रांची। सरकारी बाबुओं और अधिकारियों की संवेदनहीनता और कर्तव्यहीनता के कारण सरकारी योजनाओं का लाभ आमजनों तक नहीं पहुंच पाता है। सरकारी योजनाओं का लाभ आम जनता को दिलाने के नाम पर हर जगह दलालों की एक बड़ा तबका तैयार हो जाता है, जो जरूरतमंद लोगों का प्रखंड कार्यालय वगैरह में काम करवा देने के नाम पर पैसा वसूलते हैं, जिसके हिस्सेदार इन सरकारी कार्यालयों के बाबू व अधिकारी भी होते हैं। ऐसे में आर्थिक कमजोर व गरीब लाचार लोगों को योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है। इन्हीं तमाम कारणों के मद्देनजर झारखंड के 76 से अधिक प्रखंडों में नागरिक सहायता केंद्र की स्थापना की गई है। जिसकी शुरुआत वर्ष 2009 में खूंटी सदर व पलामू के छत्तरपुर और 2010 में लातेहार के मनिका में पायलट नरेगा सहायता केंद्र के रूप से की गई थी।
नागरिक सहायता केंद्र द्वारा ऐसे वंचित परिवारों के कागजात जैसे मृत्यु प्रमाण पत्र, आधार कार्ड, बैंक के खाते, राशन कार्ड, पेंशन के आवेदन, मनरेगा कार्ड, मजदूरी भुगतान, बेरोजगारी भत्ता, पीड़ित विधवा महिलाओं, दिव्यांगों, लाचार बुजुर्ग व अभावग्रस्त परिवारों के सभी सरकारी योजनाओं के काम किए जाते हैं, जिसकी लाभुक परिवार व व्यक्ति को उक्त कागजी कार्यों की कोई जानकारी नहीं होती है।
बताते चलें कि नरेगा भारतीय संसद द्वारा 2 फ़रवरी 2006 को राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम को लागू किया गया, यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार शुरु करने के लिए 2005 में शुरू की गई थी। इस अधिनियम के तहत नरेगा का काम 2006 से 2009 तक दस्तावेजीकरण के रूप में रहा। जैसे मजदूरों को जाॅब कार्ड बनाना हो, काम मांगना हो तो उसके लिए मजदूरों को आवेदन देना पड़ता था, इस तरह के कागजी काम मजदूरों के वश में नहीं था। वहीं दूसरी तरफ मज़दूरी बकाया के काफी मामले लंबित रहते थे। ऐसे में मजदूर गांव, पंचायत या प्रखंड कार्यालय में दलालों के चक्कर काटते रहते थे। इन तमाम विसंगतियों की जानकारी अर्थशास्त्री व प्रोफेसर ज्यां द्रेज को उस वक्त हुई जब उन्होंने अपने कॉलेज के छात्रों की एक टीम बनाकर नरेगा सहित ICDS, BDS व पेंशन के सरकारी अमलों के कार्यों पर 2006 से 2009 तक सर्वे किया।
बता दें कि ICDS (Integrated Child Development Services) एकीकृत बाल विकास सेवाएं भारत में एक महत्वपूर्ण सरकारी कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य देश में बच्चों के समग्र विकास और कल्याण को बढ़ावा देना है। यह कार्यक्रम 1975 में शुरू किया गया जो दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे व्यापक बचपन विकास पहलों में से एक है। (बीडीएस) विकास सेवा ब्यूरो, नागरिकों को स्वास्थ्य और स्वतंत्रता प्राप्त करने के अवसर प्रदान करने में समुदायों और परिवारों को जोड़ने के लिए प्रतिबद्ध है। बीडीएस इस दृष्टिकोण की पुष्टि करता है कि सभी नागरिकों को अपने समुदाय के जीवन में भाग लेना चाहिए और साथ ही उत्पादक और मूल्यवान समुदाय के सदस्य बनने के लिए उन्हें आवश्यक समर्थन प्राप्त करना चाहिए।
