भारतीय समाज का बलात्कार या यौन हमले की शिकार जीवित बची महिलाओं पर विश्वास करने का एक उतार-चढ़ाव भरा इतिहास रहा है। 1972 में मथुरा, 1992 में भंवरी देवी, 2013 में तरुण तेजपाल के हाथों यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला कर्मचारी, 2019 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई द्वारा यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला कर्मचारी सबके साथ यही हुआ। अब महिला पहलवान, जिन्होंने ओलंपिक सहित कई अंतरराष्ट्रीय खेलों में पदक जीते हैं, उनके द्वारा दर्ज करवाई गई एफआईआर से कई खुलासे हुए।
कैसे आरोपी, भारतीय कुश्ती महासंघ के प्रमुख और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने कथित तौर पर पहलवानों को परेशान किया, छुआ, उनका पीछा किया, उन्हें डराया और एक परेशान करने वाली तस्वीर पेश की। पहलवान अनगिनत गुमनाम बचे हुए लोगों में से हैं जिनमें से कई ने पहले खुद को दोषी ठहराया होगा, फिर उनके परिवारों ने उन्हें चुप करा दिया और आखिरकार जब उन्होंने अपनी बात कही तो किसी ने उनपर विश्वास नहीं किया।
यौन उत्पीड़न के शिकार में के रूप में बची महिलाओं पर अविश्वास करने के कारण अलग-अलग होते हैं। मथुरा बलात्कार की शिकार महिला के बारे में कहा गया कि उसे “सेक्स की आदत” थी। और उसने बलात्कारियों का विरोध नहीं किया था। भंवरी देवी के मामले में, ट्रायल कोर्ट को विश्वास नहीं हुआ कि ऊंची जाति के पुरुष निचली जाति की महिला का बलात्कार करके खुद को अशुद्ध कर लेंगे।
तेजपाल के मामले में निचली अदालत ने पीड़िता की बात पर विश्वास नहीं किया क्योंकि वो यौन हमले की पीड़िता की तरह व्यवहार नहीं कर रही थी। इन सभी मामलों में महिलाएं शक्तिशाली पुरुषों के खिलाफ थीं, जैसा कि अब महिला पहलवान हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है, कि उनके विरोध को कुछ लोग राजनीति से प्रेरित कहकर खारिज कर देते हैं।
लेकिन जब बचे हुए लोगों पर विश्वास नहीं हुआ, तो भारत में उनके समर्थन में एक आंदोलन भी शुरू हो गया। भारत में विक्टिमोलॉजी के विकास का पता 1977 में उभरे भारतीय नारीवादी आंदोलन से लगाया जा सकता है, जो भारत में महिलाओं की स्थिति पर समिति की ‘समानता रिपोर्ट’ (1975) द्वारा शुरू किया गया था।
इसने महिलाओं को दहेज हत्याओं, हिरासत में बलात्कार और अन्य मुद्दों के खिलाफ खुद को संगठित करने के लिए प्रेरित किया। साथ ही साथ कानूनों में सुधार की भी मांग की। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से मथुरा बलात्कार के फैसले की कड़ी आलोचना की गई और 1983 में आपराधिक कानूनों में महत्वपूर्ण संशोधन किए गए।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम में यह प्रावधान करने के लिए संशोधन किया गया था कि बलात्कार के कुछ मामलों में जहां यौन संबंध साबित होता है, जो शिकायतकर्ता का आरोप है कि उसकी सहमति के बिना था। अदालतों को यह मानना होगा कि कोई सहमति नहीं थी और अन्यथा साबित करने का भार अभियुक्त पर होगा।
1985 में, भारत ने अपराध और शक्ति के दुरुपयोग के पीड़ितों के लिए न्याय के बुनियादी सिद्धांतों की घोषणा की पुष्टि की गई। जो न्याय, उचित उपचार, क्षतिपूर्ति, मुआवजे और सहायता तक पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा और प्रचार के लिए एक ढांचा प्रदान करता है। भारत ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन पर घोषणापत्र (1993) ने भी पुष्टि की। जिसमें यौन उत्पीड़न का शिकार बना महिलाओं क लिए कानूनी और सहायक सेवाओं की आवश्यकता को मान्यता दी गई।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा वालें कारकों के खिलाफ जागरूकता का बढ़ाने की कोशिश की गई। उनके प्रति नजरिए में बदलाव के लिए प्रेरित किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में पीड़ितों के अधिकारों, पीड़ित सहायता कार्यक्रमों और सहायता सेवाओं के महत्व को मान्यता दी।यह ज़हीरा हबीबुल्लाह शेख के मामले में जो वड़ोदरा में बेस्ट बेकरी को जलाने और 14 लोगों की हत्या से संबंधित था।
