बायोटेक पर चीन का कब्जा: क्या अमेरिका की बादशाहत खत्म?

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कभी अमेरिका बायोटेक उद्योग का निर्विवाद बादशाह था। कैंसर से लेकर मोटापे तक, हर गंभीर बीमारी के इलाज के लिए दुनिया उसी की ओर देखती थी। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। चीन, जो कभी अमेरिकी शोध और तकनीक का केवल अनुकरण करता था, अब खुद इनोवेशन की दौड़ में आगे निकलने लगा है।

यह औद्योगिक प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि वैश्विक शक्ति संतुलन का संकेत है। अगर अमेरिका संभला नहीं, तो आने वाले वर्षों में दवा उद्योग में उसकी हैसियत वही हो सकती है, जो इलेक्ट्रॉनिक्स और मैन्युफैक्चरिंग में हो चुकी है-पीछे छूट जाना और चीन से आयात पर निर्भर रहना।

सालों से, मर्क की Keytruda दवा कैंसर उपचार में बेजोड़ मानी जाती थी, सालाना 30 बिलियन डॉलर की कमाई वाली यह दवा फार्मा इंडस्ट्री की धुरी थी। लेकिन फिर आया अकेसो-एक चीनी बायोटेक कंपनी, जिसने अपनी दवा Summit Therapeutics को दी। यह दवा सीधे मर्क की Keytruda को टक्कर देने उतरी, और परिणाम चौंकाने वाले थे।

मात्र दो वर्षों में, यह दवा मर्क की ब्लॉकबस्टर दवा से बेहतर साबित हुई। यह महज़ व्यापारिक आंकड़े नहीं थे; यह अमेरिका के लिए स्पष्ट चेतावनी थी कि बायोटेक क्षेत्र में चीन अब पीछे नहीं, बल्कि बराबरी से आगे निकलने की होड़ में है।

साल 2020 में, वैश्विक स्तर पर बायोटेक सौदों में चीन का हिस्सा मात्र 5% था, लेकिन 2024 तक यह लगभग 30% तक पहुंच चुका है। चीन ने जिस तरह से तकनीक क्षेत्र में अमेरिका को टक्कर दी थी, अब वही कहानी बायोटेक में भी दोहराई जा रही है। फर्क बस इतना है कि इस बार अमेरिका के पास समय कम है और खतरा ज्यादा। इसका प्रभाव भारत जैसे देशों पर भी पड़ेगा, जो अब तक दवा निर्माण में मजबूत भूमिका निभाते आए हैं।

भारतीय फार्मा कंपनियां दुनिया के सबसे बड़े जेनेरिक दवा निर्माता रही हैं, लेकिन इनोवेशन के क्षेत्र में वे अब भी पश्चिमी देशों से पीछे हैं। अगर चीन अपनी अनुसंधान क्षमताओं को इसी रफ्तार से बढ़ाता रहा, तो भारत को भी अपनी बायोटेक रणनीति बदलनी होगी। भारत ने कोविड-19 महामारी के दौरान अपनी वैक्सीन क्षमता का लोहा मनवाया, लेकिन बायोटेक स्टार्टअप्स और मूल अनुसंधान के क्षेत्र में चीन से सीखने की जरूरत है।

मोटापे की दवा बाजार में एलि लिली और नोवो नॉर्डिस्क का दबदबा रहा है, लेकिन अब चीन इस क्षेत्र में भी सेंध लगा रहा है। मर्क और एस्ट्राजेनेका जैसी कंपनियां अब सीधे चीन से दवाएं खरीद रही हैं। Hansoh Pharma और Eccogene जैसी चीनी कंपनियों से सौदे हो चुके हैं, जिनमें अरबों डॉलर की संभावना है। यह दिखाता है कि बायोटेक उद्योग अब सिर्फ अमेरिका और यूरोप तक सीमित नहीं है, बल्कि चीन इसका नया केंद्र बनता जा रहा है।

अमेरिकी निवेशकों के लिए यह एक बड़ा संकट है। चीनी प्रतिस्पर्धा के चलते अमेरिकी स्टार्टअप्स की वैल्यूएशन करना मुश्किल हो गया है। इसीलिए पिछले दो वर्षों में S&P Biotech ETF स्थिर बना हुआ है, जबकि S&P 500 में 48% की वृद्धि हुई है। यह दर्शाता है कि निवेशक अब अमेरिकी बायोटेक कंपनियों पर पहले जितना भरोसा नहीं कर रहे।

चीन की इस बढ़त को देखकर अमेरिका की फार्मा कंपनियां भी अब चीन की रणनीति अपनाने को मजबूर हैं। मर्क, जिसने पहले अकेसो की अनदेखी की थी, अब चीन की LaNova Medicines से नई कैंसर दवा खरीद चुका है। सवाल यह है कि क्या अमेरिका इनोवेशन में अपनी बढ़त बनाए रख सकता है, या फिर चीन से मुकाबला करने के लिए उसे भी लागत-कटौती और तेज़ अनुसंधान की रणनीति अपनानी होगी?

भारत के लिए भी यह स्थिति सीखने लायक है। देश में वैज्ञानिक प्रतिभा की कमी नहीं है, लेकिन इनोवेशन को बढ़ावा देने वाली नीतियों और रिसर्च इकोसिस्टम की कमी है। अगर भारत को वैश्विक बायोटेक दौड़ में आगे रहना है, तो सिर्फ दवा निर्माण में नहीं, बल्कि मौलिक शोध में भी निवेश बढ़ाना होगा।

इस प्रतिस्पर्धा का सबसे बड़ा फायदा मरीजों को होगा। उनके लिए यह मायने नहीं रखता कि दवा अमेरिका में बनी हो, चीन में, या भारत में-महत्वपूर्ण यह है कि वह असरदार हो। लेकिन अमेरिकी और भारतीय नीति-निर्माताओं के लिए यह चेतावनी है कि अगर वे अब भी निष्क्रिय रहे, तो बायोटेक में भी वही गति देखी जाएगी, जो अन्य उद्योगों में देखी जा चुकी है। और तब अमेरिका और भारत दोनों को अपनी भूमिका फिर से परिभाषित करनी होगी-अनुसंधान में अगुवा के रूप में या फिर केवल उपभोक्ता के रूप में।

(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणणीकार हैं)

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