Friday, April 26, 2024

आखिर क्यों आत्महत्या के लिए मजबूर हैं यूपी के शिक्षा मित्र?

पिछले दो दिनों से एक शिक्षामित्र की ट्रेन के नीचे आकर आत्महत्या करने की कहानी सोशल मीडिया में छाई हुई है। बिजनौर के चांदपुर में ट्रेन की चपेट में आने से गांव मिर्जापुर बेला निवासी शिक्षामित्र की दर्दनाक मौत की खबर शायद अब तक आपको भी प्राप्त हो गई होगी।

प्राप्त सूचना के मुताबिक ग्राम मिर्जापुर बेला निवासी कौशल सिंह (40) पुत्र मंगू सिंह चौहान प्राथमिक विद्यालय मिर्जापुर बेला में करीब 15 वर्षों से शिक्षामित्र के पद पर कार्यरत थे। कौशल शुक्रवार की सुबह रोज की तरह घर से स्कूल के लिए निकले थे। लेकिन स्कूल के बजाय उनका शव हरपुर रेलवे लाइन पर पड़ा मिला। कौशल सिंह के तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। बड़ा लड़का करीब दस वर्ष, बेटी आठ वर्ष तथा छोटा बेटा करीब पांच वर्ष का है।

कौशल को मानदेय के रूप में दस हजार रुपए प्रतिमाह का पारिश्रमिक उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से दिया जाता था। 10,000 रूपये की कीमत आज के तीन साल पूर्व की कीमत पर 8000 रूपये ही रह गई है। बताया जाता है कि अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार के समय उन्हें भी सहायक शिक्षक के रूप में तैनात किया गया था। बता दें कि यूपी में सहायक अध्यापक का वेतन करीब 60,000 रूपये प्रतिमाह है। अब 60,000 रूपये और 10,000 रूपये प्रतिमाह वेतन में कितना अंतर होता है, इसका अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। इस वेतन को पाने और अच्छे जीवन को जीने का हक क्या शिक्षकों को नहीं दिया जाना चाहिए, जिनके कन्धों पर देश के भविष्य को संवारने की जिम्मेदारी है?

जो खबरें मिल रही हैं उनके मुताबिक, कौशल के रिश्तेदार पंकज कुमार ने बताया कि कौशल शुक्रवार की सुबह रोज की तरह घर से स्कूल के लिए निकले थे। शासन द्वारा शिक्षामित्रों को शिक्षक के रूप में मान्यता दिए जाने के बाद उन्हें करीब 40-45 हजार रुपये मासिक वेतन मिलने लगा था। लेकिन सरकार द्वारा पुन: शिक्षामित्र बना दिए जाने पर वेतन मानदेय के रूप में मात्र दस हजार रुपये मासिक मिलने लगा। जिससे परिवार का पालन पोषण करना मुश्किल हो रहा था। मंहगाई के दौर में वेतन बहुत अधिक घट जाने के बाद से ही वह तनाव में रहने लगे थे।

वहीँ उत्तरप्रदेश से अलग होकर 22 साल पहले उत्तराखंड में भी यह स्थिति कुछ हद तक बनी हुई है। लेकिन यहाँ पर यह संख्या मात्र 600 है। यहाँ पर इनका मानदेय पहले से 15,000 रूपये प्रति माह था, जिसे कुछ माह पहले बढ़ाकर 20 हजार रुपये किया जा चुका है। हालाँकि 20,000 रूपये प्रतिमाह का मानदेय कहीं से भी पर्याप्त नहीं है, लेकिन उत्तर प्रदेश के शिक्षा मित्रों की तुलना में यह राशि वरदान के समान है। समान नागरिक संहिता की वकालत करने वालों की आँखों को यह सब नहीं दिखता है। सरकारी शिक्षक को 50,000, उत्तराखंड के शिक्षामित्र को 20,000 रूपये, वहीँ उत्तरप्रदेश के शिक्षामित्र को 10,000 रूपये प्रतिमाह? एक देश में रहते हुए एक ही राष्ट्र के लोगों के लिए सरकार के द्वारा इतना बड़ा भेदभाव? लेकिन भारत जैसे सबसे बड़े लोकतंत्र में यह बिल्कुल संभव है।

