तमिलनाडु की गुम्मीडुपुंडी के शरणार्थी शिविरों में रहने वाले तीन हजार तमिल मूल के श्रीलंकाई निवासियों में से एक दर्शिनी, उम्र 34 साल, इन दिनों बेहद दुखी हैं। उन्हें उम्मीद थी कि भारत सरकार उनके जैसे हजारों लोगों को नागरिकता अधिकार प्रदान करने के बारे में अधिक सहानुभूतिपूर्व ढंग से सोचेगी, जो तीन दशक से अधिक समय से भारत में रह रहे हैं।
किसी ने दर्शिनी को बताया था कि संसद के पटल पर नागरिकता के नए पैमाने पर बात होने वाली है और एक नया कानून बनने जा रहा है। नागरिकता संशोधन विधेयक- जिस पर संसद के दोनों सदनों की मुहर लगी है और जिसे राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिली है – के अब कानून बनने के बाद उसकी सारी उम्मीदें टूट गयी हैं।
अब वह जानती हैं कि उन तमाम लोगों की तरह – जो शरणार्थी की तरह यहां रह रहे हैं – उसे भी निकाले जाने के डर के साये में हमेशा रहना पड़ेगा।
आखिर ऐसा क्यों और कैसे हुआ कि एक ऐसा विधेयक जो अपने घोषित उद्देश्यों में ‘समावेशी’ दिखता है, उसने दर्शिनी जैसे हजारों लोगों को निराश किया, जिन्हें कई दशक पहले उत्पीड़न के चलते ही अपना मुल्क छोड़ना पड़ा था। याद करें कि एक मोटे अनुमान के हिसाब से फिलवक्त़ अकेले तमिलनाडु में ‘‘आधिकारिक तौर पर एक सौ सात से अधिक शरणार्थी शिविर बने हैं जिनमें 65 हजार से अधिक श्रीलंकाई तमिल रहते हैं’’
और गिने चुने लोगों को छोड़ दें तो अधिकतर यहीं के नागरिक बनना चाहेंगे। वैसे कुल तमिल शरणार्थियों की संख्या इनसे अधिक ज्यादा होगी।
दर्शिनी ने अपनी मां एवं अन्य परिवारजनों के साथ श्रीलंका तब छोड़ा था जब वह बमुश्किल पांच साल की थीं। उसे अभी भी याद है कि किस तरह उन्हें उसके पिताजी की मौत की ख़बर मिली थी और यह समाचार भी मिला था कि सिंहला वर्चस्ववाले सैन्य बल उनकी बस्ती पर हमला करने वाले हैं। वापस जाने में उसे अभी भी डर लगता है क्योंकि भले ही आधिकारिक तौर पर चीजें सामान्य हों, लेकिन जमीनी रिपोर्टें जो आ रही हैं, वह उत्साहित करने वाली नहीं हैं।
प्रस्तुत कानून की मनमानी महज इस बात तक सीमित नहीं है कि उसने दशकों से यहां पड़े तमिल शरणार्थियों को इसके दायरे से बाहर रखा है – जिनका बहुलांश तमिल हिन्दुओं का है- या बिल के दायरे से ही श्रीलंका को बाहर रखा है बल्कि अपने फोकस को महज तीन मुस्लिम बहुल देशों – पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांगलादेश तक ही सीमित रखा है। मौजूदा सरकार को इस हक़ीकत से फर्क नहीं पड़ता कि भारत भूटान, म्यानमार, नेपाल और श्रीलंका तथा अन्य देशों से सीमा साझा करता है और यह बात भी विदित है कि इनमें से कई मुल्कों के अल्पसंख्यक उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं। मिसाल के तौर पर पाकिस्तान के अहमदिया और हजारा समुदायों को झेलना पड़ता है उत्पीड़न और बांगलादेश के बिहारी मुसलमानों की प्रताड़ना किसी से छिपी नहीं है और म्यानमार के रोहिंग्या अल्पसंख्यक तो संयुक्त राष्ट्रसंघ के मुताबिक ‘दुनिया की सबसे प्रताड़ित अल्पसंख्यक हैं’ जिन्हें अपने मुल्क में सुनियोजित उत्पीड़न झेलना पड़ रहा है।
