हाल ही में राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान राजस्थान की एक सभा में कांग्रेस पार्टी के चुनावी घोषणापत्र के कुछ प्रमुख बिंदुओं को आम लोगों के साथ साझा किया था। ये वे वादे हैं, जिन्हें यदि इंडिया गठबंधन की सरकार देश में आती है तो लागू किया जायेगा।
इसमें पहला ही वादा, देश के करोड़ों शिक्षित युवाओं को ध्यान में रखकर किया गया है। वह है 30 लाख रिक्त सरकारी पदों पर नियुक्ति की गारंटी। बता दें कि इसके लिए अलग से रोजगार सृजित करने की जरूरत नहीं है। वर्षों से देश में सरकारी पदों को भरने से यूपीए और एनडीए सरकार कन्नी काटती आई है। दूसरी गारंटी, इससे भी कहीं अधिक व्यापक असर डालने वाली है। इसमें 25 वर्ष तक के प्रत्येक ग्रेजुएट और डिप्लोमा धारक के लिए एक वर्ष तक रोजगार की गारंटी के रूप में 1 लाख रुपये तक का भुगतान किया जाना है। इसके अलावा पेपर लीक के खिलाफ कानून, करीब 1 करोड़ गिग वर्कर्स के लिए सामाजिक सुरक्षा की गारंटी और देश के हर जिले में स्टार्टअप कार्पस के तहत 5,000 करोड़ रुपये की राशि की व्यवस्था की बात कही गई है।
कुछ हलकों में इस बारे में चर्चा है और कई लोग इस बार भी इसे अनुसना कर देना चाहते हैं। पिछली बार 2019 चुनाव में भी कांग्रेस की ओर से यूनिवर्सल बेसिक इनकम 72,000 रुपये प्रति वर्ष की गारंटी की बात कही गई थी। लेकिन चुनाव के हंगामे और कांग्रेस वापसी की संभावना बेहद क्षीण होने के चलते इस मुद्दे पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
हालांकि कोविड महामारी के दौरान इस गारंटी की सख्त जरूरत देश को थी। लेकिन इसे फ्री राशन, मनरेगा और आज तक 5 किलो मुफ्त राशन वितरण से पूरा किया जा रहा है। इसके अलावा कई राज्यों में महिलाओं के लिए ‘लाडली बहना’ के तहत 1,000-1,250 रुपये प्रति माह की स्कीम शुरू की गई है। ये तथ्य बताते हैं कि देश में असमानता किस कदर बढ़ चुकी है, और सरकार के पास लोगों की आजीविका के लिए कोई उपाय नहीं बचा है।
लेकिन कुछ लोग मानते हैं कि कांग्रेस की इन महत्वाकांक्षी योजनाओं को पूरा करने के लिए आवश्यक संसाधन ही नहीं हैं, इसलिए इन्हें पूरा कर पाना कोरी लफ्फाजी के सिवाय कुछ नहीं है। 2014 चुनाव में भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने भी देश में हर वर्ष युवाओं को 2 करोड़ रोजगार देने का आश्वासन दिया था। लेकिन हर वर्ष 2 करोड़ रोजगार की बात छोड़ दीजिये, उल्टा देश में रोजगारशुदा लोगों की संख्या आज घट चुकी है।
इसमें 30 लाख सरकारी नौकरियां केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों में रिक्त पड़े हैं, जिन्हें सरकार आसानी से भर सकती है। इसके अलावा भी करीब 30 लाख पद राज्य सरकारों के स्तर पर खाली पड़े हैं। लेकिन एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि देश में सार्वजनिक क्षेत्र में सबसे अधिक रोजगार वर्ष 1995 में देखने को मिला था। इस वर्ष सार्वजनिक क्षेत्र में कुल रोजगार की संख्या 1.94 करोड़ आंकी गई थी, जबकि निजी क्षेत्र में यह संख्या 85.10 लाख थी और पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 3.74 करोड़ थी। लेकिन इसी दौर में नवउदारवादी अर्थनीति के लागू हो जाने के बाद सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार में लगातार कमी होती चली गई, जिसके लिए यूपीए और एनडीए दोनों सरकारें कुसूरवार हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि आज कांग्रेस किस बिना पर 30 लाख खाली पदों को भरने की बात कह रही है? मनमोहन सिंह के शासन काल को जीडीपी विकास दर के लिहाज से मोदी राज से बेहतर माना जाता है। लेकिन रोजगार के क्षेत्र में 2004-2014 को जॉबलेस ग्रोथ की संज्ञा दी गई थी, जो 2014 के बाद जॉब-लॉस विकास में तब्दील हो गई। इसका अर्थ है यूपीए काल में विकास तो हो रहा था, लेकिन उस परिमाण में नौकरियां सृजित नहीं हो रही थीं, और हर वर्ष रोजगार मांगने वालों की संख्या और रोजगार के अवसरों के बीच का अंतर बढ़ रहा था। मोदी काल में विकास एक खास दिशा में बढ़ा, जबकि रोजगार की संभावना के उलट जो रोजगार था, उसमें भी कमी देखने को मिल रही है।
