आज दुनिया के हर कोने में सत्ताधारियों के लिए उदार लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं असहनीय बनती जा रही हैं। उनका झुकाव निरंकुशता की तरफ बढ़ने लगा है; वेनेज़ुएला के प्रतिपक्ष नेता एडमुंडो गोंज़ालेज़ को अपने देश से भाग कर पिछले दिनों स्पेन में राजनैतिक शरण लेनी पड़ी है; फ्रांस में राष्ट्रपति मेक्रोन की निरंकुश सत्ता के खिलाफ पेरिस सहित विभिन्न शहरों में फ्रांसीसी लाखों जनता के विरोध प्रदर्शन ज़ारी हैं; पाकिस्तान में भी सेना व सरकार के ख़िलाफ़ इमरान-समर्थक सड़कों पर उतर आये हैं; इजराइल के ढीठ प्रधानमंत्री नेतन्याहू के विरुद्ध भी लाखों लोग सड़कों पर उत्तर रहे हैं; रूसी राष्ट्रपति पुतिन पर भी आरोप है कि उन्होंने भी अपने सबसे मुखर युवा विरोधी का जीवन-अंत करवाया है। पड़ोसी देश चीन के राष्ट्रपति भी निरंकुश सत्ता की सवारी कर रहे हैं।
इधर दक्षिण एशिया के देशों में भी उदारवादी लोकतंत्र का अस्तित्व सांसत में है, संविधान का शासन संकट में है। दक्षिण एशिया के देशों पर भी धर्म-मज़हब+छिछोरी लोकप्रियतावाद+ कॉर्पोरेट पूंजी के गठजोड़ की निरंकुश सत्ताएं हावी होती जा रही हैं। इसकी ताज़ातरीन मिसाल है ढाका- तख्ता पलट।
17 करोड़ के पड़ोसी गणतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश में हिंसक सत्ता परिवर्तन हुए एक महीने से अधिक का समय हो चुका है। देश भर में छात्रों के उग्र प्रदर्शन और हिंसक घटनाओं के माहौल में अवामी लीग की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने 5 अगस्त को अपने पद से इस्तीफ़ा दिया और तुरंत ही सैन्य विमान में अपनी बहन के साथ सुरक्षित भारत के हिंडन हवाई अड्डे पर उत्तर गईं थीं। उनका भविष्य त्रिशंकु बना हुआ है। वैसे काम चलाऊ सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस ने हसीना को चेतावनी दे दी है कि वे भारत में शांति से रहें, लेकिन खामोश रहें। लेकिन, ढाका ने हसीना को सौंपने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है।
पाठकों को याद होगा, 1975 के अगस्त महीने में ही उनके पिता और स्वतंत्र बांग्लादेश के संस्थापक बंगबंधु मुजीबुर रहमान की चार साल पुरानी सरकार का तख्ता पलट किया गया था। वे अपनी पुत्री के समान भाग्यशाली नहीं थे। राजधानी ढाका स्थित 15 अगस्त, 75 की रात्रि में सेना की एक टुकड़ी ने बगावत की और धानमंडी क्षेत्र में स्थित रहमान के घर पर धावा बोल दिया था। बंगबंधु सहित उनके परिवार के शेष सभी लोगों की हत्या कर दी गयी थी। चूंकि शेख हसीना और उनकी छोटी बहन विदेश में थीं, इसलिए सुरक्षित रह सकीं थीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने दोनों को भारत में राजनीतिक शरण दी थी।
आज क़रीब 54 बरस बाद हिंसक पृष्ठभूमि में बांग्लादेश में फिरसे सत्ता परिवर्तन का मंचन हुआ; ‘75 का मंचन सैन्य बग़ावत के द्वारा हुआ था, और इस दफ़ा युवकों के बढ़ते हिंसक दबाव के बीच सत्ता परिवर्तन का मंचन हुआ; इस परिवर्तन में सेना की भूमिका सहयोगवादी रही और पूर्वप्रधानमंत्री को सुरक्षित भारतीय क्षेत्र में पहुँचाया; 75 में मुट्ठी भर सैनिक सम्पूर्ण सत्ता पर क़ाबिज़ थे, लेकिन इस बार सेना ने विद्रोही छात्रों की मांग पर नोबल पुरस्कार प्राप्त मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में ‘कामचलाऊ सरकार ‘ का गठन किया और जनता को सुरक्षा का भरोसा दिलाया। सरकार में आंदोलनकारी युवाशक्ति को भी प्रतिनिधित्व दिया गया है।
