जब तहज़ीब की पेशानी राख होने लगे- एक अदबी इंक़लाब की पुकार

विरोध एक हक़ है, और हक़ अदा करना इबादत है।

मगर जब इबादत में हुजूम का शोर घुल जाए, और हक़ की सदा में आग का अलाव सुलगने लगे – तो फिर दुआ नहीं, बद्दुआ बरसने लगती है।

हक़ तलवार नहीं, तहरीर मांगता है।

इख़्तिलाफ़ पत्थर से नहीं, इल्म से पेश किया जाता है।

मुर्शिदाबाद की वो सड़कें जो कभी तहज़ीब की सैरगाह हुआ करती थीं, आज लपटों से पूछ रही हैं –

“क्या मेरा क़ुसूर सिर्फ़ इतना था कि मैंने तुम्हारे क़दमों को सहारा दिया?”

भाइयों, बेटों, रहनुमाओं – हम इस वक़्त एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां हमारी एक लरज़ती चीख़, मुल्क के दूसरे कोने में किसी मासूम की क़ब्र खोद सकती है।

हमारी एक जलती हुई सड़क, किसी बेगुनाह के घर को मलबा बना सकती है। हमारी एक ग़लती, किसी क़ाबिल नौजवान के लिए रोज़गार के दरवाज़े बंद कर सकती है।

हुकूमत को आपके सवालों से डर नहीं लगता – वो आपकी बेवक़ूफ़ियों से फायदा उठाती है। आपकी एक तस्वीर – जिसमें आप पत्थर उठाए खड़े हैं – उन्हें वो सबूत दे देती है जिसकी उन्हें तलाश होती है।

एक ट्वीट, एक वीडियो, एक झूठी रिपोर्ट – और फिर FIR, गिरफ़्तारी, मुनाफ़िक़ी का ठप्पा और पूरी मिल्लत सवालों के घेरे में।

क्या आप भूल गए कि जब आप चिल्लाते हैं,

तो कैमरे आपका मक़सद नहीं, सिर्फ़ आपकी चीख़ दिखाते हैं? जब आप मार्च करते हैं,

तो अख़बार आपके दर्द को नहीं, आपके क़दमों की आवाज़ को ‘उपद्रव’ कहकर छापते हैं।

जब आप सड़कों पर आते हैं,

तो अदालतें नहीं, एंकर चीख़ते हैं –

“देखिए, यही हैं वो जो अमन के दुश्मन हैं…”

मगर आप दुश्मन नहीं हैं – आप वो लोग हैं जिनके बुज़ुर्गों ने इस ज़मीन को दुआओं से सींचा है।

आप वो हैं जिन्होंने मस्जिदों से पहले मदरसे बनाए,

ताकि क़लम पहले चले, तलवार बाद में।

आपकी तहज़ीब में ताज नहीं, तक़वा था।

आपकी पहचान में चीख़ नहीं, चिराग़ था।

तो फिर आज आप किसके कहने पर अपनी ही मिट्टी को जलाने पर आमादा हैं?

हमें सड़कों पर ज़रूर निकलना है,

मगर नफ़रत के नारे लेकर नहीं – मोहब्बत के इरादे लेकर।

हमें विरोध ज़रूर करना है,

मगर वो विरोध ऐसा हो कि जब कोई हमें सुने, तो अपना सर झुका ले –

क्योंकि हमारे अल्फ़ाज़ में तल्ख़ी नहीं, तामीर हो।

आज वक़्फ़ की ज़मीनें हमारी मुंतज़िर हैं –

मगर उन्हें बचाने के लिए हमें अपनी तहज़ीब की छत को गिरवी नहीं रखना।

आज हमारी मीरास पर दस्तक है –

मगर दरवाज़ा खोलने से पहले हमें देखना होगा कि कौन दस्तक दे रहा है –

हमारा ज़मीर या हमारा ग़ुस्सा?

भाइयों,

जब तक हमारी आवाज़ में इल्म नहीं होगा,

हमारा विरोध सिर्फ़ भीड़ रहेगा।

जब तक हमारे रवैये में सलीक़ा नहीं होगा,

हमारी बात सिर्फ़ बवाल समझी जाएगी।

और जब तक हम अपने इख़्तिलाफ़ को अदब की ज़ुबान में नहीं ढालेंगे,

हमारी नाराज़गी सिर्फ़ एक “ख़तरा” मानी जाएगी।

आज हमसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी उस बच्चे पर है

जो दूर कहीं किसी उर्दू स्कूल में अलिफ़, बे, ते सीख रहा है– क्योंकि हमारी एक ग़लती, उसकी पूरी ज़िंदगी का नक़्शा बदल सकती है।

इसलिए उठिए,

मगर रौशनी लेकर – क्योंकि अंधेरे में लड़ने वाला सिर्फ़ रास्ता नहीं खोता, अपना चेहरा भी गुम कर देता है।

चलिए,

मगर उस सलीक़े से कि हम जब बोलें तो ज़माना थम जाए, जब चलें तो तारीख़ भी अपना रास्ता मोड़ ले।

हम वो लोग हैं जिनके खिलाफ़ साज़िशें हैं- मगर हमारे पास दुआएं 

हैं।

हम वो लोग हैं जिन पर ताले लगाए जा रहे हैं- मगर हमारे पास चाबियां हैं।

हम वो लोग हैं जिनकी सूरतें मिट्टी में सनी जा रही हैं- मगर हमारी सीरत अब भी सितारों से बात करती है।

तो आइए,

इस बार विरोध ऐसा हो-

जो इतिहास की किताबों में मिसाल बन जाए,

न कि चार्जशीट में सबूत।

हम शोर से नहीं, शऊर से लड़ेंगे।

हम आग से नहीं, आवाज़ से जीतेंगे।

हम ग़ुस्से से नहीं, गरिमा से सच्चाई को ज़िंदा रखेंगे –

क्योंकि हम वो हैं, जिन्होंने तहज़ीब को विरासत की तरह संभाला है- और अब वक्त है कि हम उसे विरासत की तरह आगे बढ़ाएं।

(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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