इस प्रकार के हम कह सकते हैं कि 1995 से 2023 तक आते-आते जिस नई आर्थिक नीति को कांग्रेस और बाद में भाजपा ने लागू किया, उसने पहले रोजगार-विहीन विकास और बाद के दौर में रोजगार-नष्ट करने वाले विकास की राह पकड़ी। इसके नतीजे में आज देश में कॉर्पोरेट घरानों के पास पूंजी संकेन्द्रण कई गुना बढ़ा है। 2014 में पीएम मोदी ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ के साथ साफ़ संकेत दे रहे थे कि आगे से देश के आर्थिक विकास की बागडोर अधिकाधिक निजी क्षेत्र को दी जानी है।
आज इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में अधिकाधिक काम निजी क्षेत्र को सौंपा जा चुका है। इसमें भी अधिकांश पर अडानी समूह का एकाधिकार है, जो पोर्ट, हवाईअड्डों, ग्रीन एनर्जी सहित कोयला खनन क्षेत्र में अधिकाधिक हिस्सेदारी बढ़ा रही है। इसी प्रकार टेलिकॉम और एनर्जी सेक्टर में रिलायंस ने बड़े पैमाने पर विस्तार किया है।
सरकार आज दो मोर्चों पर घिरी है। पहला, अपने घोषित लक्ष्य से पीछे हटने की स्थिति में उसे निजी क्षेत्र की नाराजगी झेलनी होगी, जिसके शीर्ष पर मौजूद पूंजी घराने 90 के दशक में ही सरकार पर पूर्ण नियंत्रण का दावा करते पाए गये थे। आज उसकी तुलना में उनकी हैसियत में कई गुना इजाफा हुआ है।
30 लाख सरकारी नौकरियों के लिए सालाना बजट भी एक बड़ा सवाल है। इसके लिए सरकार को बजट में करीब 2 लाख करोड़ रुपये वार्षिक का प्रावधान करना होगा। 7.70 लाख करोड़ पहले से ही इस बजट में हिस्सेदारी है, जो कुल 45 लाख करोड़ रुपये के 20% को कवर करता है।
इसके अलावा प्रत्येक स्नातक या डिप्लोमा होल्डर्स युवा जिसकी उम्र 25 वर्ष या उससे कम है, को 1 वर्ष के लिए विभिन्न उद्योगों में अपरेंटिसशिप की गारंटी का अर्थ है देश के करीब 5 करोड़ युवाओं के लिए रोजगार की गारंटी। इस गारंटी के लिए पहले ही वर्ष में करीब 5 लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। इतनी बड़ी रकम का इंतजाम किसी भी केंद्र सरकार के वश में नहीं है। पहले ही मोदी सरकार ने बजट में लगातार कर्ज को बढ़ाकर 12 लाख करोड़ रुपये कर दिया है, जो किसी भी मद में खर्च की जाने वाली सबसे बड़ी रकम है। इन दो मदों पर ही सरकार को 7 लाख करोड़ रुपये अलग से खर्च करने की जरूरत होगी। इसके अलावा किसानों को फसल पर एमएसपी की गारंटी का कानून भी अमल में आ जाता है तो कम से कम 2.5-3 लाख करोड़ रुपये सालाना अतिरिक्त बोझ केंद्र सरकार को उठाना होगा।
30 लाख सरकारी नौकरी, 5 करोड़ युवाओं को एक वर्ष तक अपरेंटिस रोजगार की गारंटी और फसलों पर एमएसपी का खर्च 10 लाख करोड़ रुपये है। इस अतिरिक्त बोझ के लिए संसाधन की बात कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में नहीं की है। आखिर इसके लिए इंतजाम कहां से आयेगा? क्या कांग्रेस इसके लिए बाजार से कर्ज लेगी, और देश को और कर्जे में धकेलेगी? पहले ही मोदी राज में सरकार का कर्ज 2014 के 55 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 205 लाख करोड़ रुपये हो चुका है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) पहले ही भारत को बढ़ते कर्ज को लेकर चेतावनी जारी कर चुका है।
