महाराष्ट्र की राजनीति में फिर बड़ा खेल होने के आसार

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महाराष्ट्र की राजनीति में जल्दी ही एक बार फिर कुछ बड़ा घटनाक्रम देखने को मिल सकता है। फौरी तौर पर ऐसा लगता है कि वहां भाजपा, एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली शिव सेना और एनसीपी के अजित पवार गुट की साझा सरकार मजे से चल रही है और आगामी लोकसभा व विधानसभा चुनाव भी तीनों मिल कर लड़ेंगे। लेकिन ऐसा नहीं है। सूबे की राजनीति में अभी तूफान से पहले की शांति छायी हुई है और आने वाले कुछ दिनों में सत्ताधारी गठजोड़ के भीतर ही कुछ नई उठापटक हो सकती है।

बताया जा रहा है कि एनसीपी को तोड़ कर उसके एक गुट को अपने पाले में कर लेने के बाद भाजपा इस बात को लेकर आश्वस्त हो गई है कि अगले लोकसभा और विधानसभा चुनाव तक राज्य की सत्ता के सूत्र उसके हाथ में ही रहना हैं, भले ही मुख्यमंत्री कोई भी रहे। एनसीपी को तोड़ कर भाजपा ने शिंदे गुट का वह दबाव भी उतार फेंका है जो उसने केंद्र में अपना मंत्री बनाने और राज्य सरकार में अपने कोटे से कुछ और विधायकों को मंत्रिपरिषद में शामिल करने के लिए बना रखा था। पिछले दिनों मंत्रिपरिषद का विस्तार और नए मंत्रियों को विभागों का वितरण भी भाजपा ने अपनी मर्जी के माफिक कराया था और अब तो उसने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे पर भी दबाव बनाना शुरू कर दिया है।

जानकार सूत्रों के मुताबिक भाजपा ने शिंदे से अपनी पार्टी का भाजपा में विलय करने को कहा है। हालांकि शिंदे और उनकी पार्टी के नेता इसके लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन यह भी कहा जा रहा है कि उनकी पार्टी के कई विधायक और सांसद अपने स्तर पर भाजपा के संपर्क में हैं। ऐसे में अगर शिंदे अपनी पार्टी यानी चुनाव आयोग की ओर से मान्यता प्राप्त असली शिव सेना का विलय भाजपा में नहीं करते हैं तो उनकी पार्टी भी उसी तरह टूट सकती है जैसे उन्होंने उद्धव ठाकरे के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर शिव सेना को तोड़ा था।

गौरतलब है कि शिंदे ने पिछले साल जून में भाजपा की मदद से ही शिव सेना को तोड़ा था और अब उनकी पार्टी भी भाजपा की शह पर ही टूट सकती है और बड़ी संख्या में विधायक व सांसद उनसे अलग हो सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो टूटा हुआ धड़ा पहले नई पार्टी बनाएगा और फिर भाजपा में उसका विलय कर देगा। ऐसी स्थिति में भाजपा के लिए अपना मुख्यमंत्री बनाने का रास्ता भी साफ हो जाएगा।

सूत्रों के मुताबिक भाजपा की ओर से एकनाथ शिंदे को समझाया जा रहा है कि उनके साथ बड़ी संख्या में विधायक और सांसद भले ही आ गए हैं और भले ही चुनाव आयोग ने दलबदल कानून की मनमानी व्याख्या करते हुए दूसरे तमाम मानदंडों को नजरअंदाज कर उनकी पार्टी को असली शिव सेना की मान्यता दे दी है, लेकिन शिव सैनिक उनके साथ नहीं हैं और जनता की नजर में अब भी असली शिव सेना उद्धव ठाकरे वाली ही है। इस सिलसिले में उन्हें बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के विभाजन का उदाहरण भी दिया जा रहा है।

