दिल्ली विधानसभा के चुनावी रण में आम नागरिकों का कचूमर निकलना तय 

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2020 विधानसभा चुनावों को याद करें तो आज जैसी तस्वीर दिख रही है, कुछ वैसा ही नजारा था। टेलीविजन और व्हाट्सअप की दुनिया, दोनों में आप के मुकाबले भाजपा बीस ही ठहरती थी। फिर भी अधिकांश दिल्ली वालों को लगता था कि कड़े मुकाबले के बावजूद आम आदमी पार्टी मामूली बढ़त के साथ चुनाव जीतने में कामयाब रहेगी। 

हुआ भी कुछ ऐसा है, लेकिन लगातार दूसरी बार की यह जीत भाजपा के लिए बेहद शर्मनाक थी। जो भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तब तक त्रिपुरा जैसे लेफ्ट के गढ़ को साफ़ कर चुकी थी और लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में बड़ा उलटफेर करने में कामयाब रही थी, के लिए अपने ही घर में दूसरी बार करारी हार का स्वाद बेहद कड़वा अनुभव रहा। 

2020 के चुनाव प्रचार में गृह मंत्री अमित शाह को दिल्ली की गलियों में अपने हाथ से पर्चे बाँटते देखना और यह बयान कि ईवीएम का बटन इतने जोर से दबाना कि शाहीन बाग़ में जोर का झटका महसूस हो। इस नारे का मकसद स्पष्ट तौर पर दिल्ली में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण को तेज करना था। चुनाव से पहले दिल्ली को सांप्रदायिकता की आंच पर खूब सेंका गया, और यदि व्हाट्सअप की बहसों को याद करें तो ऐसा जान पड़ता था कि इस बार भाजपा बराबरी पर तो पक्का आने जा रही है।

लेकिन दिल्ली की जनता ने 70 सीटों में से 62 सीट पर आम आदमी पार्टी को विजयी बनाकर भाजपा के सारे अरमानों पर पानी फेर दिया था। आम आदमी पार्टी (आप) को हासिल 53.57% मत-प्रतिशत के आसपास भी आना बीजेपी के लिए संभव नहीं रहा। बीजेपी को हालांकि 2015 की तुलना में बढ़ा हुआ मतप्रतिशत 38.51% प्राप्त हुआ, लेकिन 15% का बड़ा अंतर इतना अधिक था, जिसे पाट पाना कहीं से भी संभव नहीं था।

हालांकि दिल्ली की बहुसंख्यक आबादी एक बार फिर से झाड़ू के पक्ष में खड़ी रही, लेकिन अगले ही माह उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में हुए भीषण दंगों के दौरान आम आदमी पार्टी की भूमिका ने मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय और आम बुद्धिजीवी समाज के बीच घोर निराशा का वातावरण तैयार कर दिया था। केंद्र सरकार के लगातार हमलावर रुख के बावजूद आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री, अरविंद केजरीवाल उम्मीद लगाये रहे कि भाजपा और एलजी महोदय का न जाने कब हृदय परिवर्तन हो जाये, और उनकी सरकार को शांति के साथ शासन करने का मौका मिल जाये।

लेकिन ऐसा कुछ भी न हो सका। मार्च 2020 के आखिरी सप्ताह से कोरोना महामारी की शुरुआत और उसके बाद अगले दो वर्ष दिल्ली ही नहीं पूरे देश के लिए जैसे भयानक त्रासदी का दौर रहा। इसके बाद की छोटी सी अवधि के बाद दिल्ली में आबकारी मामले में रिश्वतखोरी का जो आरोप आप पार्टी पर लगाया गया, उसने वस्तुतः अरविंद केजरीवाल की सरकार को दिल्ली में लगभग पंगु सा बना दिया।

आज आम आदमी पार्टी (आप) के पास यदि दिखाने के लिए कुछ है तो वह अपने पहले के कार्यकाल में फ्री पानी, फ्री बिजली, स्वास्थ्य सेवा और सरकारी शिक्षा पर दिल्ली के बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करने का दावा काम आ रहा है। इसके अलावा महिलाओं के लिए डीटीसी में मुफ्त बस सेवा और बुजुर्गों के लिए मुफ्त तीर्थयात्रा या मोहल्ला क्लिनिक और अनधिकृत कॉलोनियों में सीवर लाइन बिछाने का मुद्दा ही दुहराने के लिए बचा हुआ है। 