निश्चित रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था आज गहरे संकट में घिर चुकी है, जिसका तत्काल समाधान तलाशने की आवश्यकता है। देश को तेज विकास दर के साथ-साथ रोजगारपरक अर्थव्यस्था को ध्यान में रखना होगा। आज देश जिस जनसांख्यकीय लाभांश को लेकर बड़े-बड़े दावे कर रहा है, वह अगले 30 वर्ष तक ही कायम रहने वाली है। आज देश का युवा रोजगार के अभाव में बेहद हताश और निराश होकर लगभग अकर्मण्यता की स्थिति में पड़ा हुआ है। चंद हजार नौकरियों के लिए देश में दसियों लाख आवदेन, परीक्षा में धांधली की शिकायत, आंदोलन और उसके बाद परीक्षा निरस्त हो जाने की घटनाएं आम हो चुकी हैं। हालत यहां तक पहुंच गई है कि युवा युद्धग्रस्त इजराइल में काम के लिए हरियाणा और उत्तर प्रदेश में लाइन लगाकर अपनी बारी का इंतजार करते देखे गये। बेरोजगारों की व्यग्रता को देखते हुए कई प्राइवेट एजेंसियों के द्वारा झूठे नौकरियों के विज्ञापनों का सहारा लेकर सैकड़ों युवाओं को रूस-यूक्रेन युद्ध में भाड़े के सैनिकों के तौर पर मरने के लिए छोड़ दिया है।
सबसे पहले देश में 10 वर्ष से आपूर्ति को ध्यान में रखकर बनाई जा रही सभी आर्थिक नीतियों को वापस लेने की जरूरत है। देश में सबसे पहली जरूरत मांग को पैदा करने की है, जिसे 2017-18 से ही तमाम आर्थिक सर्वेक्षणों और समाचार पत्रों ने विभिन्न माध्यमों से इंगित किया है। मांग में कमी का संबंध आम लोगों की क्रय शक्ति में आई तेज गिरावट से जुड़ा है। यह सिलसिला वर्ष 2016 से शुरू हुआ, जब देश में एकाएक पीएम नरेंद्र मोदी नोटबंदी की घोषणा कर, बाजार में मौजूद नकदी को अवैध घोषित कर दिए थे। इसका नतीजा, लाखों एमएसएमई एवं कुटीर उद्योग को सीधे भुगतना पड़ा, जिससे देश का 94% रोजगार कवर होता है। करोड़ों भारतीयों को एक झटके में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से औपचारिक अर्थव्यवस्था में डालने के तानाशाही रवैये ने लाखों उद्योग नष्ट कर दिए, लेकिन सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा, और उसने अगले चरण में जीएसटी लाकर रही-सही कसर भी पूरी कर दी थी।
2017-18 में ही देश में मांग काफी हद तक गिर चुकी थी, लेकिन सरकार कॉर्पोरेट की ओर टकटकी लगाये बैठी थी। उसके लिए कॉर्पोरेट टैक्स में भारी छूट का प्रावधान किया गया और इसे 30% से घटाकर सीधे 22% कर दिया गया। बैठे-बिठाए सरकार ने प्रतिवर्ष 1.5 लाख करोड़ रुपये के राजस्व को देश के पूंजीपतियों को दान दे दिया। उसे उम्मीद थी कि इस रकम से नया पूंजी निवेश होगा, लेकिन कॉर्पोरेट ने देश में मांग की कमी को देखते हुए कोई रिस्क नहीं लिया। इसकी बजाय उसने अपने ऐशोआराम के लिए आयातित वाहन, यात्राएं, आलीशान विलाज और सोने की खरीद पर निवेश किया।
मोदी सरकार इसके बाद भी नहीं चेती और उसने अपने दूसरे कार्यकाल में पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक इंसेंटिव) का प्रावधान किया। इस पीएलआई का लाभ देश के छोटे और मझौले उद्योगों को मजबूत करने के बजाय, बड़ी और विदेशी कंपनियों ने जमकर उठाया। हालत यह है कि आईफोन जैसे बड़े ब्रांड सहित तमाम चायनीज और दक्षिण कोरियाई स्मार्टफोन निर्माता कंपनियों ने इस स्कीम का जमकर दोहन किया, जबकि इन स्मार्टफोन में इस्तेमाल होने वाले कलपुर्जे और पीसीबी का उत्पादन आज भी चीन, ताईवान और दक्षिण कोरिया में हो रहा है। भारत में सिर्फ 15% मूल्य-संवर्धन में योगदान कर स्मार्टफोन और इलेक्ट्रिक वाहन निर्माता कंपनियों ने हर वर्ष लाखों करोड़ रूपये मोदी सरकार समर्थित पीएलआई स्कीम के जरिये कमाए, और आगे भी यह सिलसिला जारी है।