गौरतलब है कि रामविलास पासवान के निधन के बाद बिहार में उनकी लोक जनशक्ति पार्टी टूट गई है और उसके छह में से पांच सांसदों के साथ रामविलास पासवान के भाई पशुपति कुमार पारस अलग हो गए। अब वहां लोक जनशक्ति पार्टी के नाम से दो पार्टियां अस्तित्व में हैं। हालांकि दोनों पार्टियां भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए में हैं लेकिन खुद भाजपा ने असली लोक जनशक्ति पार्टी दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान वाले गुट को ही माना है, क्योंकि उसका मानना है कि लोक जनशक्ति पार्टी का जातीय जनाधार चिराग पासवान के साथ ही है। इसी तरह वह महाराष्ट्र में भी बाल ठाकरे का असली वारिस उद्धव ठाकरे को ही मान रही है। हालांकि उद्धव ठाकरे भाजपा के साथ नहीं है।

इस आधार पर एकनाथ शिंदे को समझाया जा रहा है कि चूंकि मूल शिव सेना का संगठन और जनाधार उनके साथ नहीं है, लिहाजा शिव सेना के चुनाव चिन्ह पर लड़ कर जीतना उनके लिए मुश्किल होगा, लेकिन अगर वे अपनी पार्टी का विलय भाजपा में कर लेते हैं तो भाजपा के चुनाव चिन्ह पर उनके लोगों का जीतना आसान हो जाएगा। भाजपा नेतृत्व को एकनाथ शिंदे की पार्टी के भाजपा में विलय का एक बड़ा फायदा यह दिख रहा है कि इससे शिंदे की शिव सेना का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। यानी सूबे की राजनीति में एक हिंदूवादी पार्टी कम हो जाएगी।

दरअसल भाजपा बहुत दिनों से इस कोशिश में थी कि महाराष्ट्र में उसकी तरह हिंदूवादी राजनीति करने वाली कोई दूसरी पार्टी मजबूत नहीं होने पाए। बहुत मुश्किल से भाजपा ने शिव सेना को तोड़ कर उसे कमजोर किया है और उसे तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी बनाया है। इसलिए वह अपनी ताकत देकर अगले चुनाव में शिंदे गुट को मजबूत नहीं करने वाली है। हालांकि इस राजनीति का एक नुकसान भी भाजपा को है। अगर किसी तरह से एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिव सेना का विलय भाजपा में हो जाता है तो फिर पूरा मैदान उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिव सेना को मिल जाएगा।

अभी ज्यादातर शिव सैनिकों का समर्थन ठाकरे के साथ है लेकिन कुछ इलाकों में शिव सैनिक शिंदे गुट के साथ भी हैं। अगर शिंदे अपनी पार्टी का भाजपा में विलय करते हैं तो उनके समर्थक शिव सैनिक फिर उद्धव के साथ जा सकते हैं। इसके साथ ही कई विधायक और सांसद भी घर वापसी कर सकते हैं। इस तरह ठाकरे परिवार की ताकत बढ़ जाएगी, हालांकि पार्टी का मूल नाम और चुनाव चिन्ह उसे दोबारा नहीं मिल पाएगा।

वैसे अब शिंदे के सामने भाजपा के दबाव के आगे झुकने के अलावा कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि उनके सहित उनके समर्थक 16 विधायकों की योग्यता-अयोग्यता का मामला अभी महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर के पास विचाराधीन है। स्पीकर भाजपा के हैं और अगर उन्होंने शिंदे सहित 16 विधायकों को अयोग्य करार दे दिया तो फिर शिंदे कहीं के नहीं रहेंगे। उन्हें मुख्यमंत्री पद के साथ ही विधानसभा की सदस्यता भी गंवाना पड़ेगी। ऐसी स्थिति में उनकी भाजपा से मोल-भाव करने की रही-सही हैसियत भी लगभग खत्म हो जाएगी। शिंदे अपनी इस स्थिति को समझ रहे हैं और इससे बचने की कोशिश कर रहे हैं। इसी कोशिश के तहत पिछले दिनों उन्होंने अपने परिवार सहित दिल्ली आकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात की। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा एकनाथ शिंदे की पार्टी का अपने में विलय कराती है या उसे स्वतंत्र राजनीति करने देती है?

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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