फ्लोर टेस्ट का अंतरिम आदेश देने में तीन दिन का समय क्यों लगा मी लॉर्ड?

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महाराष्ट्र में चल रहे राजनीतिक संकट में उच्चतम न्यायालय   ने मंगलवार को सुबह 10.30 बजे आदेश दिया कि महाराष्ट्र में देवेंद्र फडनवीस सरकार को बहुमत साबित करने के लिए फ्लोर टेस्ट 27 नवंबर, शाम 5 बजे किया जाए। अपरान्ह 3.30 बजते-बजते बहुमत होने और स्थिर सरकार देने का दावा करने वाले देवेन्द्र फडनवीस का इस्तीफा हो गया। जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ के फ्लोर टेस्ट के अंतरिम आदेश के बाद जिस तरह भाजपा सरकार रेत के महल की तरह ढही उससे विधि क्षेत्रों में यह सवाल उठ रहा है कि जो अंतरिम आदेश मंगलवार को सुनाया गया उसे रविवार को ही क्यों नहीं दिया गया?

अंतरिम आदेश में पहले से ही स्थापित एसआर बोम्मई मामले(  S.R.Bommai v. Union of India, (1994) 3 SCC 1) को नज़ीर मानते हुए जगदम्बिका पाल(Jagdambika Pal v. Union of India, (1999) 9 SCC 95) ,हरीश रावत(Union of India v. Shri HarishChandra Singh Rawat, (2016) SCC OnLine SC 618) और कर्नाटक मामले (Shrimanth Balasaheb Patil v. Hon’ble Speaker, Karnataka Legislative Assembly, Writ Petition (C) No. 992 of 2019) को उद्धृत करते हुए मंगलवार को फ्लोर टेस्ट और उसकी प्रक्रिया उच्चतम न्यायालय ने बताई वह पहले से ही सुस्थापित है। फिर तीन दिन का जीवन दान क्यों? उच्चतम न्यायालय कई बार स्वयं कह चुका है कि जो काम प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता उसे अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं किया जा सकता। सरकार की ओर से लगातार समय मांगा जा रहा था जिसे प्रत्यक्ष रूप से उच्चतम न्यायालय स्वीकार नहीं कर रहा था लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से एक-एक दिन समय बढ़ता जा रहा था। आखिर सुनवाई के तीसरे दिन अंतरिम आदेश आया और 80 घंटे की सरकार बहुमत साबित करने के पहले मैदान छोड़ कर भाग गयी। अब आप ही ने सभी अदालतों में मुनादी करा रखी है कि न्याय में विलम्ब अन्याय है।      

महाराष्ट्र में राज्यपाल द्वारा भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के फैसले के खिलाफ शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस द्वारा दायर याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को फैसला सुनाते हुए कहा कि 27 नवंबर को शाम 5 बजे फ्लोर टेस्ट किया जाए। इसके बाद पहले उपमुख्यमंत्री अजीत पवार इस्तीफा देकर भागे क्योंकि वे अकेले पड़ गये थे, फिर मुख्यमंत्री ने इस्तीफा सौंप दिया।

गौरतलब है कि सबसे हालिया मिसाल कर्नाटक की है, जहां उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि विधानसभा का विश्वास किस दल या नेता में है, ये जानने के लिए तुरंत विधानसभा में बहुमत परीक्षण कराया जाए। ऐसे आदेशों के मूल में उच्चतम न्यायालय का 1994 का एसआर बोम्मई बनाम भारत सरकार का केस है, जब उच्चतम न्यायालय ने सरकार बनाने का प्रयास कर रहे एक या दूसरे दल के प्रति राज्यपालों के पक्षपात पर पूर्ण विराम लगाने की कोशिश की थी। उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि अगर इस बात पर ज़रा भी संशय है कि जनता ने चुनाव में किस पार्टी को सरकार बनाने का जनादेश दिया है, तो इसका फ़ैसला विधानसभा में बहुमत परीक्षण के माध्यम से विधानसभा के अंदर होना चाहिए।

भाजपा का तर्क था कि संविधान के तहत अदालत को ऐसा आदेश देने का अधिकार ही नहीं है, क्योंकि, संविधान का अनुच्छेद 212 ये कहता है कि विधानसभा की कार्यवाही को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। साथ ही कोई अदालत इसलिए भी ऐसा आदेश नहीं दे सकती क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 361 ये कहता है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति अपने किसी फ़ैसले के लिए अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे। इन सवालों के जवाब बेहद आसान हैं।

संवैधानिक स्थिति यह है कि अनुच्छेद 212 के तहत विधानसभा की कार्यवाही को तब कोई संरक्षण नहीं मिल सकता अगर ये कार्यवाही ही असंवैधानिक हो। उच्चतम न्यायालय ने उत्तराखंड के मामले में ख़ुद ही स्पष्ट किया था, राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का राज्यपाल का फ़ैसला, संविधान के इस अनुच्छेद के तहत अदालत की समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं है।

इसी तरह, अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल या राष्ट्रपति भले ही अपने फ़ैसले के लिए अदालत के प्रति जवाबदेह न हों, लेकिन, अदालतें इस बात की समीक्षा तो कर ही सकती हैं कि राज्यपाल का कोई फ़ैसला संविधान सम्मत है या नहीं। क्योंकि सरकार तो राज्यपाल या राष्ट्रपति के हर फ़ैसले का बचाव ही करेगी। इसलिए उनके फ़ैसलों की समीक्षा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में हैं।