लेकिन यह सब आखिर क्यों और कैसे हुआ? 2015-16 के आंकड़ों पर निगाह दौडाएं तो पता चलता है कि देश में प्राइमरी से लेकर सेकंडरी स्कूलों की संख्या 15,22,346 थी। नेहरु से लेकर इंदिरा गाँधी के शासनकाल तक स्कूलों में अध्यापकों की तदर्थ भर्ती नहीं सुनने को मिलती थी। लेकिन बाद के वर्षों में और खासकर देश में उदावादी अर्थनीति ने देश भर में न सिर्फ आर्थिक बदलावों में उथलपुथल को जन्म दिया, बल्कि अंग्रेजी शिक्षा को लेकर भी अचानक से देश के करोड़ों माता-पिता का नजरिया भिन्न होने लगा। वहीं दूसरी तरफ सरकार सर्व शिक्षा अभियान के तहत देश के कोने कोने में सबको सर्व सुलभ शिक्षा के प्रति कृत संकल्प हुई, और 2001 में केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ 65:35% सहयोग के आधार पर देश में सबको शिक्षा देने के लिए शिक्षा मित्र की कवायद शुरू की। लेकिन उसके लिए सिर्फ भवन बनाने और आंकड़ों के जरिये पेट भरने का काम जोरशोर से होने लगा। नतीजा उत्तरप्रदेश में भी शिक्षामित्र के रूप में लाखों शिक्षकों की नियुक्ति की गई, जिन्हें शुरू में 2500 रूपये प्रतिमाह पर रखा गया, जिसे बाद में बढ़ाकर 3500 रूपये और 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बन जाने के बाद 5000 रूपये प्रतिमाह कर दिया गया था। 

लेकिन एक दो साल के लिए भले ही कोई शिक्षक इतने कम वेतन पर काम करना मंजूर कर ले, उसे स्थायी रूप से एक बेहतर वेतन अपने परिवार का पालन पोषण करने की जरूरत तो बनी ही हुई थी। शिक्षा मित्रों और टी ई टी के जरिये मायावती सरकार के दौरान नियुक्त अध्यापकों की ओर से लगातार मांग और प्रदर्शनों के चलते 2017 में अखिलेश यादव सरकार ने इन्हें सहायक अध्यापक के तौर पर नियुक्त कर दिया था।

चूँकि ये नियुक्तियां राज्य सरकार के द्वारा स्थायी आधार पर नहीं की गई थीं, और इन्हें नियमों के तहत चयन प्रक्रिया के तहत नहीं किया गया था, इसलिए इसके विरोध में कहीं बड़ा आंदोलन शुरू हो गया। 

स्थायी नौकरी के लिए आवदेन करने की प्रतीक्षा में लाखों आवेदकों की ओर से उच्चतर न्यायालय में गुहार लगाई गई, और इस प्रकार जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 1.36 लाख शिक्षा मित्रों का सहायक अध्यापक के पद पर समायोजन रद्द कर उन्हें पुन: शिक्षा मित्र बनाना पड़ा। कहीं न कहीं विपक्षी दलों को इस आंदोलन का लाभ मिला। 

आज 40,000-50,000 रूपये प्रतिमाह वेतन पाने वाले इन शिक्षामित्रों को फिर से 10,000 रूपये प्रतिमाह पर अपना जीवन बिताना पड़ रहा है। इनमें से अधिकांश लोगों को इस काम में 15-17 वर्ष बीत चुके हैं। इस बीच में उनके ऊपर वैवाहिक जीवन और अपने बूढ़े हो चुके माँ बाप की जिम्मेदारी भी आ चुकी है। विद्यालय में पढ़ाने वाला गुरु किसी भिखारी से कम नहीं है। ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यूपी में शिक्षा का क्या हाल है। 

उत्तर प्रदेश में प्राइमरी शिक्षा की स्थिति की बदतर स्थिति कई दशकों से बनी हुई है। नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश के सरकारी स्कूलों में 1.88 करोड़ छात्र-छात्राएं नामांकित हैं। ये प्रदेश के 1.30 लाख स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।  इन स्कूलों में उनके अध्यापन के लिए 1.70 लाख से अधिक शिक्षामित्र तैनात किये गए हैं। 

लगभग 2 करोड़ बच्चों का भविष्य भारत के भविष्य से जुड़ा हुआ है। यदि ये अच्छी शिक्षा प्राप्त करेंगे तो ये ही लोग कल देश के भविष्य को सुधार सकते हैं।  लेकिन इनके लिए आधुनिक विद्यालय, हवादार कमरे, अच्छे अध्यापक, स्वच्छ जल और बाथरूम के साथ-साथ खेलकूद के लिए आवश्यक संसाधन और कुशल प्रशिक्षक की जरूरत नितांत आवश्यक है| 

