बजट 2025: ‘मां लक्ष्मी’ ने आधी-अधूरी ही सुनी मोदी की प्रार्थना!

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आम बजट 2025-26 के पेश होने से एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य वर्ग और गरीबों के लिए ‘मां लक्ष्मी से प्रार्थना’ की थी। बजट पेश होने के बाद पहली नज़र यह लगता है कि ‘मां लक्ष्मी’ ने मध्य वर्ग के बारे में तो उनकी सुन ली, लेकिन उससे नीचे के तबकों पर ‘मां लक्ष्मी’ की कृपा नहीं हो सकी है।

बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने ये अहम एलान किया कि नई आय कर प्रणाली के तहत रिटर्न फाइल करने वाले लोगों की 12 लाख रुपये तक की आमदनी अब टैक्स फ्री होगी। 75 रुपये के स्टैंडर्ड डिडक्शन को शामिल कर नौकरीपेशा लोगों की 12.75 लाख रुपये तक कमाने वाले वेतन भोगी लोगों की आय अब इनकम टैक्स फ्री हो जाएगी। (https://www.moneycontrol.com/news/india/no-tax-up-to-rs-12-lakh-but-what-if-your-income-exceeds-this-limit-here-s-how-much-you-will-save-12926602.html)

बजट में इसी “बड़ी” पहल के आधार पर सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था को संभालने की मंशा संजोयी गई है। सोच यह है कि इस पहल से नौकरीपेशा एवं अन्य शहरी वर्गों के हाथ में उनकी आमदनी का अधिक हिस्सा बचेगा, तो वे उसे उपभोग पर खर्च करेंगे। इससे बाजार में मांग बढ़ेगी, तो कंपनियां अधिक उत्पादन के लिए नए निवेश करने को प्रेरित होंगी। इससे इस सेक्टर में रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। नए लोगों को रोजगार मिलेगा, तो वे भी अपने उपभोग से अर्थव्यवस्था के चक्र को गति प्रदान करेंगे।

इस कहानी की असल हकीकत क्या है या आगे क्या हो सकती है; आइए, इसे समझने कोशिश करें। वित्त वर्ष 2024-25 तो अभी जारी है, इसलिए हम 2023-24 के आंकड़ों पर ध्यान देते हैं। उस वर्ष आय कर रिटर्न फाइल करने वाले लोगों की कुल संख्या 8.09 करोड़ (यानी भारत की कुल आबादी का 6.68 प्रतिशत) रही। उनमें से 4.90 करोड़ शून्य रिटर्न थे। यानी इतने लोगों की आय इनकम टैक्स दायरे से बाहर थी, इसलिए उन्होंने कोई टैक्स नहीं दिया। तो वास्तव में कुल आय कर दाता लगभग सवा तीन करोड़ लोग रहे। (https://www.thehindu.com/news/national/only-668-pc-of-population-filed-income-tax-return-in-2023-24-fiscal/article68995500.ece)

तो असल में नई कर रियायतों का लाभ इन्हीं लोगों को मिलेगा। लाभ कितना होगा, यह भी गौरतलब है। एक गणना के मुताबिक,

  • आठ लाख रुपये सालाना तक तनख्वाह वाले लोगों को हर साल 30 हजार रुपये की बचत होगी।
  • नौ लाख रुपये तक की आमदनी वाले लोगों के हाथ में हर साल 40 हजार बचेंगे।
  • 10 लाख रुपये तक की आय वाले लोगों को 50 हजार रुपये का फायदा होगा, और
  • 12 लाख तक वेतन वाले लोगों को सालाना 80 रुपये का लाभ होगा।
  • इससे ज्यादा की आय वाले लोगों पर आय कर का नया स्लैब लागू होगा। फिर भी उनके हाथ में अधिक रकम बचेगी।

(https://x.com/moneycontrolcom/status/1885616000433037564?t=jAXwXBLmQy1OqfD734NnQQ&s=03)

इसे देखने का एक दूसरा कोण सरकार की तरफ से प्रत्यक्ष करों में दी गई छूट की कुल रकम है। यह रकम एक लाख करोड़ रुपये बताई गई है। यानी मध्य वर्ग के हाथ में कुल इतनी अतिरिक्त रकम देकर मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था को उसके मौजूदा दुश्चक्र से निकलने की पहल की है। दुश्चक्र रोजगार, उपभोग, मांग और उसके परिणामस्वरूप निजी निवेश में तेज होती गई गिरावट का है। ये गिरावट अब जीडीपी के आंकड़ों में भी झलकने लगी है।

तीन बातें गौरतलब हैः

  • कोरोना काल के बाद लोगों पर महंगाई- खासकर खाद्य पदार्थों से सहित रोजमर्रा की जरूरत वाली चीजों की महंगाई- की तीखी मार पड़ी है।
  • इस बीच, खुद केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन कह चुके हैं कि कॉरपोरेट मुनाफा रिकॉर्ड सीमा पर होने के बावजूद कंपनियों ने कर्मचारियों की तनख्वाह में पर्याप्त बढ़ोतरी नहीं की है।
  • निजी निवेश ना होने के कारण अच्छी सैलरी वाले रोजगार पैदा नहीं हुए हैं, नतीजतन बेरोजगारी विकराल समस्या बन गई है। इससे आम परिवारों की माली हालत बिगड़ी है। इसका सबूत रिकॉर्ड सीमा तक गिरी घरेलू बचत दर और आम परिवारों पर रिकॉर्ड सीमा तक चढ़ा कर्ज है।  