अपदस्थ प्रधानमंत्री हसीना के ख़िलाफ़ कामचलाऊ सरकार ने संगीन अपराधों के 30 से अधिक मुक़दमें दर्ज़ किये हैं। इसके साथ ही भारत सरकार से मांग की है कि वह बांग्लादेश की नई सरकार के साथ सहयोग करे । दोनों देशों के बीच अपराधियों के परस्पर देश- प्रत्यावर्तन का समझौता मौज़ूद है। लेकिन, भारत भगोड़ी प्रधानमंत्री को वापस ढाका को सौंपेगा, इसकी सम्भावना कम है।
भारत ने 1975 के तख्तापलट के दौरान भी उनको औपचारिक शरण दी थी। यध्यपि, शेख हसीना को औपचारिक राजनयिक शरण देने की घोषणा नहीं की गई है। हो सकता है, किसी ऐसे देश में उनकी शरण-व्यवस्था करवाई जाए, जिसके और बांग्लादेश के बीच अवांछित व्यक्तियों को परस्पर सौंपने का समझौता न हो। पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि दिल्ली और ढाका के बीच रिश्ते संकट के दौर से गुजर रहे हैं। फिलहाल ढाका की नई सरकार में चरम दक्षिणपंथी भारत विरोधी और पाकिस्तान व चीन समर्थक तत्वों का वर्चस्व बना हुआ है।
हालांकि, ढाका के बदले हुए सत्ता प्रतिष्ठान ने भारत के साथ बेहतर रिश्ते बनाये रखने और अल्पसंख्यक हिन्दुओं की पूर्ण सुरक्षा के संकेत नई दिल्ली को दिए हैं। लेकिन, संकेत यह भी हैं कि शेख हसीना के मुद्दे पर दोनों राजधानियों के बीच सामान्य रिश्तों में बल भी पड़ सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र का एक दल भी बांग्लादेश में आंदोलनकारियों की हत्या की जांच करेगा। पांच सौ से अधिक लोग राज्य हिंसा का शिकार हुए हैं।यदि यह जांच तूल पकड़ती है, तो निश्चित ही पूर्व प्रधानमंत्री की मुश्किलें बढ़ेंगी। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के दरवाज़े खटखटाए जा सकते हैं। ढाका मंच पर हर रोज़ नए नए दृश्यों का मंचन हो रहा है। फिलहाल, अनिश्चितता बनी हुई है।
ताज़ा घटनाचक्र के संदर्भ में यह भी सनद रहे कि 16 दिसम्बर 1975 को जन्मे बांग्लादेश में असामान्य सत्ता परिवर्तन की यह दूसरी घटना नहीं है। पिछले पांच दशकों में कई दफ़े असामान्य सत्ता परवर्तनों का सिलसिला चलता रहा है। 15 अगस्त को सैन्य टुकड़ी की बगावत के बाद भी सेना द्वारा तख्ता पलट होता रहा है: 1975 से 2009 की अवधि में 29 छोटे-मोटे सैन्य विद्रोह हुए और कुछ जनरलों की हत्याएं भी हुईं; अधिकांश सैन्य विद्रोह में चरम दक्षिण पंथियों का ही दबदबा रहा है, लेकिन एक -दो बार वाम समर्थक उदारवादी विद्रोह भी हुए। चूंकि इस लेखक ने बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को कवर किया और 1972 में आज़ाद ढाका से लौटा था, इसलिए अनेक प्रोफेशनल यादें जुड़ी हुई हैं। यादें हैं तो भावना भी है।
