वे ग्यारह हैं।
आज से ठीक दो साल पहले इनमें से पाँच को गिरफ्तार किया गया। बाद में छह और गिरफ्तार हुए।
इनमें से कोई अपनी भाषा के सबसे बड़े कवियों में से आता है, कोई भारत सरकार की प्रतिष्ठित फेलोशिप प्राप्त अध्येता है, कोई ज़िंदगी भर विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को पढ़ाती रही तो किसी ने विदेशी नागरिकता और आईआईटी की डिग्री/कैरियर छोड़कर गरीब आदिवासियों के बीच काम करना चुना, इनमें से कुछ समाज के सबसे वंचित तबके से आते हैं तो कुछ अपनी अभिजात पृष्ठभूमि को छोड़कर श्रमिकों-किसानों के बीच काम करने चले गए।
ये सभी वर्तमान सरकार के आलोचक हैं और अपनी असहमति को छिपाते नहीं।
भारतीय लोकतंत्र इन्हें यह अधिकार देता है।
फिलहाल, कोविड का कोकाल है।
भारतीय न्यायालय कहता है कि जेलों में बंद कैदियों को उनकी जीवन रक्षा के लिए रिहा किया जाए। बहुत से कैदियों को इस नीति के तहत रिहा भी किया गया है।
लेकिन इनको नहीं।
बल्कि इनमें से दो को तो अभी इसी दौरान गिरफ्तार किया गया है।
ये सभी कैदी अभी भी अभियोगाधीन (अंडर ट्रायल) हैं।
वैसे तो निश्चित अवधि में मुकदमा चलकर फैसला हो जाना भी प्रत्येक नागरिक का मूल अधिकार होता है और अंडर ट्रायल में इतना वक्त गुज़ारना ही सरकार की आपराधिक लापरवाही होती है जो राजनीतिक कैदियों के मामले में जानबूझकर की जाती है। लेकिन वर्तमान समय में तो –
कोर्ट ने रिहाई में पहली प्राथमिकता अभियोगाधीन (अंडर ट्रायल) कैदियों को देने का निर्देश दिया है।
कोर्ट का दूसरा निर्देश है कि रिहाई में बुजुर्गों को प्राथमिकता दी जाए।
इन ग्यारह में से पाँच लोग वृद्ध की श्रेणी में आते हैं।
कोर्ट कहता है कि बीमारों को प्राथमिकता दी जाए।
इनमें से कुछ गंभीर बीमारियों के शिकार हैं। इनमें से एक अस्सी वर्षीय बुज़ुर्ग, जो दिल के मरीज़ हैं, 28 मई को बेहोश हो गए। उन्हें अस्पताल ले जाया गया और फिर थोड़ा ठीक होते ही, दो ही दिन बाद वापस जेल भेज दिया गया। जाओ, सड़ो।
ये सभी कैदी महाराष्ट्र की दो जेलों में हैं। महाराष्ट्र राज्य में कोरोना भीषण रूप से फैला है। 200 से ज्यादा कैदी इसकी चपेट में आ चुके हैं।
इनमें से कुछ इतने विद्वान हैं कि उनकी किताबें दुनिया भर में पढ़ी जाती हैं और दुनिया के कुछ सबसे बड़े अध्येताओं ने इनकी रिहाई के लिए खत लिखे हैं।
इनमें से तीन को पहले भी कैद किया गया। अपनी ज़िंदगी के पाँच-छह बेशकीमती साल उन्होंने कैद में बिताए और फिर सभी निर्दोष साबित होकर बाहर आये।
एक ने अपने जेल अनुभवों पर किताब भी लिखी। उस किताब में बदला और घृणा नहीं बल्कि न्याय और मुहब्बत की तलाश है।
इन में से किसी पर अभी तक अदालत में आधिकारिक दोषारोपण भी नहीं हुआ है, दोष साबित होना तो बहुत दूर की बात है। भारतीय न्याय का सिद्धांत तो दोष साबित होने तक व्यक्ति को बेगुनाह मानने की बात करता है।
फिर इन्हें किस बात की सज़ा मिल रही है?
यदि इन्हें कुछ हुआ तो हमारे गौरवशाली संविधान की आत्मा को आघात पहुंचेगा।
जैसे भारतीय संविधान इन्हें बोलने का अधिकार देता है वैसे ही हम सबको भी इनके पक्ष में आवाज़ उठाने का अधिकार देता है।
आवाज़ उठाइये। कहीं देर न हो जाये।
(हिमांशु पांड्या राजस्थान के एक महाविद्यालय में अध्यापन का काम कर रहे हैं।)
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