पी चिदंबरम, इंदिरा जयसिंह, प्रशांत भूषण, गायत्री देवी।

सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान के पीछे 21 वरिष्ठ वकीलों की चिट्ठी की अहम भूमिका

प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा पर स्वत:संज्ञान उच्चतम न्यायालय ने ऐसे ही नहीं ले लिया बल्कि कोविड -19 महामारी के मद्दे नजर प्रवासियों के सामने आने वाले संकट का संज्ञान लेने से एक रात पहले, 21 वरिष्ठ वकीलों ने भारत के चीफ जस्टिस एसए बोबडे को पत्र लिखकर अदालत के हस्तक्षेप की मांग की थी। 25 मई को देर रात चीफ जस्टिस बोबडे को पत्र भेजा गया था। इसके बाद 26 मई को उच्चतम न्यायालय ने प्रवासी मजदूरों के सामने आने वाली समस्याओं का संज्ञान लिया।

दिल्ली और बॉम्बे के प्रमुख 21 वकीलों पी चिदम्बरम, आनंद ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह, मोहन कतार्की, सिद्धार्थ लूथरा, संतोष पॉल, महालक्ष्मी पवनी, कपिल सिब्बल, चन्द्र उदय सिंह, विकास सिंह, प्रशांत भूषण, इकबाल छागला, अस्पी चिनॉय, मिहिर देसाई, जनक द्वारकादास, रजनी अय्यर, यूसुफ मुछाला, राजीव पाटिल, नवरोज सरवाई, गायत्री सिंह, संजय सिंघवी ने चीफ जस्टिस बोबडे को एक पत्र लिखा, जिसमें लॉकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों द्वारा सामना किए गए मुद्दों से निपटने में अदालत की विफलता पर अपनी पीड़ा व्यक्त की।

पत्र में कहा गया है कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा सरकार के मिथ्या कथनों  पर विश्वास और उच्चतम न्यायालय द्वारा नीतिगत निर्णय के मुद्दे अथवा निगरानी में असमर्थता के आधार पर मामले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया गया जबकि यह एक बड़ी मानव आपदा का मामला है और लाखों प्रवासी श्रमिक सड़क पर हैं, अपने घरों तक पहुंचने के लिए हजारों किलोमीटर पैदल चलने को विवश हैं। नौकरशाही की लापरवाही लाखों लोगों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का यह मामला है जिसमें उच्चतम न्यायालय के तत्काल न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
पत्र में कहा गया है कि न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप न करने के परिणामस्वरूप, प्रवासियों को बिना वेतन और भोजन के तंग आवास में रहने के लिए मजबूर किया गया था। इससे उनके  कोरोनावायरस के संपर्क में आने का खतरा बढ़ गया।

पत्र में याद दिलाया गया है कि प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा पर एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान 31 मार्च को, सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि कोई भी प्रवासी मजदूर सड़क पर नहीं है, सभी को आश्रय घरों में रख लिया गया है। पत्र में लिखा गया है कि उच्चतम न्यायालय ने 31 मार्च को दिए अपने आदेश में महामारी से निपटने के लिए भारत संघ द्वारा उठाए गए कदमों पर संतोष व्यक्त किया था और कहा था कि शहरों में काम करने वाले मजदूरों का पलायन घबराहट से पैदा हुआ था। फर्जी खबर है कि लॉक डाउन 3 महीने से अधिक समय तक जारी रहेगा।

पत्र में कहा गया है कि न्यायालय के हस्तक्षेप न करने के परिणामस्वरूप, भले ही कोविद मामलों की संख्या उस समय केवल कुछ सौ थी, लाखों प्रवासी श्रमिक अपने गृहनगर नहीं जा पाए थे और छोटे तंग कोठरियों या कमरे या फुटपाथों पर रहने के लिए मजबूर कर दिए गये थे। इनके पास कोई  रोजगार नहीं था न आजीविका का कोई और साधन। यहाँ तक कि भोजन का भी कोई इंतजाम नहीं था। जबरन  लागू व्यवस्था के कारण इस तरह के गरीब श्रमिकों को कोविद संक्रमण के उच्च जोखिम का सामना करना पड़ा।

पत्र में समाचार रिपोर्टों का हवाला देते हुए कहा गया है कि 90 फीसद से अधिक प्रवासी श्रमिकों को कई राज्यों में सरकारी राशन नहीं मिला है और वे भोजन की कमी से पीड़ित हैं। इससे प्रवासी श्रमिकों में उनके गृह राज्यों में जाने के लिए भगदड़ मच गयी। ऐसे प्रवासी मजदूर जो पिछले 6 सप्ताह से बिना किसी रोजगार या मजदूरी के तंग आ चुके थे, उन्होंने अपने घरों में वापस जाने की कोशिश का फैसला किया।इसके बाद भी, जब प्रवासियों को लाने के लिए श्रमिक ट्रेनों की शुरुआत की गई थी, तब भी उन पर कई गंभीर शर्तें लगाई गई थीं, जैसे मेडिकल सर्टिफिकेट प्राप्त करने के बाद खुद को बड़ी लागत पर जांच करवाना। यह  प्रवासियों में भय का कारण बन गया जो पैदल ही सामूहिक पलायन के रूप में सामने आया।