धानमंडी स्थित बंगबंधु का वह मकान यादों का हिस्सा बन चुका है जहां 15 अगस्त,1975 को हिंसक ट्रेजेडी का मंचन हुआ था। इस लेखक को तब भी हिंसक त्रासदी की आशंकाएं थीं, क्योंकि चरम दक्षिणपंथी ज़िंदा थे और विभिन्न नक़ाबों में सक्रिय थे। आज़ाद बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान को सभी ने दिल से स्वीकार नहीं किया था। वे अमेरिका समर्थकों के निशाने पर थे। बंगबंधु अमेरिका परस्त नहीं थे। उदार धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रवादी थे। एक प्रकार से लेफ्ट-ऑफ -दी सेंटर कह सकते हैं।उस समय सोवियत संघ मौजूद था। दुनिया दो ध्रुवों में विभाजित थी।
बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में मास्को ने भारत का समर्थन किया था। अतः वाशिंगटन और इस्लामाबाद, दोनों ही बंगबंधु से खार खाये हुए बैठे थे, प्रतिशोध के लिए अपना जाल फैलाया हुआ था। इस लेखक ने अपनी आत्मकथा ‘मैं बोनसाई अपने समय का’ में इसका उल्लेख किया है। (देखें: पृ। 133 -34 )। संक्षेप में, हसीना ने भी अपने पिता की कम -अधिक राह पकड़ी और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के पंखों पर सवार हो कर सत्ता -उड़ान भरने लगीं। बेशक़, उन्होंने लोकतंत्र को स्थायीत्व देने की कोशिश की थी, लेकिन विपक्ष के ‘पर’ कतर कर। विपक्ष की नेता और पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा ज़िया की नज़रबंदी की। हसीना के हटते ही उन्हें मुक्त कर दिया गया है।
बांग्लादेश में इसी वर्ष जनवरी के आम चुनाव विपक्ष मुक्त थे। सभी बड़े नेता विभिन्न जेलख़ानों में बंद थे। हसीना की सत्तारूढ़ पार्टी की प्रचण्ड जीत हुई। चुनाव परिणाम अविश्वसनीय बन गये। इसके साथ ही एक-दो ‘गुप्त जेलों’ के होने की ख़बरें भी छपी हैं, जिनमें आंदोलनकारियों को घोर यातनाएं दी जाती थीं। एक लोकतान्त्रिक नेता के तानाशाह में रूपांतरण ने शेख हसीना की ‘पतन -पटकथा’ लिख डाली। इसके साथ ही बंगबंधु की बेटी शेख हसीना वाजेद के सत्ता -ड्रामा का पटाक्षेप हो चुका है। अब केवल शोकगीत और उपसंहार शेष हैं।
प्रस्तुत लेख का उद्देश्य दक्षिण एशिया के देशों में लोकतंत्र संकटों से क्यों घिरा रहता है। इस क्षेत्र के अधिकांश देशों में हिंसक अशांति क्यों फैली रहती है ? क्यों पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल जैसे देशों में सरकारों का पतन एक ‘सामान्य घटना ‘ के तौर पर दर्ज़ होता रहता है? भारत से सटे म्यांमार ( पूर्व बर्मा ) में हिंसक अशांति की हुकूमत है; जनता और सेना आमने -सामने खड़ी हैं सालों से।
एक तरह से देखें, तो इन देशों में निर्वाचित लोकतान्त्रिक सरकारों की हत्याएं आहिस्ता आहिस्ता होती रहती हैं। क्या भारत में भी लोकतंत्र पर ख़तरों के घने बादल छाये हुए नहीं हैं? यह हमेशा दृश्य -अदृश्य संकटों से घिरा हुआ दिखाई-सा लगता है। इसीलिए पिछले एक अर्से से देश में ‘ लोकतंत्र बचाओ, संविधान बचाओ’ को लेकर आंदोलन बढ़ते जा रहे हैं। करीब आठ दशक की आज़ादी के बाद भी देश में लोकतंत्र और संविधान असुरक्षित दिखाई देते हैं। आख़िर, ऐसा क्यों है? इस सवाल को मामूली तर्ज़ में खारिज़ नहीं किया जा सकता।
बांग्लादेश में तख्तापलट ड्रामा से दिल्ली के लुटियन सत्ता प्रतिष्ठान की घबराहटें भी साथ साथ बढ़ती जा रही हैं। शेख हसीना के दिल्ली पहुँचने के साथ ही गोदी मीडिया की नीदें उड़ गईं। सोशल मीडिया में अमेरिका विरोधी वीडियो दौड़ने लगे। व्हाट्सऐप पर प्रचार होने लगा कि विपक्ष भारत में भी ढाका जैसी अराजकता पैदा करने पर आमादा है। दिलचस्प जानना यह होगा कि रिपब्लिक टीवी के बॉस अर्नब गोस्वामी अमेरिका पर अनाप-शनाप आरोप लगाने लगे। जनता को सावधान किया जाने लगा कि वह चीन के साथ साथ अमेरिकी चालों से चौकस रहे। वह भारत में भी ढाका जैसे हालात पैदा करना चाहता है।