प्रारंभिक सुनवाई एक पक्षपातपूर्ण जांच और गवाहों को डराने-धमकाने के आरोपों से प्रभावित हुई थी। जिसने एक निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया यौन उत्पीड़न का शिकार बनी महिलाओं के अधिकार का उल्लंघन किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कई निर्णयों में यह भी कहा है कि यौन उत्पीड़न के एक अभियुक्त की दोषसिद्धि शिकायतकर्ता की एकमात्र गवाही के आधी की जा सकती है। यदि यह विश्वसनीय लगे।
हाल ही में, इस सिद्धांत को 2021 में फूल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में बरकरार रखा गया। जिसमें विडंबना यह है कि पीड़िता पर उसी के परिवार की दूसरी महिलाओं ने विश्वास नहीं किया। जिन्होंने बलात्कार की शिकायत करने के बाद उसे पीटा था। लेकिन अदालतों ने उसपर विश्वास किया और आरोपी को दोषी ठहराने के लिए उसकी गवाही पर भरोसा किया।
बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों को संबोधित करने के लिए 2012 का POCSO अधिनियम, बाल-उत्तरजीवी-केंद्रित जांच, परीक्षण और पुनर्वास उपायों को भी मान्यता देता है। भंवरी देवी के मामले में कई महिला अधिकार समूहों ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की। इसके परिणामस्वरूप ऐतिहासिक विशाखा बनाम राजस्थान राज्य का फैसला आया। जिसमें शीर्ष अदालत ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों का जवाब देने के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए। आखिरकार, संसद ने 2013 में कार्यस्थलों पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से बचाने और उनकी रक्षा करने के लिए एक कानून बनाया।
हालांकि, इन उपायों के बाद मूल उद्देश्य प्राप्त नहीं हो पाया। एनसीआरबी की भारत में अपराध (2021) रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में 26.5 प्रतिशत सजा दर और बलात्कार के मामलों में 95 प्रतिशत लंबित दर है। एनएफएचएस-5 (2019-21) के अनुसार, लगभग एक-तिहाई महिलाओं ने शारीरिक या यौन शोषण का अनुभव किया है। लेकिन, केवल 14 प्रतिशत ने या तो इसके बारे में बात की या इसकी सूचना दी। जीवित बचे लोगों की चुप्पी का कारण सामाजिक कलंक और शर्म, प्रतिशोध का डर, न्याय प्रणाली में विश्वास की कमी, सीमित जागरूकता और समर्थन की कमी और परिवार और सामुदायिक दबाव हो सकते हैं।
यौन उत्पीड़न की शिकार एक मुखर पीड़िता को मीडिया ट्रायल, सोशल मीडिया पर तिरस्कार, चरित्र हनन और असामान्य रूप से कठोर जांच का सामना करना पड़ता है, यह सामान्य बात है। उत्पीड़कों के लिए खड़ी होने वाली महिला पर अविश्वास करने की पितृसत्तात्मक धारणाएं भारतीय समाज में बड़े पैमान पर मौजूद हैं। ऐसा कई पीड़िताओं के साथ हुआ जिन्होंने ‘मी-टू’ आंदोलन के दौरान बलात्कार और हमले की शिकायत की थी।
पहलवानों के विरोध ने खेल संघों में यौन उत्पीड़न रोकथाम कानून के कार्यान्वयन में खामियों पर प्रकाश डालने में मदद की है और उम्मीद है कि बेहतरी के लिए इनमें सुधार होगा। लेकिन यह ममला एक बहुत ही शक्तिशाली आरोपी, संसद सदस्य के खिलाफ हैं। जो लोग यौन हमले से बची लड़कियों-महिलाओं को दोष देते हैं, उन पर अविश्वास करते हैं और “पीड़ित कार्ड” खेले जाने का आरोप लगाते हैं, उन्हें निम्नलिखित बातों पर भी ध्यान देना चाहिए:
महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों की घोषणा करने वाले लोकसभा सांसदों की संख्या में 2009 से 850 प्रतिशत की तेजी से वृद्धि हुई है। खबर आ रही थी कि आरोपी सांसद के पक्ष में अयोध्या के साधु-संतों की रैली निकाली जाएगी। (अब इसे स्थगित कर दिया गया है।) यह 2018 में कठुआ में एक नाबालिग के सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में अभियुक्तों के पक्ष में आयोजित रैली की याद दिलाता है, जिसमें भाजपा के मंत्रियों ने भाग लिया था। यौन हमले से बची महिलाओं-लड़कियों और अभियुक्तों के बीच शक्ति असंतुलन स्पष्ट नहीं हो सका।
लेकिन हम इस बार तो यौन उत्पीड़न की शिकार बची लड़कियों,महिलाओं के साथ पहले की तुलना कुछ अलग हो, हमें इस बारे में प्रयास करना चाहिए। हम लोगों को अपने दागदार इतिहास से विराम लेना चाहिए। यौन उत्पीड़न की शिकार लड़कियों पर विश्वास करना चाहिए। आरोपियों की गिरफ्तारी की मांग करनी चाहिए और सच्चाई और न्याय को सामने आने देना चाहिए।
(द इंडियन एक्सप्रेस से साभार, मानसी वर्मा और शिवांगी शिखर का लेख। अनुवाद कुमुद प्रसाद)