दिल्ली में प्रदूषण की समस्या बद से बदतर हुई है। स्वच्छ दिल्ली कोसों दूर है और बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई का दिल्ली सरकार के पास भी कोई जवाब नहीं है। यमुना को साफ़ करने का दावा आप पार्टी और बीजेपी दोनों का खोखला साबित हुआ है। बीजेपी तो इसी मुद्दे को तूल देने पर आमादा है, जबकि यमुना सहित गंगा सफाई अभियान उसके एजेंडे में पहले से मौजूद था। 

2025 दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए रणनीति 

2020 के बाद से आप पार्टी की छवि निश्चित रूप से भोथरी हुई है, विशेषकर अल्पसंख्यक समुदाय की नजरों में। सॉफ्ट हिन्दुत्त्व से केजरीवाल को कभी परहेज नहीं रहा, लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के मोहभंग और दलित समुदाय के बीच कांग्रेस की बढ़ती स्वीकार्यता यदि एक हिस्से को वापिस कांग्रेस के फोल्ड में ले जाती है, तो इस बात की पूरी संभावना है कि आप का वोट प्रतिशत 2020 की तुलना में घट जाए। 

भाजपा के तरकश में इस बार सिर्फ आक्रामक हिंदुत्ववादी स्वर ही नहीं है, बल्कि उसने एक हिस्से के बीच में यह बात बिठाने में सफलता हासिल कर ली है कि आप पार्टी कोई दूध की धुली नहीं है, बल्कि वह भी भ्रष्टाचार और निजी सुख-सुविधा के लिए आम आदमी से किनारा करने में गुरेज नहीं रखती। लिहाजा दिल्ली के मतदाता को झाड़ू के प्रति इतना सम्मोहन नहीं रखना चाहिए। 

इससे भी बड़ी बात, बीजेपी के पास अब ओडिशा, आंध्रप्रदेश सहित झारखंड और महाराष्ट्र में विपरीत परिस्थितियों के बावजूद चुनावी जीत हासिल करने का फंडा क्लियर हो चुका है। दिल्ली में उसका मुकाबला एक ऐसी पार्टी से है, जो न ही स्वतंत्रता आंदोलन से उपजी है और न ही समाजवादी, लोहियावादी, मंडल आन्दोलन या किसी खास विचारधारा से उपजी पार्टी है। यह एक ऐसी गैर-विचारधारात्मक पार्टी है, जिसका झुकाव अधिकाधिक दक्षिणपंथी बहुसंख्यक हिंदू समझ के अधीन है। 

बेहद कम समय में राष्ट्रीय पार्टी का ख़िताब हासिल करने वाली आप के अस्तित्व को कुचलने के लिए बीजेपी को उसे दिल्ली के रण में एक बार परास्त करना सबसे बड़ी चुनौती है। वोटर लिस्ट से बड़ी संख्या में वैध मतदाताओं के नाम काटने के मुद्दे को आप पार्टी जोरशोर से उठा रही है। लेकिन उसकी आवाज नक्कारखाने में शोर से ज्यादा नहीं सुनाई पड़ रही है। 

आप पार्टी के सामने दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है कांग्रेस से निपटने की। कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक को अपदस्थ कर लिबरल हिंदू मतदाता को अपने साथ जोड़ पार्टी ने खुद को अलंघनीय बना दिया था। लेकिन इस बार देखने को मिल रहा है कि कांग्रेस भी इस चुनाव को बेहद गंभीरता से ले रही है। पिछले चुनाव में कांग्रेस को मात्र 4.26% मत प्राप्त हुए थे। इस बार पार्टी ने लगभग सभी सीटों पर पुराने दिग्गजों को मैदान में उतारने का फैसला किया है। हालाँकि खबर आ रही है कि जंगपुरा सहित राजेन्द्र नगर से क्रमशः अलका लांबा और दिनेश चतरथ ने अपना नाम वापस लेने की घोषणा कर दी है। 