अर्नब ने तो साफ़ साफ़ शब्दों में कहा है,” भारत में अमेरिका द्वारा प्रायोजित अराजकता पैदा की जा रही है “इस अराजकता में टुकड़े टुकड़े गैंग, शाहीन बाग़, किसान आंदोलनकारी,जाति संघर्ष, हिडेनबर्ग, युवा आंदोलनकारी जैसे तत्व शामिल हैं। ये “ भारत को अस्थिर बनाना चाहते हैं।” अब कोई अर्णब गोस्वामी से पूछे,” किसने पिछले दस सालों में अमेरिका की गोद में भारत को धकेला है? किस देश ने अमेरिका से सबसे अधिक हथियारों का आयात किया है? किस प्रधानमंत्री ने कहा था-अबकी बार ट्रम्प …सरकार? किस प्रधानमंत्री ने कोविड काल मेंअमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की गर्मजोशी के साथ अगवानी की थी और अहमदाबाद के क्रिकेट स्टेडियम में घुमाया था? विश्व में आम धारणा है कि एशिया में अमेरिका का सबसे करीबी दोस्त देश भारत है। क्या इस सच्चाई से गोदी मीडिया के एंकर बेखबर हैं?
बेशक़ ढाका में तख्तापलट ड्रामा की स्क्रिप्ट,मंचन और निर्देशन को एकांगी दृष्टिकोण से नहीं समझा जा सकता। निश्चित ही इसके तार बांग्लादेश की सरहदों से पार जाते हैं। भूमंडलीकरण और आक्रामक कॉर्पोरेट पूंजीवाद के दौर में भूधसान घटनाओं के तार देश में ही सिमटे नहीं होते हैं, बल्कि सीमा पार भी गहनता के साथ फैले रहते हैं। इसलिए, ढाका का घटनाचक्र बांग्लादेश की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करे, यह नामुमकिन है।
निश्चित ही पटकथा के लेखन में अमेरिका सहित कई देशों की अदृश्य भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। यह तो समय ही बतलायेगा कि पटकथा के मूल सूत्रधार कौन था या कौन थे? लेकिन, सार्क या दक्षेस के देशों में उथल-पुथल क्यों मची रहती है, लोकतंत्र को वयस्क नहीं होने दिया जाता है और अल्पकाल में विभिन्न व्याधियों से ग्रस्त हो कर अन्ततः मौत का शिकार हो जाता है ? क्या यह माना जाए कि इस क्षेत्र की जनता और शासक वर्ग लोकतंत्र के लिए परिपक्व नहीं हुए हैं या क्षेत्र की मानस संरचना में ही लोकतंत्र और संविधान के लिए जैविक स्पेस नहीं रहा है?
दक्षेस के देशों में कुछ बुनियादी समानताएं हैं। मसलन, अधिकांश देश( भारत, पाकिस्तान, श्री लंका, पूर्व पाकिस्तान के रूप में बांग्लादेश ) औपनिवेशिक दासता के शिकार रहे हैं। इसके साथ ही सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में सामंतवाद, महाजनी पूंजीवाद, कबीलाई मानसिकता, वंशवाद, जातिवाद,मार्शलवाद, अलगवाद आदि की प्रवृत्तियों ने जनता को दबोचे रखा। दूसरे शब्दों में, समाज का मानस ‘प्रजावाद’ और प्राचीनता में रमा रहा। समाज में ‘ स्वतंत्र व लोकतांत्रिक नागरिक बोध’ पैदा नहीं हुआ या शासक वर्ग में उसमें इसे पैदा ही नहीं होने दिया। चालू ज़ुबान में कहा जाए – इस क्षेत्र की जनता को ‘ माईबाप संस्कृति ‘ में डुबाये रखा; सरकार जनता की माई -बाप है, इस माहौल को सुनियोजित ढंग से पनपाया गया; सरकार की मूल निर्माता जनता है, इस चेतना से उसे दूर रखा गया।
