अगर आरएसएस उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र का उत्तराधिकारी बनने की क्षमता देख रहा है तो गलत नहीं कर रहा है। अपना प्रचार खुद करने में वह मोदी से आगे नहीं तो पीछे भी नहीं हैं। वह उसी तरह उत्तर प्रदेश के विकास का दावा कर रहे हैं जिस तरह कभी मोदी ने गुजरात के विकास का दावा किया था। असल में, प्रचार का यह गुजरात मॉडल है जिसे योगी ने अपना लिया है। इसी के सहारे मोदी सत्ता के शीर्ष तक पहुंच गए। सवाल उठता है कि क्या जल्द ही चुनाव में जा रहे प्रदेश में विकास के दावों का यह गुजरात मॉडल कारगर सिद्ध होगा? आखिरकार इसका नाम लेना खुद मोदी ने छोड़ दिया है। दरअसल यह विकास की चादर में लिपटी सांप्रदायिक नफरत है और मोदी की तरह ही योगी भी सत्ता में बने रहने के लिए इसी पर निर्भर हैं। क्या प्रदेश की जनता इस मॉडल को स्वीकार करेगी जिसका स्वाद योगी के साढ़े चार साल के शासन में वह चख चुकी है?
योगी ने रविवार को पिछले साढ़े चार साल के अपने कामकाज का रिपोर्ट-कार्ड जारी किया। इसे कई चैनलों पर लाइव प्रसारित किया गया। योगी ने उसी आत्मविश्वास से प्रदेश के विकास का दावा पेश किया जिस आत्मविश्वास का प्रदर्शन मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में और फिर प्रधानमंत्री के रूप में करते रहे हैं। यह राजनीति की वही संस्कृति है जो तानाशाही में पनपती है। इसका उपयोग दूसरे विश्वयुद्ध के पहले जर्मनी और इटली में हो चुका है। इसमें सूचनाएं एकतरफा होती हैं। ये सामने रख दी जाती हैं और इसे चुनौती देने की अनुमति नहीं होती। गनीमत है कि भारत में लोकतंत्र का उतना हिस्सा अभी भी बचा है कि लोग कुछ सवाल कर ही लेते हैं, भले ही मुंह बंद कराने में कई सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियां लगी हुई हैं। सवाल पूछने वालों के साथ योगी सरकार के सलूक से लोग वाकिफ हैं। रिपोर्ट-कार्ड पेश करते समय भी योगी ने उसी संस्कृति का नमूना दिखाया। उन्होंने अपना बयान खत्म किया और उठकर चले गए। उन्होंने मीडिया से सवाल नहीं लिया। यह वही तरीका है जिसमें मोदी प्रेस के सामने नहीं आते चाहे देश और दुनिया में कोई भी घटना हो जाए। अफगानिस्तान में तालिबान के आने की ही घटना को ले लीजिए। चीन को छोड़ कर दुनिया के हर ताकतवर देश का मुखिया प्रेस के सामने आया। अमेरिकी राष्ट्रपति, रक्षा मंत्री तथा विदेश मंत्री को तो उनके हर सवाल का जवाब देना पड़ा। लेकिन मोदी प्रेस के सामने नहीं आए।
योगी ने मीडिया को धन्यवाद जरूर दिया कि उसने उनके कार्यक्रमों को जनता तक पहुंचाने का काम किया। यह उचित भी था क्योंकि मीडिया उनके हर कार्यक्रम को उसी उत्साह से कवर करता है जिस उत्साह से उनके विज्ञापन दिखाता है। कुछ मीडिया संस्थानों ने सवाल पूछे तो उन्हें सीधा करने में सरकार ने कोई परहेज भी नहीं किया। सरकारी एजेंसियां हिसाब-किताब देखने पहुंच गईं।