इस ‘धर्मांध कानून के वापस लिए जाने की’ मांग करते हुए प्रस्तुत कानून पर एमनेस्टी इंटरनेशनल – जो अंतरराष्ट्रीय स्तर का मानवाधिकार संगठन है – ने अपनी राय को उजागर की है, वह काबिलेगौर है। उसके मुताबिक यह कानून ‘‘ वर्ष 1955 के भारत के नागरिकता अधिनियम को संशोधित करता है और अनियमित प्रवासियों के ‘नेचुरलायजेशन’ और पंजीकरण के माध्यम से भारतीय नागरिकत्व हासिल करने का रास्ता सुगम करता है। हालांक वह इसे सिर्फ हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैन, पारसियों और ईसाइयों तक सीमित करता है, जो अफगाणिस्तान, बांगलादेश और पाकिस्तान से 31 दिसम्बर 2014 के पहले यहां पहुंचे हैं। इन तीनों मुल्कों से आने वाले इन विशिष्ट समुदायों के लिए – जिनमें मुस्लिम शामिल नहीं हैं – इस कानून के तहत नेचुरलायजेशन अर्थात वह कालावधि जब आप इस इलाके से, समाज एवं संस्कृति से अधिक परिचित होते जाते हैं कि कालावधि को 11 साल से 5 साल तक सीमित कर दिया गया है।
मालूम हो कि इस कानून को चौतरफा आलोचना झेलना पड़ी है। यह भी कहा जा रहा है कि मानवीयता के नाम पर यह कानून किस तरह संविधान को ही उलट देता है जबकि वह धार्मिक आधार पर वापसी का या नागरिकता प्रदान करने का रास्ता सुगम करता है। रेखांकित करने वाली बात है कि इस्राइल, कोरिया /दक्षिण और उत्तर दोनों/ और चन्द अन्य मुल्कों को छोड़ दें तो भारत के संविधान और कानून ने धार्मिक आधार पर किसी को अपने आप नागरिकता देने का अधिकार किसी मुल्क में नहीं हैं। यह पहली दफा है कि धार्मिक आधार पर वापसी को सुगम बनाया गया है। अब संसद के दोनों सदनों में बहुमत के आधार पर सत्ताधारी पार्टी इसे कानून बनाने में सफल हुई है, लेकिन यह कानून संविधान की सेक्युलर बुनियाद की जड़ खोदता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस कानून को ‘‘बुनियादी तौर पर भेदभावजनक’
कहा है और इस बात को रेखांकित किया है कि किस तरह भारत के संविधान में शामिल समानता के प्रति प्रतिबद्धता को वह कमजोर कर देगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह कानून ‘इंटरनेशनल कवेनन्ट आन सिविल एण्ड पोलिटिकल राइट्स और कन्वेन्शन फार द एलिमिनेशन आफ रेशियल डिस्क्रिमिनेशन’ जिसके प्रति भारत सरकार खुद वचनबद्ध होने का दावा करती आयी है, उस पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करता है।
हमें इस बात को नोट करना चाहिए इस कानून को बनाते वक्त़ सरकार ने इस तथ्य पर भी विचार नहीं किया है कि महज बारह महीने पहले ही उसने ग्लोबल कम्पक्ट फार सेफ, रेग्युलर एण्ड आडरली माइग्रेशन पर अपने दस्तखत किए हैं। इस काम्पेक्ट का फोकस यह है कि सरकारें संकट की स्थितियों में आप्रवासियों की जरूरतों पर गौर करें, उन्हें मनमाने ढंग से हिरासत में लेने से बचें और इस बात को सुनिश्चित करें कि आप्रवासियों के प्रशासन के सभी कदम मानवाधिकार केन्द्रित हों।
गौरतलब है कि जहां बिल को प्रस्तुत करते वक्त़ ‘धार्मिक उत्पीड़न’ की बात की गयी थी, मगर संसद द्वारा पारित बिल में ऐसे किसी शब्द का इस्तेमाल नहीं है। आखिर यह विरोधाभास क्यों है ?
