प्रशासनिक-कामकाज और योजनाओं के क्रियान्वयन में राज्य और  केंद्र की शासकीय एजेंसियों को आसानी होगी। देश और प्रदेश के बुद्धिजीवियों, मीडिया और शोध संस्थानों को भी हिन्दू अपर कॉस्ट और ओबीसी को लेकर मनगढंत या अंदाजिया आंकड़े परोसने की जरूरत नहीं होगी। इसलिए इसे जरूरी और प्रामाणिक आंकड़े हासिल करने के शासकीय अभियान के तौर पर देखा जाना चाहिए। 

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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