लेकिन यह काम पिछले कई दशकों से लटका पड़ा है, या कहें कि विभिन्न सरकारों द्वारा लटकाया गया है। 

स्थायी शिक्षकों की कमी को दूर करने के बजाय अस्थाई ठेके पर शिक्षकों को नियुक्त किये जाने का चलन मायावती सरकार के समय से ही चला आ रहा है।  इधर जबसे दिल्ली सरकार की ओर से शिक्षा को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस शुरू कर दी गई है और आगामी गुजरात चुनावों के चलते इस विषय पर सारे गुजरात में व्यापक चर्चा हो रही है, उससे भाजपा में अजीब तरह की बैचेनी देखने को मिल रही है|  हाल ही में आनन फानन में गृह मंत्री अमित शाह ने अहमदाबाद में ऐसे चार विद्यालयों का शुभारम्भ किया है, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वे एक मॉडल स्कूल होंगे। इसके तुरंत बाद पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से 14,500 स्कूलों की घोषणा की गई है, जो अपने आप में एक मॉडल स्कूल होंगे। 

देश में पहले से ही दो प्रकार के सरकारी स्कूलों को मॉडल स्कूल का दर्जा प्राप्त है। इनमें से एक है केंद्रीय विद्यालय और दूसरा है जवाहर नवोदय विद्यालय। ये दोनों ही स्कूल केंद्र सरकार के तहत आते हैं। वर्तमान में देश में कुल 668 जिलों में 661 जवाहर नवोदय विद्यालय हैं 23 जिले ऐसे हैं जहाँ पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से नवोदय विद्यालय स्थापित किये गए हैं। इन विद्यालयों को राजीव गाँधी के शासनकाल में बनाया गया था, और इससे अब तक लाखों की संख्या में गरीबों, ग्रामीण क्षेत्र के एससी एसटी समुदाय के छात्र छात्राओं को लाभ पहुंचा है। इसके अलावा यहाँ देश में कुल 1099 केन्द्रीय विद्यालय हैं, जिनमें से 1096 भारत में हैं और 3 भारत से बाहर।

1 फरवरी 2015 को इसमें 11,21,012 विद्यार्थी एवं 56,445 कर्मचारी थे। ये विद्यालय 25 क्षेत्रों में विभक्त हैं जिसका अध्यक्ष डिप्टी कमिशनर होता है।

अब सवाल यह है कि देश में पहले से ही हमारे पास बेहतर स्कूली शिक्षा के दो मॉडल मौजूद हैं तो तीसरे की क्या जरूरत है? केंद्रीय विद्यालय, जिन्हें मुख्य रूप से केंद्रीय सरकार के तहत कार्यरत कर्मचारियों और देश के आर्मी, एयरफोर्स और नेवी के कर्मचारियों के बच्चों को पढ़ने की सुविधा देने के लिए बनाया गया था, को देशभर में क्यों लागू नहीं किया जा सकता है?

देश में निजी स्कूलों के नाम पर जहाँ एक तरफ नामी गिरामी कॉर्पोरेट के द्वारा अंधाधुंध फीस के जरिये हर वर्ष अभिभावकों ले लाखों रूपये वसूले जाते हैं, वहीँ 8-10000 रूपये प्रतिमाह की कमाई करने वाले करोड़ों अभिभावकों के द्वारा भी अपने बच्चों को गली गली में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये लाखों निजी स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला कराते देखा जा सकता है। उन्हें नहीं पता कि अपना पेट काटकर वे जो 2-4000 रूपये हर महीने अपने बच्चे की शिक्षा पर लगा रहे हैं, वह उसे सफलता की मंजिल तक नहीं पहुंचा सकती है।

पूरे देशभर में सर्वेक्षण करें तो लाखों गाँव के गाँव आज जो खाली हो रहे हैं और अपने-अपने बच्चों को अच्छा पढ़ा लिखा लेने की ललक में करोड़ों लोग कस्बों, शहरों और महानगरों में पलायन कर रहे हैं, उसके पीछे सरकार के द्वारा सरकारी स्कूलों को साजिश के तहत बर्बाद करने की भयानक कहानी छुपी हुई है।

इस पूरी कहानी में शिक्षा मित्र आज आत्महत्या कर रहा है, पढ़ने वाला छात्र आगे जाकर करता है, बर्बाद गाँव देहात कर रहा है, और कुल मिलाकर इसका खामियाजा भारत भुगत रहा है, और आगे और भी भयानक हालात की गवाही दे रहा है।

(रविंद्र सिंह पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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