बिल प्रस्तुत करने की इतनी हड़बड़ी में सरकार रही है कि उसने उन तथ्यों को संग्रहीत करना या साझा करना भी मुनासिब नहीं समझा कि आखिर विगत कुछ सालों से इन तीन पड़ोसी मुस्लिम बहुल देशों से कितने लोग ‘पीड़ित’ के तौर पर यहां आए। दूसरे, इस सम्भावना पर भी गौर नहीं किया गया कि अगर यह बिल कानून बना तो मुस्लिम बहुल देशों के अल्पसंख्यकों पर इसका क्या असर पड़ेगा, किस तरह उन्हें हमेशा सन्देह के निगाहों से देखा जाएगा।
सरकार द्वारा प्रदर्शित इस हड़बड़ी ने वाकई कई अहम सवालों को जन्म दिया है।
दरअसल इसके पीछे भाजपा सरकार की यह फौरी बदहवासी भी दिखती है जिसके तहत वह असम में चली एनआरसी की कवायद के नतीजों से उसके वोट बैंक को हो रहे नुकसान से बचना चाहती रही है। याद रहे कि नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की चली लम्बी कवायद में असम के 19 लाख नागरिकों को ‘अवैध’ घोषित किया जा चुका है और भाजपा की उम्मीदों के विपरीत इस संख्या में मुसलमानों की तादाद महज 5 लाख है और बाकी 14 लाख हिन्दू हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नागरिकता संशोधन विधेयक पेश करने के पहले से ही असम की सत्ताधारी पार्टी के अग्रणी सदस्य ऐसे बयान देते रहे हैं कि जो हिन्दू ‘अवैध’ घोषित किए जा चुके हैं, उन्हें चिन्ता करने की जरूरत नहीं क्योंकि हम यह विधेयक ला रहे हैं।
इस नए विधेयक/कानून की महज शाब्दिक भर्त्सना नहीं की गयी है बल्कि पूरे देश के पैमाने पर इसके खिलाफ व्यापक प्रतिरोध उठ खड़ा हआ है। कई स्थानों पर लोगों के विरोध प्रदर्शनों ने उग्र रूप भी धारण किया है। कई सारी गैरभाजपा सरकारों ने – तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम, कांग्रेस तथा अन्य ने ऐलान किया है कि वह अपने राज्य में इस कानून को लागू नहीं करेंगे। इस कानून को लेकर सबसे उग्र विरोध उत्तरी पूर्व के राज्यों में दिखाई दिया है, यह अकारण नहीं कि वहां की इंटरनेट सेवाएं अभी पूरी तरह से बहाल नहीं हुई हैं।
यह भारत की विविधता एवं बहुलता का परिचायक है कि इस विरोध ने बहुरंगी रूप धारण किया है। जहां उत्तर पूर्व की जनता इस विधेयक को उनकी भाषा और संस्कृति पर हमला समझते हैं, सुदूर दक्षिण में यह विरोध दिल्ली शासकों के खिलाफ द्रविड भावना को प्रतिबिम्बित करता दिख रहा है। मुल्क के बाकी हिस्सों में इस कानून को मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के उपकरण के तौर पर देखा जा रहा है, जिसके तहत भारत को हिन्दू राष्ट्र के रूप में ढालने के सावरकर-गोलवलकर के सपनों को साकार करने की बात हो रही है।
फिलवक्त़ यह कहना मुश्किल है कि भाजपा-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस बात का अनुमान लगाया था या नहीं कि विरोध इतनी व्यापकता एवं विविधता हासिल करेगा – यहां तक कि उसकी अपनी सहयोगी पार्टियों के सुर भी अचानक बदलते दिखेंगे, असम में उसकी सहयोगी पार्टी असम गण परिषद इस कानून के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय जाने का ऐलान करेगी या जनता दल यू कहेगी कि वह बिहार राज्य में एनआरसी अर्थात नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की कवायद का विरोध करेगी – मगर उन्होंने इस बात का बखूबी आकलन किया है कि इस कानून से उनके वोटबैंक में ‘डेढ़ करोड़ की बढ़ोत्तरी होगी’
अब इस अनुमान का आधार जो भी हो उन्होंने अपने स्तर पर इतना तो तय किया है कि इस कानून के फायदे समझाने के लिए वह देश भर में अभियान चलाएंगे।