सिर्फ इन्हीं दो स्कीम को वापस लेकर सरकार प्रति वर्ष 3 लाख करोड़ रुपये जुटा सकती है। इसके अलावा, 5 करोड़ युवाओं को एक वर्ष रोजगार की गारंटी के बदले जो 5 लाख करोड़ रुपये खर्च होने हैं, उसका एक हिस्सा निजी क्षेत्र से भी लिया जाना है। आखिर एक ट्रेनी पर प्रति माह का खर्च ही कितना आ रहा है? मात्र 8,500 रुपये, जो न्यूनतम मजदूरी की दर से भी कम है। इसमें से 50% को ही सरकार को वहन करना होगा, अर्थात 2.5 लाख करोड़ रुपये।
लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम आश्चर्यजनक होने जा रहे हैं। पहली बात, एसएमएसई क्षेत्र को न्यूनतम दर पर शिक्षित कामगार मिल जायेंगे, जिनसे उसकी उत्पादकता में वृद्धि होगी। वस्तुओं की लागत में कमी होगी और बिक्री को रफ्तार मिलेगी। निर्यात बढ़ेगा। इसके साथ ही देश का युवा वास्तव में स्किल्ड कामगार बनेगा, जिसका रोना अक्सर कई बार देशी विदेशी कॉर्पोरेट रोते हैं। इतनी बड़ी मात्रा में युवाओं को रोजगारपरक बनाने से अर्थव्यस्था को भी रफ्तार मिलेगी, और मांग में भी उछाल आयेगा। पूंजी निवेश के लिए वातावरण बनने पर नए उद्योग लगेंगे, जिससे नए रोजगार सृजित हो सकते हैं।
जहां तक कृषि उत्पादों पर एमएसपी की गारंटी का सवाल है, इसको लेकर जितने मुहं उतनी बातें की जा रही हैं। कोई कह रहा है कि इसे लागू कर दिया तो 10 लाख करोड़ रुपये हर साल सरकार को बजट से खर्च करना होगा तो कृषि मामलों से जुड़े कुछ विशेषज्ञ मात्र 1.5 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार बता रहे हैं। नीति आयोग और तमाम सरकारी आंकड़े खुद इस बात की गवाही दे रहे हैं कि पिछले कुछ दशक से देश में खाद्यान्न की खरीद पर बहुसंख्यक आबादी का खर्च बड़े हद तक घट चुका है, और अब वह दूसरे मदों पर ज्यादा खर्च कर रहा है। इसी तर्क को उलट कर देखें तो वे भी इस तथ्य की तस्दीक कर रहे हैं कि पिछले 4 दशक के दौरान गेंहू, चावल और दालों पर जिस अनुपात में किसानों को बढे दाम मिलने चाहिए थे, वे नहीं मिल रहे हैं।
देश की 55% आबादी आज भी कृषक अर्थव्यवस्था पर निर्भर है। देश में कुल कामगारों में 40% से अधिक कृषि क्षेत्र से सम्बद्ध हैं। अगर सरकार को चंद पूंजीपतियों के लिए कॉर्पोरेट टैक्स में कमी कर प्रति वर्ष 1।5 लाख करोड़ का घाटा नहीं चुभता है तो इतनी बड़ी तादाद को इसी रकम से खुशहाल बनाने में उसे इतनी तकलीफ क्यों होनी चाहिए? किसान को अगर अपनी मेहनत का सही मूल्य मिलेगा तो वह इस रकम से अपने परिवार की आवश्यक जरूरतों को पूरा करने में लगाएगा। घर में अगर कॉपी, किताब, पेन्सिल, बिस्कुट, टीवी, स्मार्टफोन की खरीद करेगा तो शहरों में उद्योगों को ही बढ़ावा मिलेगा, और नए-नए रोजगार पैदा होंगे।
इसलिए, इन तीनों ही उपायों को सरकार बिना किसी खास परेशानी के अमल में ला सकती है। हां, बड़े कॉर्पोरेट और नव-धनाड्य वर्ग के लिए अवश्य इस अर्थनीति से कुछ तकलीफ हो सकती है। उसके पास रेहाना जैसे कलाकारों को प्री-वेडिंग पर आमंत्रित कर एक झटके में 70 करोड़ रुपये लुटाने से पहले कई बार सोचना पड़ सकता है। निजी अभयारण्य बनाने की सनक को तो वैसे भी देश का कानून इजाजत नहीं देता है, लेकिन जब जनपक्षीय सरकार देश की बहुसंख्यक आबादी को ध्यान में रखकर अपनी अर्थनीति बनाएगी तो ऐसे पागलपन पर अपनेआप रोक लग सकती है।
इससे भी बढ़कर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वास्तव में कांग्रेस को 2024 में आकर अपनी 90 के दशक की गलत आर्थिक नीतियों का अहसास हो चुका है, या यह भी 2014 की भाजपा की तरह एक जुमला साबित होने जा रहा है?
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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