बताते हैं कि प्रोफेसर ज्यां द्रेज के छात्रों की टीम, नरेगा वाच के राज्य समन्वयक जेम्स हेरेंज और झारखंड में अलग-अलग (NGO) गैर सरकारी संगठनों से जुड़े लोगों द्वारा ग्राम स्वराज का गठन किया गया। जिसके आलोक में 2009 में खूंटी सदर व पलामू के छत्तरपुर में पायलट नरेगा सहायता केंद्र की शुरुआत की गई। वहीं 2010 में लातेहार के मनिका में केंद्र की स्थापना हुई।
बता दें कि इन लोगों द्वारा 2013 में एक सम्मेलन करके 2010 से लेकर 2013 तक के काम पर चर्चा की गई। इस सम्मेलन में राज्य के तत्कालीन नरेगा कमिश्नर सिद्धार्थ त्रिपाठी भी शामिल हुए थे टीम के कार्यों की सराहना भी थी। 2014 में नरेगा में एक संशोधन कर अनुसूची ए, धारा – 31 में रोज़गार केंद्र के नाम से प्रक्रिया स्थापित की गई।
वर्ष 2015 में ग्रामीण विकास विभाग के तत्कालीन प्रधान सचिव एन एन सिन्हा ने 23 जुलाई को एक चिट्ठी निकालकर कहा कि जहां-जहां रोज़गार केंद्र चल रहा है वहां-वहां नागरिक सहायता केन्द्र स्थापित की जाए। जो आज राज्य के 76 से अधिक प्रखंडों तक स्थापित है, जहां गरीबों, बुजुर्गों, दिव्यांग व जरूरतमंद कमजोर तबके के लोगों के लिए वरदान साबित हो रहा है।
ज्यां द्रेज बताते हैं कि सुदूर गांवों से भाषाई दिक्कतों वाले लोग आर्थिक परेशानियों के बीच प्रखण्ड मुख्यालयों तक पहुंचते हैं और दिनभर इंतजार के बाद भी अधिकारियों के संवेदनहीन रवैये एवं सटीक प्रक्रिया की जानकारी नहीं देने से अभिवंचित परिवार अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। लेकिन सहायता केंद्रों से ऐसे वंचित परिवारों के कागजात जैसे मृत्यु प्रमाण पत्र, आधार कार्ड, बैंक के खाते, राशन कार्ड, पेंशन के आवेदन, मनरेगा कार्ड, मजदूरी भुगतान, बेरोजगारी भत्ता के आवेदन के काम हो रहे हैं।
इस प्रक्रिया में पीड़ित विधवा महिलाओं, दोनों हाथ-पैर या अन्य अंगों से दिव्यांग, लाचार बुजुर्ग व अभावग्रस्त परिवारों को नागरिक सहायता केंद्रों के माध्यम से उनका सरकारी काम करा देने से ऐसे परिवारों में स्थाई जीविकोपार्जन के रास्ते बन जाते हैं जिससे वे खुशियों से अभिभूत हो जाते हैं।
झारखंड नरेगा वाच के राज्य संयोजक जेम्स हेरेंज का कहना है कि समय के साथ अधिकार आधारित योजनाओं की संख्या बढ़ी है। इसके साथ ही सभी योजनाओं में आए दिन कई बार अचानक तकनीकी बदलाव कर दिए जाते हैं। लेकिन उस रफ्तार में ग्रामीणों खासकर गरीबों तक जानकारी नहीं हासिल हो पाती हैं। जब तक थोड़ी बहुत समझ विकसित होती है तब तक काफी देर हो चुकी होती है और लोग अधिकारों से वंचित हो जाते हैं। कई बार ऐसे कॉम्प्युटरीकृत तकनीकों की वजह से घटनोत्तर समाधान बिल्कुल भी संभव नहीं हो पाता। दूसरी तरफ सभी योजनाओं में नए-नए तकनीक संबंधी शब्द ईजाद हो रहे हैं, यथा खाता फ्रिज, एफटीओ, आधार सीडिंग, ऑनलाईन, सीएसपी इत्यादि। ऐसे शब्द जंजाल से ग्रामीण बहुत ज्यादा असहज महसूस करते हैं और अनावश्यक सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाकर थक जाते हैं। सरकारी सिस्टम से यदि बिचौलियावाद संस्कृति को समाप्त करना है तो नागरिक सहायता केंद्र ही इसका विकल्प हो सकता है।
