ब्लिंकिट के डिलीवरी पार्टनर लड़ रहे हैं अपने अस्तित्व की लड़ाई

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नई दिल्ली। समाचार पत्रों में ब्लिंकिट के कर्मचारियों की एक हफ्ते से चल रही हड़ताल को वापस लेने की खबर चल रही है। इसका आधार ज़ोमेटो की बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को दिए गए लिखित जवाब को बनाया गया है। इसमें कहा गया है कि “पिछले कुछ दिनों से हमने डिलीवरी पार्टनर्स के भुगतान की संरचना में कुछ बदलाव किये थे, जो जरूरत पड़ने पर समय-समय पर किये जाते हैं। कुल मिलाकर 3-4 दिनों की बिक्री प्रभावित हुई है, जिसका अर्थ है ब्लिंकिट की कुल कमाई के करीब 1% का नुकसान हुआ है, जोकि वितीय वर्ष 23-24 के कुल राजस्व का 0.15% है। अपने कर्मचारियों और डिलीवरी पार्टनर्स की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए हमने कुछ स्टोर्स को बंद कर रखा था। इनमें से अधिकांश स्टोर्स अब पूरी तरह से सुचारू रूप से संचालन में आ चुके हैं।”

10 मिनट के भीतर ग्राहकों की घरेलू जरूरतों को डिलीवर करने वाली कंपनियों में से एक है ब्लिंकिट। 12 अप्रैल से दिल्ली-एनसीआर और कुछ अन्य शहरों में इसके डिलीवरी पार्टनर हड़ताल पर चले गये थे, जिसके बारे में अब खबर है कि यह हड़ताल खत्म हो गई है। यह हड़ताल मुख्य रूप से दिल्ली और एनसीआर में प्रभावी रही। इसके अलावा कुछ अन्य शहरों में भी इसका असर देखा गया। दिल्ली में हजारों की संख्या में गिग वर्कर सड़कों पर उतरे और उन्होंने ब्लिंकिट मैनेजमेंट के खिलाफ विभिन्न स्टोर्स के सामने विरोध प्रदर्शन किये और पुतले फूंके।

लॉकडाउन के दौरान बड़े शहरों में ग्रोफर्स नाम की डिलीवरी सर्विस की काफी धूम थी। जुलाई 2022 में ज़ोमेटो ने ग्रोफर्स का अधिग्रहण कर इस कारोबार को ब्लिंकिट के नाम से आगे बढ़ाया। शुरू-शुरू में ग्रोफर्स के वर्कर्स को प्रति डिलीवरी 50 रूपये का भुगतान किया जाता था, जिसे जुलाई 2022 से 25-32 रूपये प्रति डिलीवरी कर दिया गया।

लेकिन हाल ही में कंपनी ने नियमों में लगातार कई बदलाव कर अब इसे 15 रूपये प्रति डिलीवरी तक ला दिया है, जिससे कर्मचारियों में गंभीर असंतोष पनपा और नतीजे के तौर पर स्वतःस्फूर्त आंदोलन और हड़ताल की शक्ल में यह विरोध पिछले एक हफ्ते से देखने को मिल रहा था। इन गिग वर्कर्स का कहना है कि इतनी महंगाई में इतने कम दाम पर काम करना कहीं से भी संभव नहीं है। कंपनी गिग वर्कर्स का शोषण करना बंद करे।

जुलाई 2022 तक इन कर्मियों को 50 रूपये प्रति डिलीवरी दिए जाते थे। साथ ही कई इंसेंटिव भी इसके साथ जुड़े हुए थे। लेकिन जुलाई 2022 से ज़ोमेटो द्वारा अधिग्रहण के बाद यह रेट घटकर 25 रूपये रह गया, लेकिन डिलीवरी में बढ़ोत्तरी और इंसेंटिव मिलाकर 35-40 रूपये प्रति डिलीवरी मिलने से कर्मचारियों में असंतोष नहीं भड़का और उन्होंने काम जारी रखा। लेकिन अब इसे घटाकर सीधे 15 रूपये कर दिया गया है, जिस पर काम करना लगभग असंभव हो गया है।

ब्लिंकिट के कर्मचारियों के अनुसार, हर 10 दिन पर किसी न किसी डिलीवरी बॉय के साथ सड़क दुर्घटना हो जाती है। कंपनी के पास स्वास्थ्य बीमा और दुर्घटना होने पर मुआवजा जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। डिलीवरी पार्टनर्स को 10 मिनट में डिलीवरी को सुनिश्चित करने के लिए बाइक खरीदना अनिवार्य है। बाइक की मासिक किश्त, पेट्रोल खर्च (2+2 किमी आना जाना) और हर महीने का बाइक मेंटेनेंस खर्च ही प्रति डिलीवरी कम से कम 10 रूपये हो जाता है।