लेकिन इसके बावजूद यदि कांग्रेस 10% वोट भी अपने नाम कर लेती है और बीजेपी के द्वारा लो प्रोफाइल हिंदुत्व और साथ ही चुनाव आयोग से वैसी ही मदद प्राप्त होने की संभावना बनी रहती है, जैसा हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में देखने को मिला है तो आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल इतिहास बनाने के साथ ही इतिहास की किताब में दिख सकते हैं।  

हालांकि, अच्छी बात यह है कि अरविंद केजरीवाल के पास समय रहते हरियाणा, महाराष्ट्र का समृद्ध अनुभव हासिल है। मतदाता सूची में नाम काटे जाने और बीजेपी के द्वारा इसे रोहिंग्या और बांग्लादेशी बताने को उन्होंने पूर्वांचली मतदाताओं को सूची से बाहर करने का मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है। कांग्रेस के विपरीत केजरीवाल भाजपा को उसी की भाषा में जवाब देना जानते हैं। उन्होंने कांग्रेस और बीजेपी के नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर मोदी की स्टाइल में पार्टी का स्वरूप बदलने की ठान ली है, जो दर्शाता है कि साम, दाम, दंड और भेद में वे भी मोदी से किसी भी मायने में कम नहीं हैं।

दिल्ली की महिला मतदाताओं पर आम आदमी पार्टी की नजर पहले से बनी हुई थी। मुफ्त बिजली, पानी और फ्री बस सेवा के बाद अब पार्टी की ओर से महिलाओं को प्रति माह 2100 रुपये देने के वादे पर बड़ी संख्या में पंजीकरण कराया जा रहा है। बीजेपी और कांग्रेस इस तथ्य से पूरी तरह से बाखबर हैं कि मध्य प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड, राजस्थान और महाराष्ट्र में लाडली बहन योजना ने कैसे चुनावी बाजी को पूरी तरह से पलट डाला है।

यही वजह है कि बीजेपी के पूर्व सांसद और अरविंद केजरीवाल के मुकाबले चुनावी मैदान में उतरे भाजपा के उम्मीदवार प्रवेश वर्मा के आवास पर कल जब महिलाओं को 1,100 रुपये वितरित किये जाने की खबर उड़ी तो मीडियाकर्मियों ने इस बंदरबांट को अपने कैमरे में कैद कर लिया। इन महिलाओं के बयानों से स्पष्ट हो जाता है कि बीजेपी के उम्मीदवार परवेश वर्मा चुनाव से पहले ही वोट फ़ॉर कैश के तहत पूरे चुनाव को ही दूषित करने से बाज नहीं आ रहे। 

इस मुद्दे पर विपक्ष चाहे तो बीजेपी को घोर अनैतिक और भ्रष्ट साबित करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाकर एक बार फिर से पटखनी दे सकता है। लेकिन स्थानीय कांग्रेस के लिए शायद पहली प्राथमिकता आप से निपटना है, जिसने उसके वोट बेस को खत्म कर उसे पूरी तरह से लूला-लंगड़ा बना डाला है। इसके अलावा गुजरात और गोवा में भी आप की भूमिका ने कांग्रेस को पस्त किया है। पंजाब में भी यह आम आदमी पार्टी ही है, जिसने कांग्रेस को पटखनी देकर खुद को न सिर्फ राष्ट्रीय पार्टी के ख़िताब से नवाजा है बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी अक्सर पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल खुद को बीस बताने से नहीं चूकते।

आज अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे न सिर्फ आप पार्टी के लिए फैसलाकुन साबित होने जा रहे हैं, बल्कि इंडिया गठबंधन के विभिन्न घटक दलों के लिए भी इससे महत्वपूर्ण संकेत निकलने जा रहे हैं। विशेषकर बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के लिए इसके अर्थ निकालने बाकी हैं कि आगे से कांग्रेस के साथ लव-हेट के रिश्ते को किस प्रकार से हैंडल करना है?

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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