सामंती प्रजा और लोकतान्त्रिक नागरिक में बुनियादी व गुणात्मक अंतर क्या होता है, इस क्षेत्र की जनता समझ नहीं सकी। भारत को ही लें, चुनावों के दौरान नेतागण मतदाताओं को ‘माई-बाप और नमक हलाली’ की दुहाई देते हैं। जबकि प्रत्येक सरकार का संवैधानिक उत्तरदायित्व है कि वह अपने नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण करे। लेकिन, इस क्षेत्र की सरकारें इस मोर्चे पर पिटती दिखाई देती हैं। बेईमान हैं।
पड़ोसी देश पाकिस्तान को लें। 14 अगस्त 1947 से लेकर आज तक पाकिस्तान में लोकतंत्र विकलांग बना हुआ है। पांचवें दशक के मध्य से ही लोकतंत्र के नाम पर सैन्यवाद का ही आधिपत्य बना हुआ है। इस अवधि में चुनाव ज़रूर होते रहे, लेकिन सैन्य विद्रोह का सिलसिला भी जारी रहा है। सारांश में, फ़ौज़ के संरक्षण में ही सरकारों का उत्थान – पतन होता रहता है। एक अन्य पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान एक ‘राज्य राष्ट्र’ के रूप में विकसित होने के लिए संघर्षरत है। पिछले पांच दशकों से इस क्षेत्र में हिंसक अशांति बनी हुई है; यह देश राजशाही से अधकचरा समाजवाद, कबीलाई आधुनिक लोकतंत्र, आदिम तालिबानी लोकतंत्र जैसी शासन व्यवस्थाओं की प्रयोगशाला बना हुआ है।
इत्तफ़ाक़ से यह लेखक दोनों मुस्लिम देशों की घटनाओं को कवर कर चुका है। वास्तव में, अफगानिस्तान में कबीलाई शासन व्यवस्था है और लड़कियों को शिक्षा से वंचित कर दिया गया है। एक समय था जब इस देश में भूमि सुधार होने लगे थे, आधुनिक जीवन की थापें सुनाई देने लगीं थीं। अब सब कुछ कटटर इस्लाम की घाटियों में गुम हो गया है। देहाती पाकिस्तान में भी ‘वढेरा हुक़ूमत’ रहती है और आधुनिकता चंदेक शहरों में सिकुड़ी हुई है।
भारतीय उपमहाद्वीप के ही देश श्रीलंका की घटनाओं में झांक लें। यह देश भी सालों तक सिंहली बनाम तमिल जातीय संघर्षों के दौर से गुजरता रहा है। इस देश में शांति स्थापित करने की प्रक्रिया में भारत के हाथ भी झुलस चुके हैं; पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी चरमपंथी तमिल राष्ट्रवादियों की हिंसा के शिकार हुए और चेन्नई के पास पेरुम्बदूर में 21 मई, 1991 को उनकी हत्या आत्मघाती मानव बम से कर दी गई। सिंहली प्रधानमंत्री प्रेमदासा की भी हत्या हुई थी। राजधानी कोलम्बो में विस्फोट होते रहे हैं। इस देश की घटनाओं की रिपोर्टिंग का अवसर भी इस लेखक को मिलता रहा है। यह देश भी जातिवाद, जातीयतावाद, वंशवाद और परजीवी पूंजीवाद में जकड़ा हुआ है। स्वतंत्र नेतृत्व का अकाल रहा है और आज भी बना हुआ है।
दो वर्ष पहले वंशवादी सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध खड़ा हुआ जन आक्रोश की बुनियाद में ये तमाम लोकतंत्र विरोधी प्रवृत्तियां मौज़ूद थीं। नतीजतन, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दोनों को ही श्रीलंका की भूमि से भागना पड़ा था। इस विवशतापूर्ण पलायन के दोनों मुख्य किरदार गोटाबय राजपक्सा ( राष्ट्रपति बनने से पहले पूर्व सैन्य अधिकारी भी थे ) और महिंदा राजपक्सा (पूर्व प्रधानमंत्री) दोनों ‘राजपक्सा बंधु‘ हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि श्रीलंका की सम्पूर्ण शिखर सत्ता राजपक्सा परिवार की बंधक थी। इस परिवार के इर्दगिर्द ही देश की राजनीतिक आर्थिकी की परिक्रमा हुआ करती थी। परिक्रमा की निरंतरता को बनाये रखने के लिए तानाशाही को सहारा लिया गया। अतः जनाक्रोश का विस्फोट स्वाभाविक और लाज़िमी था।