इसके अलावा, पत्र में उल्लेख किया गया है कि 15 मई को उच्चतम न्यायालय  ने उन सभी जिला मजिस्ट्रेटों को तत्काल दिशा-निर्देश देने के लिए एक आवेदन को खारिज कर दिया था, जो उन प्रवासी कामगारों की पहचान करने से सम्बन्धित था, जो सड़कों पर चल रहे हैं, उन्हें उचित भोजन और आश्रय प्रदान करने और उनकी निःशुल्क यात्रा से सम्बन्धित था। 15 मई को उच्चतम न्यायालय ने औरंगाबाद में ट्रेन से कटकर 16 मजदूरों की मौत के मामले में संज्ञान लेने से मना कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि अगर लोग रेल की पटरी पर सो जाएंगे तो उन्हें कोई नहीं बचा सकता।याचिकाकर्ता ने प्रवासी मज़दूरों का हाल कोर्ट के सामने रखते हुए इसी तरह की दूसरी घटनाओं का भी हवाला दिया था, लेकिन कोर्ट ने कहा था कि जो लोग सड़क पर निकल आए हैं, उन्हें हम वापस नहीं भेज सकते। जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने याचिकाकर्ता से कहा था कि आप ने अखबार में छपी खबरों को उठाकर एक याचिका दाखिल कर दी है। कौन सड़क पर चल रहा है और कौन नहीं, इसकी निगरानी कर पाना कोर्ट के लिए संभव नहीं है।

पत्र में कहा गया है कि हम सम्मान पूर्वक प्रस्तुत करते हैं कि सरकार की  संस्थागत अवहेलना और न्यायालय की ओर से इस भारी मानवीय संकट के प्रति स्पष्ट उदासीनता में अगर तुरंत सुधार नहीं किया जाता है, तो न्यायपालिका अपने संवैधानिक कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन में असफल मानी जाएगी और लाखों गरीबों, भूखे प्रवासियों के प्रति कर्तव्य एवं दायित्व निभाने में विफल रहेगी ।

पत्र में कहा गया है कि प्रवासी श्रमिकों का मुद्दा नीतिगत मुद्दा नहीं है। ये संवैधानिक मुद्दा है जिसमें कार्यपालिका की कार्रवाई की सख्त जांच की आवश्यकता है। रेलवे स्टेशन और राज्य की सीमाओं पर सड़कों पर फंसे लाखों लोगों के साथ प्रवासी श्रमिकों का संकट आज भी विद्यमान है। हम माननीय उच्चतम न्यायालय से हस्तक्षेप करने का आग्रह करते हैं और यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पर्याप्त परिवहन व्यवस्था, भोजन और आश्रय की तुरंत निःशुल्क व्यवस्था प्रदान की जाए ।

इस बीच, बुधवार को उच्चतम न्यायालय में एक अर्जी दाखिल करके कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा है कि कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से देश में फंसे कामगारों की दुर्भाग्यपूर्ण और दयनीय स्थिति के मामले में हस्तक्षेप करना चाहते हैं। यह मामला 28 मई को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध है।

कांग्रेस प्रवक्ता सुरजेवाला ने कहा कि वह जगह-जगह फंसे या लंबी यात्रा तय कर रहे कामगारों की दुश्वारियों को कम करने के लिए न्यायालय को कुछ महत्वपूर्ण उपायों के बारे में अवगत कराना चाहते हैं जिन पर केंद्र विचार कर सकता है। वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिघवी द्वारा अंतिम रूप दिये गए इस आवेदन में कहा गया है कि इन कामगारों की समस्याओं पर विचार करने के लिए विपक्षी दलों के साथ मिलकर कोई संयुक्त समिति गठित करने में केंद्र सरकार के विफल रहने की वजह से आवेदक (सुरजेवाला) और विपक्षी दल या किसी भी सांसद द्वारा बताए गए उपायों पर सरकार विचार करने में असफल रही है। सुरजेवाला ने सुझाव दिया है कि केंद्र को तत्काल जिला और ग्राम स्तर पर इन कामगारों के लिए स्वागत और सुविधा केंद्र स्थापित करने चाहिए और उन्हें उनके पैतृक जिलों तथा गांवों तक जाने की सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए।

 न्यायमूर्ति अशोक भूषण, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एमआर शाह की पीठ ने मंगलवार को इन कामगारों की दयनीय स्थिति और उनके समक्ष पेश आ रही कठिनाइयों का संज्ञान लेते हुए कहा था कि केंद्र और राज्य सरकारों को इन कामगारों के लिए नि:शुल्क भोजन और आवास के साथ ही पर्याप्त परिवहन की सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए।

 (वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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