ये तीनों पहलू उपभोग और मांग में आई गिरावट का प्रमुख कारण हैं। उन कारणों को दूर करने की कोई पहल किए बिना सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये की टैक्स छूट देकर सूरत को संभालने की कोशिश की है, तो इसके कितना कामयाब होने की संभावना है, इसे आसानी से समझा जा सकता है।

वैसे, वित्त मंत्री ने फिर भी थोड़ी रहम दिखाई है। वरना, उनके मुख्य आर्थिक सलाहकार नागेश्वरन ने चालू वित्त वर्ष की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट संसद में पेश होने के बाद अपनी प्रेस कांफ्रेंस में उपभोग संभालने की सारी जिम्मेदारी निजी क्षेत्र पर डाल दी थी। शुक्रवार को जब उनसे इस बारे में सवाल पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि कंपनियां अपना निवेश बढ़ाएं, नए लोगों को रोजगार दें, और कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ाएं, तो खुद ही उपभोग बढ़ेगा, जिससे उनके उत्पादों की मांग भी बढ़ेगी। मगर जब कंपनियों का मुनाफा बिना ऐसा श्रमसाध्य प्रयास किए ही रिकॉर्ड सीमा पर है, तो वे ऐसा क्यों करेंगी, इसे बताने की जरूरत नागेश्वरन ने नहीं समझी।   

गरीबों के लिए प्रधानमंत्री की प्रार्थना ‘मां लक्ष्मी’ ने नहीं सुनी, इसका प्रमाण महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना है, जिसके लिए बजट में वित्त मंत्री ने कोई बढ़ोतरी नहीं की है। इसे पिछले साल की तरह 86 हजार करोड़ रुपये पर बनाए रखा गया है। जबकि मनरेगा में काम की मांग गुजरे वर्षों में बढ़ती चली गई है।

ग्रामीण और कृषि क्षेत्र के बारे में बाकी तमाम घोषणाओं को ‘रूटीन’ मान कर छोड़ा जा सकता है। कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने और उसके माध्यम से वहां आय एवं जीवन स्तर बढ़ाने की बातें नई नहीं हैं, और ना ही उसके लिए घोषित होने वाली योजनाएं। असल सवाल है कि क्या यह क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता में है? अगर ऐसा होता, तो सरकार वर्षों से आंदोलन चला रहे किसानों की मांगों पर सहानुभूति से सोचती और उन्हें पूरा करने की दिशा में कुछ प्रयास करती दिखती।

ग्रामीण क्षेत्र में उपभोग बढ़ने के दिए जाने वाले आंकड़े दरअसल पांच किलोग्राम मुफ्त अनाज और प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण की योजनाओं का नतीजा हैं। मगर, उनसे अर्थव्यवस्था के संभलने की आस जोड़ना अति-आशावाद ही होगा।

दरअसल, वार्षिक बजट से अर्थव्यवस्था को संभालने के उपायों की उम्मीद का भी कोई आधार नहीं होता। ऐसी आशाएं कृत्रिम रूप से कॉरपोरेट मीडिया पैदा करता है। वरना, अर्थव्यवस्था की दिशा जिस सोच और उद्देश्य से तय कर दी गई होती है, बजट सिर्फ उसके लिए वार्षिक आय-व्यय के ब्योरे के अलावा कुछ और नहीं होता। अर्थव्यवस्था की दिशा में सरकार की अपनी विचारधारा एवं राजनीतिक प्राथमिकताओं से तय होती है। वर्तमान सरकार की जो प्राथमिकताएं हैं, उनकी वजह से ही अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त हुई है।

यह बजट भी उन्हीं प्राथमिकताओं के मुताबिक बना है। इसके जरिए निजीकरण, और निजी घरानों के हाथ में सार्वजनिक धन एवं संसाधनों का हस्तांतरण, और अर्थव्यवस्था के अधिक वित्तीयकरण के रास्ते और साफ किए गए हैं। वित्त, बीमा और रियल एस्टेट सेक्टर्स के लिए अनुकूल घोषणाओं से बजट भरा पड़ा है। उन व्यापार के लिए भी बाजार की जरूरत होती है। तो तीन-साढ़े तीन करोड़ करोड़ लोगों की वास्तविक आय बढ़ाने की कोशिश बजट में हुई है। लेकिन यह नाकाफी है।  