भारत के पर्वतीय पड़ोसी देश-संघीय लोकतान्त्रिक-गणतांत्रिक नेपाल में राजनीतिक शासकीय स्थिरता कहां आ पाई है ? 2008 में राजशाही का पतन हुआ था और वामपंथी-सत्ता स्थापित हुई थी। लेकिन, पिछले 15 -16 वर्षों में शासन शैली को लेकर कई सरकारों का उत्थान-पतन होता रहा है। दुखद स्थिति यह है कि कोई भी वामपंथी प्रधानमंत्री नेपाल राज्य के मूल चरित्र में आधारभूत बदलाव नहीं ला सका है।
बेशक, परंपरागत संस्था के रूप में राजशाही का पतन ज़रूर हो गया है। पर मूल मुद्दा यह है कि क्या लोकतान्त्रिक नागरिक चेतना विकसित हो सकी है? क्या यह सही नहीं है कि शिखर के दोनों वामपंथी नेता – खड्ग प्रसाद शर्मा ओली और पुष्प कमल दाहल प्रचण्ड ब्राह्मण जाति से नहीं हैं ? इन दोनों के बीच प्रधानमंत्री पद की कुर्सी इधर-उधर जाती रहती है।
दिलचस्प तो यह है कि कुर्सी पाने के लिए पशुपतिनाथ मंदिर में ‘ ब्राह्मण भोज’ तक कराया जाता है। क्या यह इसे ‘आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना‘ कहा जाना चाहिए? यदि वामपंथी नेता भी सत्ता में बने रहने के लिए 21 वीं सदी में मध्यकालीन समाज की प्रवृत्तियों को संरक्षण देते हैं, तब आधुनिक लोकतंत्र व नागरिक कैसे अस्तित्व में आ सकते हैं? इससे तो वर्चस्ववादी, सर्वसत्तावादी और अधिनायकवादी शक्ति तंत्र ही मज़बूत होगा। कालांतर में, बहुसंख्यकवाद और फासीवाद के टेंकों के लिए सड़क साफ़ हो जाएगी। जनता, फिर से प्रजा में रूपांतरित होने लगेगी।
एक अन्य पड़ोसी देश म्यांमार की सेना ने लोकतंत्र को कभी पनपने नहीं दिया है। कुछ समय के लिए लोकतंत्र का बसंत इस बुद्ध देश के स्तूपों पर ज़रूर उतरा था। लेकिन,अधिकांश समय से सैन्य तानाशाही तथागत के देश पर पतझर ही छितराती चली आ रही है। गृह युद्ध के भंवर में पूरा देश फंसा हुआ है। जातीय संघर्ष भी ज़ारी है। पूर्व में बर्मा के नाम से विख्यात म्यानमार के हज़ारों विस्थापित भारत के सीमान्त राज्य – मिज़ोरम में शरण ले रहे हैं। गृहयुद्ध में अब तक 55 हज़ार से अधिक लोग अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं। कभी शांति लौटेगी, सिविल वार का अंत होगा, अभी तक सब कुछ अनिश्चित है।
सेना ने फरवरी, 2021 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित और जनता द्वारा चुनी गई औंग सान सू की के प्रशासन के खिलाफ बग़ावत करदी थी । तब उन्हें प्रधानमंत्री के स्थान पर मुख्य प्रशासक से सम्बोधित किया जाता था। लेकिन, फ़ौज़ को यह भी मंज़ूर नहीं था। उसने विद्रोह किया और सू की को गिरफ्तार करके जेल में ठूंस दिया गया। इसके साथ ही लोकतंत्र की यात्रा का अधबीच में ही अंत हो गया। इसके बाद सड़कों पर जनता और फ़ौज़ आमने-सामने आ गईं। आज गौतम बुद्ध के इस देश में छापामार युद्ध चरम पर है, विशेषरूप से ग्रामीण इलाकों में इसकी सघनता और गहनता दिखाई देती हैं। दोनों में से किसी भी पक्ष ने हथियार नहीं डाले हैं। इस गृह युद्ध में हर क़दम पर लोकतंत्र की ही हत्या हो रही। मुख़्तसर में, फ़ौज़ की संगीनों पर लोकतंत्र लटका हुआ है।