योगी का उत्साहित होना वाजिब है। वह देख चुके हैं कि मीडिया ने भुखमरी में उस समय तीसरे नंबर पर चल रहे गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को नए भारत का मसीहा बना दिया और उनके गुजरात मॉडल को इतना वाइब्रैंट बता दिया कि वह दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गए। नीति आयोग और संयुक्त राष्ट्र की तीन महीने पहले आई रिपोर्ट में भी गुजरात की भुखमरी को चिंताजनक बताया गया है। डबल इंजन से चल रहा गुजरात स्वास्थ्य को छोड़ कर किसी में अव्वल नहीं है। वैसे, वहां की स्वास्थ्य-व्यवस्था की पोल भी कोरोना काल में खुल गई। मीडिया के एक उत्साही हिस्से ने मौत के आंकड़ों में हेराफेरी को सामने ला दिया। उद्योग में पहले से आगे राज्य की हर उपलब्धि को मोदी ने अपने नाम दर्ज करा लिया और बड़े पूंजीपतियों के साथ खड़े होकर कि छोटे और मझोले उद्योगों को छिन्न-भिन्न कर दिया। छोटे-मंझोले उद्योगों के सहारे संपन्न हुआ पटेल समुदाय इस बुरी हालत को पहुंचा कि आरक्षण की मांग को लेकर उसे सड़कों पर उतरना पड़ा। लेकिन सांप्रदायिक विभाजन के कारण सत्ता में टिके मोदी ने विकास का एक दूसरा ही मिथक गढ़ा जिसके जादू में पूरा देश ही फंस गया।
योगी के सामने वही उदाहरण है। उन्होंने थोड़ी देर जरूर कर दी है। चुनाव काफी नजदीक आ गए हैं। लेकिन उन्हें भरोसा होगा कि वह इसकी भरपाई सांप्रदायिक विभाजन से कर लेंगे। अपने रिपोर्ट-कार्ड में उन्होंने वही सब गिनाया है जो गुजरात मॉडल का प्रचार करते समय मोदी गिनाते थे। उन्होंने दावा किया कि इंवेस्टर सम्मिट के बाद उत्तर प्रदेश दुनिया भर के पूंजीपतियों के लिए एक चहेता प्रदेश बन गया है, और तो और चीन ने भी यहां निवेश किया है। उन्होंने चीन के निवेश को ज्यादा गौरव की बात बताई। उन्होंने कहा कि कानून-व्यवस्था की स्थिति ऐसी सुधर गई है कि व्यापार करने के लिए यह बेहतरीन जगह मानी जाती है यानि इज ऑफ डूइंग बिजनेस में राज्य काफी ऊपर है।
मोदी की ही तर्ज पर उन्होंने दावा किया कि राज्य ने कोरोना का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है। उन्हें गंगा किनारे दबी लाशों की याद नहीं आई और न ऑक्सीजन सिलिंडरों के लिए मची अफरा-तफरी का ध्यान आया। जाहिर है कि उन्हें इसके लिए कोई ग्लानि नहीं है। इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि फिराजाबाद में डेंगू से हो रही मौतों का ख्याल भी उन्हें नहीं आया।
दावों की उनकी फेहरिश्त में मेट्रो रेल है, एक्सप्रेस वे जैसे वास्तविक चीजें हैं तो फलते-फूलते उद्योग और असंख्य रोजगार की काल्पनिक बातें भी हैं। सब मिला कर विकास का एक मिथकीय संसार बनता है जिसमें कारखाने धुएं उगल रहे हैं और नौजवान रोजगार के लिए मारा-मारी करने के बदले काम पर जा रहे हैं। योगी की इस काल्पनिक दुनिया में किसानों की आय बढ़ चुकी है। उनके घाटे को पूरा करने वाली मुकम्मल सरकारी योजनाएं हैं। इसमें बेघर लोग सरकार से मिले आवास में आराम फरमा रहे हैं। नई शिक्षा व्यवस्था लागू कर दी गई है और अब ऐसी पढ़ाई होने लगी है कि रोजगार पाने में किसी को दिक्कत नहीं होगी।
उनके इस मिथकीय राज्य में ऐसा अमन कायम हो गया है कि अपराध की घटनाएं सुनने में ही नहीं आतीं। इसमें भ्रष्टाचार खत्म हो चुका है क्योंकि अपराध और भ्रष्टाचार की जड़ें तो परिवारवाद में फंसे राजनेताओं के राज में थीं! यहां औरतों के खिलाफ अपराध करने की किसी को हिम्मत ही नहीं है!