सरकार की जो आय होती है, उसके खर्च का ज्यादातर हिस्सा पहले से तय होता है। उसके बीच इतनी गुंजाइश नहीं होती कि किसी एक बजट में आमूल बदलाव की शुरुआत कर दी जाए। जैसे, ताजा बजट पर ही ध्यान दें। इस वर्ष सरकार ने 50 लाख 63 हजार करोड़ रुपये खर्च का अनुमान लगाया है। इनमें से सरकार किन मदों में कितना पैसा खर्च करने जा रही है, उसे देखना महत्त्वपूर्ण होगाः

  • लिए गए ऋण पर ब्याज चुकाने में 20%
  • कर एवं शुल्कों में से राज्यों का हिस्सा देने में 22%
  • रक्षा खर्च 8%
  • सब्सिडी (खाद्य, उर्वरक, ईंधन आदि) पर 6%
  • वित्त आयोग द्वारा तय एवं अनुदानों पर 8%
  • पेंशन पर 4%
  • केंद्र प्रायोजित योजनाओं पर 8%
  • केंद्र की अपनी योजनाओं पर 16%
  • अन्य मिश्रित खर्च पर 8%

इनमें कुछ ही खर्चे ऐसे हैं, जिनमें सरकार बचत कर सकती है। वरना, 80 से 85 फीसदी हिस्सा फिक्स्ड खर्च की श्रेणी में आता है।

इन खर्चों को जुटाने के लिए सरकार को चालू वित्त वर्ष की तुलना में अगले वित्त वर्ष में अधिक कर्ज लेने होंगे। इस वित्त वर्ष में केंद्र ने लगभग 13 लाख 61 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त ऋण लिया। अगले वित्त वर्ष में वित्त मंत्री ने ऋण के जरिए 14 लाख 82 हजार करोड़ रुपये जुटाने का इरादा जताया है। इसके बावजूद सकल घरेलू उत्पाद 4.4 प्रतिशत के बराबर राजकोषीय घाटा रह जाएगा। इस सिलसिले में यह भी गौरतलब है कि 2024-25 में सरकार को हुई कुल आय का 19 प्रतिशत हिस्सा ब्याज चुकाने में गया। अगले वर्ष ये रकम 20 फीसदी बताई गई है।

ऋण और ब्याज का पहलू इसलिए गौरतलब है कि इसके बढ़ने के साथ-साथ सरकार के हाथ बंधते चले जाते हैं। इस बीच नव-उदारवादी नजरिए के तहत राजकोषीय घाटा कम करने का भी दबाव रहता है। उसका कुल नतीजा है कि सरकार के पास अर्थव्यवस्था में आम जन को राहत देने या उपभोग बढ़ाने के लिए सार्थक हस्तक्षेप करने की गुंजाइशें सीमित होती चली गई हैँ।

ऐसे में वेतन भोगी तबकों को एक लाख करोड़ रुपये की राहत देकर सरकार ने ऐसी धारणा बनाने की कोशिश की है कि आर्थिक क्षेत्र में सघन हो रही मायूसी को टालने के लिए वह तत्पर है। दरअसल, इस कदम से संभावित परिणामों को आधार बना कर वित्त मंत्री ने बजट के अन्य अहम आंकड़े भी बुन लिए हैं। उनमें 2025-26 के लिए राजकोष में आय के महत्त्वाकांक्षी आंकड़े भी शामिल हैं। बजट में कहा गया है कि अगले वित्त वर्ष में सरकार को कर वसूली से 28.37 करोड़ रुपये की आमदनी होगी, जो मौजूदा वित्त वर्ष से 11 फीसदी ज्यादा है। ऐसे इसलिए होगा, क्योंकि विभिन्न कर श्रेणियों में अधिक वसूली हो पाएगी।

मसलन, कॉरपोरेट टैक्स से 10.82 करोड़ (10 प्रतिशत ज्यादा), और व्यक्तिगत आय कर से 14.38 करोड़ (14 प्रतिशत अधिक) आमदनी होगी। ये टैक्स आमदनियां बढ़ने का अनुमान इस उम्मीद पर लगाया गया है कि अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ने से कॉरपोरेट्स का मुनाफा बढ़ेगा, जिससे अर्थव्यवस्था में आई गति के कारण लोगों की व्यक्तिगत आय बढ़ेगी। इसी कारण जीएसटी की वसूली भी बढ़ेगी। इस मद से 11.78 करोड़ रुपये की वसूली का अंदाजा लगाया गया है, जबकि (मौजूदा वित्त वर्ष में ये रकम 10.61 करोड़ रहने का अनुमान हैं।

मगर फिलहाल जो हालात हैं, उनमें ये संभावनाएं अति आशावादी ही मालूम पड़ती हैं। हां, महंगाई का स्तर ऊंचा बना रहा हो, तो जीएसटी वसूली का लक्ष्य बेशक पूरा हो सकता है, लेकिन असल सवाल प्रत्यक्ष करों की वसूली का है। इसीलिए फिलहाल राजकोषीय घाटे के 4.4 प्रतिशत सीमित रहने का अनुमान यथार्थवादी नहीं लगता। हां, अगर सरकार ने लक्ष्य से ज्यादा ऋण लिया, तो बात अलग है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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