एसआर बोम्मई केस में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि किसी संवैधानिक व्यवस्था में, जनता की राय राज्यपाल से नहीं, बल्कि राज्य की विधानसभा के माध्यम से ज़ाहिर होती है और ऐसे किसी भी मामले में किसी भी असंवैधानिक कार्य को होने से रोका जाना चाहिए। इस प्रकार विधानसभा में बहुमत परीक्षण का आदेश देकर न्यायपालिका सिर्फ़ ये सुनिश्चित करती है कि जनता ने चुनाव के माध्यम से अपनी राय जिस भी पार्टी या नेता के पक्ष में दी है, वो संवैधानिक संस्थाओं के माध्यम से स्पष्ट हों और राज्यपाल, जनादेश के साथ खिलवाड़ न कर सकें।

इस आधार पर  कर्नाटक और महाराष्ट्र के हालात में कोई ख़ास फ़र्क़ नज़र नहीं आता है। ऊपरी तौर पर महाराष्ट्र में राज्यपाल ने राज्य के सबसे बड़े दल को विधानसभा के भीतर बहुमत साबित करने का आदेश देकर कुछ ग़लत नहीं किया है, लेकिन जब भाजपा ने सरकार बनाने से पहले मना कर दिया था और राज्यपाल ने शिवसेना और एनसीपी को समय मांगने पर और समय नहीं दिया था,ऐसी स्थिति में  राज्यपाल कोश्यारी ने ऐसा करने के लिए जो तरीक़ा अपनाया उस पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक था ।राज्यपाल कोश्यारी ने भाजपा के देवेन्द्र फडनवीस को आनन फानन में शपथ दिला दी और फिर उन्हें बहुमत साबित करने के लंबा समय दे दिया। उन्होंने शपथ के साथ यदि तीन दिनों में बहुमत साबित करने को कहा होता तो शायद इतना विवाद नहीं होता।

इस पूरे मामले में कुछ बुनियादी सवाल हैं जिनके जवाब मिलने जरूरी हैं। उच्चतम न्यायालय ने सभी पक्षों से जवाब मांगें हैं। अंतिम फैसले में शायद इनके मुकम्मल जवाब सामने आयें। राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफ़ारिश राजपाल कोश्यारी ने कब की, किस आधार पर की? अगर इतना बड़ा फ़ैसला किसी भी लोकतंत्र में किया जाता है तो जनता को उसके बारे में बताया जाता है, चोरी-छिपे, रात के अंधेरे में ऐसे फ़ैसले नहीं किए जाते।

संविधान में राष्ट्रपति शासन लगाने और हटाने की एक निर्धारित संविधान-सम्मत प्रक्रिया है। राज्यपाल अपनी सिफ़ारिश राष्ट्रपति को भेजते हैं, राष्ट्रपति के यहां से वह प्रधानमंत्री को भेजी जाती है, प्रधानमंत्री कैबिनेट की बैठक बुलाते हैं, फिर राष्ट्रपति को कैबिनेट की राय बताई जाती है। राष्ट्रपति इसके बाद राष्ट्रपति शासन को लगाने या हटाने के आदेश पर अपनी मुहर लगाते हैं। ये सब कब हुआ? कहां हुआ?

इस सवाल के जवाब में कहा गया है कि यह ‘एलोकेशन ऑफ़ बिज़नेस रूल्स’ के रूल नंबर 12 के तहत लिया गया फ़ैसला है और वैधानिक नज़रिए से बिल्कुल दुरुस्त है। रूल नंबर 12 कहता है कि प्रधानमंत्री को अधिकार है कि वे एक्स्ट्रीम अर्जेंसी (अत्यावश्यक) और अनफ़ोरसीन कंटिजेंसी (ऐसी संकट की अवस्था जिसकी कल्पना न की जा सके) में अपने-आप निर्णय ले सकते हैं। क्या ये ऐसी स्थिति थी?

राज्यपाल ने एनसीपी की बैठक करके पार्टी की तरफ़ से आधिकारिक चिट्ठी लाने की मांग अजीत पवार से क्यों नहीं की? इतनी क्या हड़बड़ी थी कि एनसीपी की बैठक और उसकी आधिकारिक चिट्ठी का इंतज़ार तक नहीं किया गया? गुपचुप शपथ दिलाकर 30 नवंबर तक यानी एक हफ़्ते का समय सत्ताधारी पक्ष को दिया गया है, क्या राज्यपाल नहीं जानते कि एक हफ़्ते में क्या कुछ होगा, क्या हथकंडे अपनाए जाएंगे और यह सब लोकतंत्र के लिए कितना खतरनाक होगा? राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफ़ारिश और गुपचुप शपथ ग्रहण के बीच जितना समय लगा उसमें या तो प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया। अगर किया गया तो न केवल राज्यपाल बल्कि देश का पूरा शासन तंत्र जिसमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कैबिनेट, शीर्ष सरकारी अधिकारी सब रात भर जगकर काम करते रहे? आख़िर क्यों?

राज्यपालों की संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी और मनमानी का सिलसिला क़रीब चार दशक पुराना है जब केंद्र और राज्यों में कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार टूटा और ग़ैर-कांग्रेसी दलों की सरकारें भी बनने लगीं। इन चार दशकों के दौरान केंद्र में चाहे जिस दल या गठबंधन की सरकार रही हो, सभी ने अपने विरोधी दलों की राज्य सरकारों को परेशान किया। दलबदल को बढ़ावा देकर उन्हें गिराने में राज्यपालों का भरपूर इस्तेमाल किया गया। राज्यपाल भी ख़ुशी-ख़ुशी इस्तेमाल हुए या केंद्र सरकार को ख़ुश करने के लिए अपने स्तर पर ही राज्य सरकारों को तरह-तरह से परेशान करते रहे या उन्हें अस्थिर करने का खेल खेलते रहे।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ कानूनी मामलों के जानकार भी हैं।)

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