लेकिन सुशासन की इस काल्पनिक तस्वीर का असली रंग क्या है? इसका अर्थ क्या है? यहां अपराध रोकने के नाम पर फर्जी मुठभेड़ की छूट है। यहां ओरतों की रक्षा का अर्थ है रोमियो स्क्वैड बना कर उनकी स्वतंत्रता को खत्म करना। इस तस्वीर में दलितों और औरतों पर अत्याचार की गिनती नहीं है। लोगों को आवाज उठाने की आजादी नहीं है। यह लोकतंत्र की विकलांगता की तस्वीर है।
विकास की इस काल्पनिक तस्वीर से फूट रहे सांप्रदायिकता के जहर के सोता को देखना चाहिए। इसमें राम मंदिर है, कुंभ के बेहतरीन आयोजन, खूबसूरत तीर्थ स्थल और अयोध्या में झिलमिलाते दीप हैं। लेकिन साथ में मॉब लिंचिंग है और अल्पसंख्यकों को हाशिए पर भेजने तथा उनके खिलाफ हिंदुओं को खड़ा करने का संघ परिवार का लगाातार चल रहा प्रयास है। यह अब्बाजान जैसे जुमलों और कथित लव जिहाद के खिलाफ कानून, नागरिकता कानून में संशोधन, जनसंख्या को लेकर खड़े किए जा रहे आधारहीन विवाद तथा अल्पसंख्यकों के बीच तालिबान समर्थक ढूंढने के कार्यक्रमों में नजर आता है।
यह सिर्फ जमाने से चली आ रही योजनाओं- राशन वितरण, आवास, पेंशन या सामाजिक सुरक्षा की स्कीमों और यूपीए के समय से चली आ रही सीधे बैंक में जाने वाले पैसे के स्कीम को अपने पक्ष में भुनाने भर का सवाल नहीं है। इसकी गहराई में जाने की जरूरत है। हमें यह समझना चाहिए कि विश्व बैंक, अंतराराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विदेश से मिले दूसरे कई कर्जों से बनने वाली सड़कों, बांध आदि परियोजनाओं को विकास बताया जा रहा है। यह असल में भ्रष्टाचार की नीचे से ऊपर बहती गंगा है जिसमें राजनेता, उद्योगपति और नौकरशाह नहा रहे हैं। सड़कों का उद्घाटन करते वक्त यह नहीं बताया जाता है कि देश की जनता पर इससे कितना कर्ज चढ़ गया। हमें इन कर्जों को न केवल सूद समेत लौटाना पड़ता है, बल्कि अपने संसाधनों के इस्तेमाल की छूट विदेशी कंपनियों को देनी पड़ती है। कर्ज और विदेशी निेवेश के इसी चक्र को विकास का नाम दिया गया है। इसमें राजनीतिक पार्टियां और देशी-विदेशी कंपनियां पार्टनर हैं।
हिंदुत्व देशी और विदेशी कंपनियों की लूट चलाए रखने का बेहतरीन नुस्खा है। हिदुओं के गौरव वापस लेने का नैरेटिव लेकर चुनाव में उतरने का यही फायदा है कि देश का संसाधन कंपनियों के हाथों सौंपने और जनता के पैसे से खड़ी कंपनियों को पूंजीपतियों के हाथों बेचने पर कोई सवाल नहीं उठाता है। लोग अयोध्या के दीपोत्सव और कुंभ के स्नान में मगन हो जाते हैं और फायदा कमा रही सरकारी कंपनियां बिक जाती हैं तथा पूंजीपतियों के कर्ज माफ हो जाते हैं
क्या देश की किसी भी पार्टी के पास हिदुत्व और पूंजी के इस गठबंधन को तोड़ने का कोई रास्ता है? क्या किसी के पास विदेशी कर्ज पर टिके विकास के इस मॉडल की जगह सार्वजनिक पूंजी और श्रम के आधार पर चलने वाली औद्योगिक व्यवस्था का कोई मॉडल है? हिंदुत्व का मुकाबला जनता की अर्थव्यवस्था का मॉडल सामने लाए बगैर नहीं हो सकता है। योगी उत्तर प्रदेश में वही दोहराना चाहते हैं जिसे मोदी ने गुजरात में दोहराया था। जनता ही उनके झूठ का मुकाबला कर सकती है।
(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)