वास्तव में, दक्षिण एशिया के देशों का नेतृत्व संवैधानिक दृष्टि से स्वतंत्र कहा जा सकता है, लेकिन अस्तित्व रक्षा और शासन शैली की दृष्टि से वह परजीवी व परामुखापेक्षी है। उसे हमेशा श्वेत राष्ट्रों से समर्थन और मान्यता की दरक़ार रहती आई है।जब दक्षेस के किसी भी सदस्य राष्ट्र का नेता प्रधानमंत्री बनता है, वह तुरंत ही वाशिंगटन, लंदन, पेरिस की ओर ताकना शुरू कर देता है। उसकी विदेश यात्राओं का पहला पड़ाव प्रभु राष्ट्रों की राजधानियों में ही होता है। चूंकि, आज एकल ध्रुवीय शक्ति व्यवस्था है, तो वह वाइट हाउस के दरवाज़ों पर टकटकी लगाए रखता है। दूसरी दस्तक़ लंदन में 10 डाउनिंग स्ट्रीट ( प्रधानमंत्री का निवास) के दरवाज़ों पर होती है। वह स्वतंत्र दृष्टि से सोच नहीं माता है। चूंकि, आज चीन उभरता हुआ रेड स्टार है, बल्कि ‘यलो स्टार‘ ( स्वर्ण) है, तब तीसरा पड़ाव बीजिंग में होता है। 1990 तक यही स्थिति मॉस्को की हुआ करती थी।
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद तबदीली आई है। भू-राजनीति में एक वक़्त था जब अमेरिकी छाते तले अधिकांश देश हुआ करते थे। लेकिन, अब पाकिस्तान, नेपाल, म्यानमार, श्रीलंका, अफगानिस्तान जैसे देशों ने फोर्बिडन सिटी (बीजिंग) के दरवाज़ों को खटखटाना शुरू कर दिया है। अब तक बांग्लादेश बचा हुआ था। लेकिन, उसके बीजिंग कतार में खड़े होने के आसार अधिक लग रहे हैं। सबसे बड़ी चिंता का विषय तो यह है की इस क्षेत्र में अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा तेज़ होगी, क्योंकि बाज़ार बढ़ रहा है, नव मध्य वर्ग फूलता जा रहा है, लेकिन विषमता की खाई भी उतनी ही चौड़ी होती जा रही है। ज़ाहिर है,समाज में इससे तनाव और टकराव बढ़ेंगे।
परिणामस्वरूप, जन -सैलाब उमड़ेगा और राज्य की शक्तियों से टकराएगा। कॉर्पोरेट पूंजीप्रभु चाहेंगे कि राज्य जन – सैलाब को कुचलता रहे।कॉर्पोरेट पूँजी सत्ता अक्षुण रहे। दिल्ली के शम्भु बॉर्डर पर आज भी किसान एक साल से मोर्चा लगाए बैठे हैं। नाकाबंदी कर रखी है, क्योंकि मोदी-सरकार ने किसानों के साथ किये गए वादों को पूरा नहीं किया है।देश की आला अदालत सितम्बर में किसान -प्रकरण सुनने जा रही है। यह जानना अहम है कि आला अदालत ने किसानों को अपना मोर्चा समाप्त करने और बॉर्डर को खोलने के आदेश देने से स्वयं को रोका है। उसने भी किसानों के उभरते ज़लज़ले में शक्ति देखी है। यही वजह थी कि 2022 में मोदी-सरकार किसान विरोधी तीन काले क़ानूनों को वापस लेने के लिए मज़बूर हो गयी थी।
अब देखना यह है कि दक्षिण एशिया के देशों का शासक वर्ग उभरते अंतर्विरोधों का किस रूप में समाधान करता है। यदि शासक उत्पीड़ित जनता के प्रति उदासीन रहते हैं और वैश्विक व राष्ट्रीय कॉर्पोरेट सत्ता प्रभुओं के प्रति निष्ठावान बने रहते हैं, तो जन-सैलाब बार बार उठेंगे, अराजकता फैलेगी और राजधानियों में ढाका तख्तापलट ड्रामा के मंचन को रोका नहीं जा सकेगा। चरम धार्मिक-मज़हबी ताक़तें ‘आग में घी‘ झोंकती रहेंगी, लोकतंत्र व संविधान को त्रिशूल और तलवार पर लटकाया जाता रहेगा। सावधान!
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)