इसका मतलब है कि प्रति डिलीवरी 5 रूपये की कमाई। यदि दिन भर 8 घंटे में 20 डिलीवरी भी की तो हाथ आएगा मात्र 100 रूपये। इतनी कमाई के लिए जान को जोखिम में डालकर भला कोई कैसे काम कर सकता है? अभी तक औसतन 1,000 रूपये की कमाई हो जाती थी, लेकिन 15 रुपये के रेट पर काम करने का मतलब है, आत्महत्या करना।

इतना ही नहीं, यदि कस्टमर ने झूठी शिकायत कर दी, या स्टोर की गलती से माल कम पैक हुआ तो हर शिकायत पर कर्मचारी की कमाई से 300 रूपये कंपनी काट लेती है। 10 मिनट के भीतर डिलीवरी पहुंचाने की शर्त भी कई बार कर्मचारियों के लिए दुर्घटना को दावत देना हो जाता है। कई बार स्टोर में सामान न होने के बावजूद डिलीवरी स्वीकार कर ली जाती है, और बाद में यदि ग्राहक आर्डर को स्वीकार नहीं करता तो इसके लिए भी डिलीवरी बॉय को ही दोषी करार दिया जाता है।

इस प्रकार यह पूरा मॉडल जहां एक तरफ छोटी-छोटी रोजमर्रा की जरूरतों को 10 मिनट के भीतर मध्य वर्ग के घरों में पहुंचाने का दावा करने वाली कंपनियों द्वारा किया जाता है, वहीं उनके बीच में आपसी प्रतिस्पर्धा और बाजार में अपनी पैठ बनाने और दूसरे का बाजार छीनने के लिए दामों में कटौती को हथियार बनाना कोई नई बात नहीं है। लेकिन यह मार्जिन आये कहां से? इसलिए इस पूरे पिरामिड के अंतिम पायदान पर मौजूद डिलीवरी पार्टनर को इसका बोझ सहने के लिए खड़ा करना लाजिमी है।

यही वजह है पिछले दो वर्षों में 50 रूपये से 15 रूपये प्रति डिलीवरी भुगतान की शर्त रखने की। नव उदारवादी अर्थव्यस्था का यह पिरामिड अपने अंतिम पायदान के खून की अंतिम बूंद से स्टॉक मार्केट में अपने निवेशकों के लिए उल्लास का कारण बन रहा है। इसका सटीक उदाहरण जोमेटो है, जिसके शेयर इस हड़ताल में उछले हैं जबकि निफ्टी में गिरावट का रुख है।

सभी जानते हैं कि आज निवेशक ही नहीं बल्कि देश के मशहूर क्रिकेटर्स, चोटी के सफल उद्योगपति और बड़ी संख्या में शेयर बाजार में निवेश करने वाले उच्च मध्यवर्ग सहित एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है, जो स्टॉक को लगातार ऊपर जाते देखना चाहता है। अपने लाभ के लिए उसके पास बाजार की प्रतिस्पर्धी से निपटने के लिए लाखों की संख्या में दो जून की रोटी कमाने वाले गिग वर्कर्स की कीमत पर लाभ कमाना ही परम लक्ष्य है।

इन सभी लोगों की सारी चिंता आज इस बात पर आकर सिमट गई है कि कंपनी के स्टॉक की ग्रोथ हो रही है या नहीं। यदि उसमें गिरावट का रुख बना हुआ है, तो वे उससे तत्काल छुटकारा पाकर किसी दूसरे स्टॉक की ओर भाग सकते हैं, जिसने अपनी बैलेंस शीट को धो-पोंछकर खासा मुनाफा दिखाया है। यह मुनाफा वह कैसे कमा रहा है, इससे भला भारत के इस कुलीन वर्ग को कैसे फर्क पड़ सकता है?

सरकार इस सारे तमाशे को चुपचाप देख ही नहीं रही, बल्कि इसको बढ़ावा दे रही है। भारत सरकार खुद आंगनबाड़ी और मिड डे मील जैसी राष्ट्रीय योजनाओं के जरिये खुद के द्वारा लागू किये गये न्यूनतम मजदूरी की दरों के साथ मजाक कर रही है। सरकार कॉर्पोरेट के लिए एक ऐसे श्रम बाजार को खोल रही है, जिसके लिए उसने कई दशकों से विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से वायदा कर रखा था। आज यह काम इन स्टार्टअप के द्वारा सहज रूप से अपने कर्मचारियों को पार्टनर बताकर किया जा रहा है।