यह सवाल उठना लाजिमी है कि मोदी-शाह हुकूमत ने आखिर इस बिल का फोकस तीन पड़ोसी मुस्लिम बहुल मुल्कों पर ही क्यों रखा और क्यों इसमें अन्य पड़ोसी मुल्कों को शामिल नहीं किया ? मालूम हो कि श्रीलंका और म्यानमार जैसे उसके दो पड़ोसी देशों में बौद्ध उग्रवादी ताकतों के तहत किस तरह गैरबौद्धों पर हमले होते रहे हैं- फिर वह चाहे मुसलमान हों, ईसाई हों या हिन्दू हों – यह बात सर्वविदित है। इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त़ म्यानमार की सुप्रीम लीडर हेग में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा संचालित इंटरनेशनल कोर्ट आफ जस्टिस अर्थात अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के सामने देश के रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही ज्यादतियों को लेकर सफाई देने पहुंची हैं।
गाम्बिया जैसे एक छोटे से अफ्रीकी मुल्क ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के सामने यह याचिका लगायी है कि रोहिंग्याओं के जनसंहार को लेकर म्यानमार सरकार के खिलाफ कार्रवाई हो। क्या इसकी वजह महज यह है कि भारत सरकार न केवल म्यानमार सरकार बल्कि श्रीलंकाई सरकार के साथ अपने सम्बन्ध बेहतर बनाना चाहती है और वह ऐसा कोई विवादास्पद मुददा उठाना नहीं चाहती जिससे इस मुल्क के शासक नाराज हों।
अभी पिछले ही साल प्रधानमंत्री मोदी ने म्यानमार का दौरा किया था और दौरे के अन्त में जारी संयुक्त वक्तव्य में जिस पर मोदी और आंग सान सू की ने दस्तख़त किए थे जिसमें कहीं से भी रोहिंग्या के नस्लीय शुद्धीकरण की मुहिम का कोई जिक्र था, वक्तव्य में आत्मरक्षा के लिए रोहिंग्या लोगों के एक हिस्से द्वारा की जा रही आत्मरक्षात्मक कार्रवाइयों को ‘आतंकवादी’ करार देते हुए चिन्ता प्रगट की गयी थी। हम यह भी देख सकते हैं कि मोदी सरकार ने श्रीलंका में नवनिर्वाचित गोटोबाया राजपक्षे की सरकार के साथ बेहतर रिश्ते कायम करने के लिए कैसे अत्यधिक तत्परता दिखाई थी। यह इसके बावजूद कि गोटोबाया राजपक्षे पर खुद तमिल विद्रोहियों के दमन की अगुआई करने के दौरान अंजाम दिए गए मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर जांच चल रही है। ;
यह बात भी समाचारों में पहले ही प्रकाशित हो चुकी है कि किस तरह हिन्दुत्ववादी नेताओं ने इन दोनों मुल्कों में बौद्ध उग्रवादियों , जिनकी अगुआई म्यानमार में विराथू की अगुआई वाला ग्रुप 969 तो श्रीलंका में बोडु बाला सेना कर रही है, की बढ़ती सक्रियताओं को लेकर, जिन पर मुस्लिम विरोधी हिंसा को अंजाम देने के आरोप लगते रहे हैं, तारीफ करते हुए लिखा है। और इन दोनों बौद्ध उग्रवादी संगठनों की तरफ से यह बात भी प्रसारित की जा चुकी है कि किस तरह वह भारत के हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतों के सम्पर्क में रहे हैं और किस तरह वह मिल कर दक्षिण एशिया को ‘‘हिन्दू बौद्ध पीस ज़ोन अर्थात हिन्दू बौद्ध अमन का इलाका’ बनाना चाहते हैं, ताकि वह ‘साझा दुश्मन’ अर्थात मुसलमानों के खिलाफ गोलबन्दी को मजबूत कर सकें। ; क्या बिल से श्रीलंका एवं म्यानमार को बाहर रखने के पीछे दक्षिण एशिया को ‘अमन का इलाका’ बनाने के प्रस्ताव के प्रति संघ-भाजपा का मौन समर्थन प्रतिबिम्बित होता दिखता है ?
मगर यह बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण लगती है कि इस सीमित फोकस के बहाने संघ-भाजपा अपने ‘अखंड भारत’ की संकल्पना’ को ही तथा भारत को हिन्दू राष्ट्र क्यों बनना चाहिए इसी बात को सम्प्रेषित करना चाहते रहे हैं। ध्यान रहे कि हिन्दुत्व दक्षिणपंथ के लिए अखंड भारत में आज का अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांगलादेश शामिल रहे हैं और जाहिर है कि इस ‘अखंड भारत’ पर उनका दावा इस कानून के जरिए कम से कम ठोका तो जा सकता है, भले ही इसके लिए संविधान के सिद्धांतों और मूल्यों को सर के बल खड़ा करना पड़े।
(सुभाष गाताडे वरिष्ठ लेखक और चिंतक हैं आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)
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