सामाजिक अंकेक्षण ईकाई के राज्य समन्वयक हलधर महतो कहते हैं- मनरेगा सहित तमाम कल्याणकारी योजनाओं में नित नए तकनीकों के प्रयोगों कई बार अभिवंचितों की परेशानियां बढ़ जाती हैं। अकेले नरेगा में जॉब कार्ड के लिए आवेदन, काम मांग के आवेदन, बकाया मजदूरी होने पर इसके लिए आवेदन, बेरोजगारी भत्ता सहित अन्य प्रावधानों के लिए कागजात तैयार करना निरक्षरों के लिए बेहद कठिन कार्य होते हैं।
पंचायतों द्वारा जॉब कार्डों में कोई प्रविष्टि नहीं होने से अंकेक्षण में मुद्दों को स्थापित काफी मुश्किल होता है। ऐसे विपरीत परिस्थिति में नागरिक सहायता केंद्रों का होना अभिवंचितों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है। इससे हमारे सोशल ऑडिट टीम को ग्राम सभा आयोजित करने, मजदूरों को उनके अधिकारों की जानकारी और कोई भ्रष्टाचार होने पर तत्काल आवाज उठाने से सरकारी योजनाओं में राशि के दुरुपयोग को रोकने में मदद मिल रही है।
जेएसएलपीएस के सुवकान्ता नायक बताते हैं जेएसएलपीएस ने 10 वर्ष पूर्व एक चुनौती के रूप में इसे प्रारंभ की थी, जिसे फ़ेडेरेशन के जरिए गुमला के रायडीह प्रखण्ड में की गई थी। आज राज्य के दर्जनों प्रखंडों में महिलाओं द्वारा ऐसे केंद्र संचालित किये जा रहे हैं। परिणाम काफी सकारात्मक सामने आ रहे हैं। निश्चय ही ऐसे प्रयोगों को पूरे राज्य में जारी रखना चाहिए।
भोजन का अधिकार अभियान से जुड़े वरिष्ठ साथी बलराम का मानना है कि – ऐसे अभियानों के प्रयास से ही राज्य सरकार को डाकिया योजना, स्कूल व आंगनबाड़ी केंद्रों में बच्चों को अण्डे का प्रावधान, सर्वजन पेंशन योजना, ग्रीन राशन कार्ड आदि योजनाओं को लागू करने के फैसले लेने में सहायक सिद्ध होते रहे हैं। लेकिन इसमें एक राजनीतिक ईच्छा शक्ति का अभाव देखा गया है जो शायद जन दबावों, साक्ष्य आधारित मुद्दों, जनसुनवाईयों के नियमित आयोजनों से संभव है। जिसे सहायता केंद्र बखूबी अंजाम दे सकते हैं।
सहायता केन्द्र के कुछ फायदे
पलामू जिला अंतर्गत नावाबाजार प्रखड के तुकबेरा गांव की सरिता देवी अपने एक बच्चे के साथ अकेली रहती है। सरिता देवी बताती है कि मेरे पति विजय राम तमिलनाडु के एक प्लांट में काम करते थे। वहां के स्थानीय मजदूरों और बाहरी मजदूरों के भेद को लेकर स्थानीय मजदूर आंदोलन करने लगे। उस आंदोलन में बाहरी मजदूरों को मारपीट कर भागाने लगे। उसी आंदोलन में मेरे पति जख्मी हो गए। जख्मी हालत में मेरे पति किसी तरह से घर वापस आ गए। आने के कुछ दिनों के बाद उनकी मौत हो गई। अब हमें चिंता होने लगी कि अपना और अपने बच्चे का पालन-पोषण कैसे करूंगी।
नागरिक सहायता केंद्र की प्रियंका कुमारी को जब इसकी जानकारी हुई तो उसने सरिता देवी से सारे दस्तावेज ले कर स्थानीय मुखिया के घर गई और सरिता के परिवारिक लाभ एवं मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए आवेदन लिखा। कुछ ही दिनों के बाद सरिता देवी को परिवारिक लाभ योजना के तहत 20 हजार रुपये प्रखंड की ओर से प्रदान किया गया। साथ ही पति का मृत्यु प्रमाण पत्र भी बन गया।
मृत्यु प्रमाण पत्र के आधार पर प्रियंका कुमारी ने सरिता देवी के विधवा पेंशन का फॉर्म भर कर जमा करवाया। दो महीने के बाद सरिता देवी का विधवा पेंशन स्वीकृत हो गया। विधवा पेंशन की पहली राशि जुलाई 2024 में सरिता देवी को प्राप्त हुआ। प्रियंका कुमारी ने सरिता देवी का मनरेगा में जॉब कार्ड भी बनवा दिया है। इसके अलावे वह नागरिक सहायता केन्द्र के प्रभाव से सरिता देवी को एक प्राईवेट स्कूल में काम भी दिलवायी हैं। स्कूल में उसे प्रति महीना 5 हजार रुपये भी मिलता है। अब सरिता की चिंता में कुछ कमी आई है।