यहां पर न्यूनतम वेतन, भविष्य निधि, बीमा, ईएसआई इत्यादि का कोई झंझट नहीं रहा। न ही इस पूरी श्रृंखला में कोई मूल्य-वृद्धि ही होती है। आपको अचानक से मन करता है कि गर्मी लग रही है और कोक पीना चाहिए, तो बस एक आर्डर करने की देर है। 100-200 रूपये की डिलीवरी के लिए लोग झट से एप्प का सहारा लेते हैं, और 42 डिग्री की तपती दुपहरी में डिलीवरी बॉय 10 मिनट में यह सेवा आपको प्रदान करने के लिये बाध्य है।

सोशल मीडिया पर इस मुद्दे पर कई तरह के रोचक दृष्टिकोण आ रहे हैं। कई लोग स्वीकार करते हैं कि इस प्रकार के एप्प युवाओं का जबर्दस्त शोषण कर रहे हैं। तो कईयों का कहना है कि 25 रूपये यदि कंपनी चाहे तो ग्राहकों से इस सुविधा के बदले वसूल सकती है। क्योंकि यह एक सुविधा सेवा है, न कि एमआरपी पर 10 मिनट में डिलीवरी देना कंपनी की बाध्यता है, हम यह एक्स्ट्रा भुगतान करने के लिए तैयार हैं।

कई लोग खुद स्वीकार कर रहे हैं कि यदि वे खुद अपने नजदीकी किराना स्टोर से सामान लेने जाते हैं तो उनके लिए भी 10 मिनट में सामान लेना संभव नहीं है। फिर कैसे ये डिलीवरी बॉय आर्डर पूरा कर पाते हैं? तो कुछ लोग 10 मिनट में डिलीवरी की जरूरत के औचित्य को ही कटघरे में रख रहे हैं।

वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग इन सबसे इत्तिफाक न रखते हुए साफ़-साफ़ कहते हैं कि ब्लिंकिट ने इन्हें काम करने के लिए मजबूर नहीं किया। यदि काम नहीं करना तो इस्तीफ़ा दे दें। स्ट्राइक नहीं करनी चाहिए। स्ट्राइक कर ही कानपुर की इंडस्ट्री को तबाह किया गया और पूंजीपति दूसरे स्थानों पर शिफ्ट हो गये।

इनके हिसाब से लाभ को सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए। वे इसके लिए पश्चिमी देशों की सफलता और उसका अंधानुकरण करने की वकालत करते हैं। हमारे देश में ऐसे लोगों की तादाद पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ी है। वे मानते हैं कि जो जितना प्रतिस्पर्धी होगा वह उतना ही टिकाऊ और भविष्य के लिए बेहतर होगा। इसलिए सरकार को सिर्फ नीतियों को बनाने और सार्वजनिक सेवा प्रदाता की भूमिका के अलावा सभी काम निजी क्षेत्र को सौंप देना चाहिए। इसमें वही टिकेगा जो कम दाम पर सेवा अथवा माल की बाजार में आपूर्ति करेगा।

इस तर्क के अनुसार तो भारत ही नहीं सारी दुनिया को अपने देश में मैन्युफैक्चरिंग को ही बंद कर देना चाहिए, क्योंकि चीन इस समय दुनिया की फैक्ट्री बन चुका है। हमारे देश में भी ऐसे हजारों व्यवसायी हैं जो उत्पादन के साथ जुड़े सैकड़ों झंझटों से छुटकारा पाकर चीन से सीधे कंटेनर मंगा लेते हैं, और मजे से भारतीय उद्यमियों से अधिक मुनाफा कमा रहे हैं। इस प्रकार हम अपने ही देश में अपने ही देश की जडें खोदने वालों को सफल और दूसरी तरफ उन उद्यमियों को नकारा बता रहे हैं जो महंगी लागत और भारतीय परिस्थिति में आज भी उद्योग धंधे चला रहे हैं।

एक्टू से जुड़ी यूनियन एप्प कर्मचारी एकता यूनियन के नेता ऋत्विक के अनुसार “दिल्ली एनसीआर में लाखों गिग वर्कर काम करते हैं। जिस अनुपात में इनकी तादाद बढ़ रही है, उसी अनुपात में उनका शोषण भी बढ़ रहा है। इनके पास पीएफ, ईएसआई और दुर्घटना या मौत पर मुआवजा नहीं मिलता है। आज ब्लिंकिट में इसी चीज का विरोध हो रहा है। कल जो इनको 50 रूपये का रेट कार्ड मिलता था, उसे आज 15 रूपये कर दिया गया है। यह सिर्फ ब्लिंकिट की लड़ाई नहीं है।”