पलामू जिले के रामगढ़ प्रखंड अंतर्गत बांसडीह खुर्द पंचायत के उतेड गांव में रहती है अंजली देवी। अंजली देवी एक विधवा है।
उनके पति अजय भुइंया नक्सलवादियों की पार्टी में शामिल हो गए थे। लेकिन 2016 में उनकी हत्या हो गई थी। आज उतेड के स्कूल में वह रसोईया के काम करती है।
नक्सलवादियों की पार्टी में शामिल होने के कारण पर बताते हुए अंजली देवी कहती है- मेरे ससुर और चाचा ससुर की सामूहिक जमीन 15 एकड़ है। जिसके हिस्सेदार हम लोग भी हैं। लेकिन जमीन पर कब्जा गांव के दबंग समुदाय का था। वे जमीन को छोड़ने को तैयार नहीं थे। बार-बार मार-पीट पर उतारू हो जाते थे। उनके इस अत्याचार को देखते हुए मेरे पति अजय भुइंया नक्सलवादी पार्टी में शामिल हो गए। पार्टी में शामिल होने के बाद उनकी गतिविधियों के दौरान उन्हें पुलिस के द्वारा गिरफ्तार भी किया गया। तीन बार जेल जाना पड़ा। जेल से निकलने के बाद उन्होंने पार्टी छोड़ दी।
मेरे पति 5 जून 2016 को घर से कुडपानी के बेलवाही टोला गए थे। जहां पार्टी के दूसरे व्यक्ति ने उन्हें गोली मार दी। उस वक्त मेरे गर्भ में 3 महीने का एक बच्चा पल रहा था। मैं काफी परेशान हुई। इसी बीच मैंने गर्भ में पल रहे बच्ची को जन्म दिया। मेरे तीन लड़के हैं और एक बेटी है। मेरी सहायता करने वाला कोई नहीं था। मेरे पति पर जो केस हुआ था, उसमें हाजिरी लगाने के लिए मुझे लातेहार जाना पड़ता था। मृत्यु के बाद भी केस चल ही रहा था। क्योंकि वहां मेरे पति का मृत्यु प्रमाण पत्र मांगा जा रहा था। मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने के लिए काफी भाग दौड़ कर रही थी। कुछ लोगों ने कहा पैसा खर्च करोगी तभी मृत्यु प्रमाण पत्र बनेगा। मैंने पैसा भी खर्च किया। लेकिन मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं बना। मैं हार गई और हाजिरी भरने के लिए समय-समय पर लातेहार कोर्ट में जाती रही। अपने बच्चों का पालन पोषण किसी तरह से करते हुए अपने जीवन में संघर्ष कर रही थी।
कोविद-19 के कारण कुछ राहत मिली। 7 वर्षों की भाग दौड़ में अपने जीवन से निराश हो चुकी थी। गांव के लोगों ने बताया कोकडू की सुनीता देवी से मिलो। वह नागरिक सहायता केंद्र में काम करती है। लोगों को राशन, पेंशन, बनवाने में मदद करती है। मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने में भी तुम्हारी मदद कर सकती है। लोगों के कहने पर मैं सुनीता देवी से मिली। उन्होंने मेरे पति का डॉक्यूमेंट लिया और अस्पताल से पोस्टमार्टम रिपोर्ट निकलवाई और मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने में मेरी मदद की। 13 दिसंबर 2022 को मेरे पति का मृत्यु प्रमाण पत्र बन गया। कोर्ट में मृत्यु प्रमाण पत्र जमा करने के बाद केस खत्म हो गया। मैंने महसूस किया कि मेरा नया जन्म हुआ है। अब मैं स्कूल में रसोईया का काम कर रही हूं।
(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)
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