ऋत्विक ने कहा कि “यदि आप अन्य गिग कंपनियों में हैं और सोचते हैं कि यह तो ऋत्विक के स्टाफ के साथ हो रहा है, तो यदि आज वे हारेंगे तो कल आप हारेंगे, इसलिए इस लड़ाई को मजबूत करना हमारा काम है। हमारी अपील है कि चाहे आप किसी भी एप्प की कंपनी में काम करते हैं, आपको इस स्ट्राइक का समर्थन करना चाहिए। अपनी एप्प कर्मचारी एकता यूनियन को मजबूत करें।”

ज़ोमेटो से पहले गिग वर्कर्स के लिए भुगतान कुछ इस प्रकार से था। प्रति डिलीवरी 50 रूपये। 2 किमी से अधिक दूरी तय करने पर प्रति किमी 2.5 रूपये। 10 किलो से अधिक वजन पर प्रति किलो 50 पैसे, रात्रि कालीन डिलीवरी पर 20 रूपये, पीक ऑवर बोनस 7 रूपये प्रति आर्डर। पूरे माह 26 दिनों तक काम करने पर 1000 रूपये का मासिक इंसेंटिव।

22 जुलाई 2022 से जोमेटो के अधिग्रहण के बाद प्रति डिलीवरी पर 25 रूपये फिक्स कर दिया गया, हालांकि बाकी शर्तें वही रहने दी गईं। जनवरी 2023 से नए लोगों के लिए इसे 15 रूपये और मार्च 2023 में इसे घटाकर 10 रूपये प्रति डिलीवरी कर दिया गया है। अप्रैल से इसे 9-12 रूपये प्रति किलोमीटर कर दिया गया है, और साथ ही सारे इंसेंटिव खत्म कर दिए गये हैं।

2022 में ब्लिंकिट ने अपने राजस्व में 2616 करोड़ की कमाई की और बदले में गिग वर्कर्स को बेहतर भुगतान के बदले उन्हें आधे से भी कम पर काम करने की सेवा शर्तें लाद दी हैं।

जनवरी 2023 को नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की तेजी से बढ़ती गिग एवं प्लेटफार्म इकॉनामी की श्रम शक्ति 2029-30 तक 2.35 करोड़ तक पहुंच जाने की उम्मीद है। यह संख्या वर्तमान में 77 लाख से दुगुने से अधिक है। यह रिपोर्ट बताती है कि गिग इकॉनमी और गिग वर्कर्स की संख्या भारत में सिर्फ डिलीवरी या ग्राहक सेवा तक ही सीमित नहीं रहने वाली है, बल्कि एकाउंटिंग, फाइनेंस सहित अर्थव्यस्था के विभिन्न क्षेत्रों में भी इसे तेजी से अपनाया जायेगा।

एक्टू के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष अभिषेक से इस संदर्भ में पूछे जाने पर उनका कहना है कि “दिल्ली एनसीआर में गिग वर्कर्स का सटीक आंकड़ा उपलब्ध होना काफी मुश्किल है। लेकिन विभिन्न स्रोतों और खबरों के जरिये हम इस नतीजे तक पहुंचे हैं कि दिल्ली एनसीआर में ही लगभग 6 लाख लोग गिग इकॉनमी का हिस्सा हैं”।

अभिषेक कहते हैं, “ब्लिंकिट की हड़ताल पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है। यह आंदोलन स्वतःस्फूर्त उभरा है। गिग इकॉनमी में अनिश्चितता इतनी अधिक है कि यहां पर यूनियन बनाना भी अपने आप में एक टेढ़ी खीर है। यहां पर कंपनी ने नए गिग वर्कर्स के लिए 15 रूपये प्रति डिलीवरी को प्रस्तावित किया है, जबकि मार्च से पहले के कर्मचारियों के लिए 25 रूपये प्रति डिलीवरी की ही व्यवस्था है”।

अभिषेक आगे कहते हैं कि “यहां पर अजीबोगरीब स्थिति यह हुई है कि कम मेहनताना पाने वाले नए लोग इस प्रस्ताव को स्वीकार रहे हैं, और किसी तरह भी कुछ भी पाने की आस में ज्वाइन कर रहे हैं। लेकिन पुराने कर्मचारी इस बात से आतंकित हैं कि जल्द ही 15 रूपये प्रति डिलीवरी को उनके ऊपर भी लागू कर दिया जायेगा, या उन्हें निकाल बाहर कर दिया जायेगा।”

इस संबंध में उनके यूनियन ने दिल्ली सरकार के श्रम मंत्री से भी कई बार मुलाक़ात के लिए समय मांगा, लेकिन वे कोई न कोई बहाना बनाकर इस बैठक को टाल रहे हैं। श्रम मंत्री राज कुमार आनंद से यूनियन एक बार फिर से मुलाकात कर इस मुद्दे पर सार्थक हल की तलाश में प्रयासरत है। 

(रविंद्र पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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