डबवाली अग्निकांड की बरसी (23 दिसंबर) पर विशेष: उन सात मिनटों में आज भी ठहरे हुए हैं 24 साल!

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शहर महज एक बेहद हौलनाक हादसे की वजह से रहती सभ्यता तक ‘मौत का शहर’ कहलाते हैं और कभी न भरने वाले जख्म उसके कोने-अंतरों में स्थायी जगह बना लेते हैं तथा सदा रिसते रहते हैं। हरियाणा, पंजाब और राजस्थान की सीमाओं के ऐन बीच पड़ने वाला जिला सिरसा का कस्बेनुमा शहर डबवाली ऐसा ही है। आज से ठीक 24 साल पहले यहां ऐसा भयावह अग्निकांड हुआ था, जिसकी दूसरी कोई मिसाल देश-दुनिया में नहीं मिलती। इस अग्निकांड में महज सात मिनट में 400 लोग ठौर जिंदा झुलस मरे थे। इनमें 258 बच्चे और 143 महिलाएं थीं। मृतकों की कुल तादाद 442 थी और घायलों की 150। कई परिवार एक साथ जिंदगी से सदा के लिए नाता तोड़ गए थे।

घटनास्थल पर बना स्मारक।

मौत की यह बरसात 23 दिसंबर 1995 की दोपहर 1 बज कर 40 मिनट पर शुरू हुई थी और 7 मिनट में इतनी जिंदगियां स्वाहा करते हुए 1.47 पर बंद हुई थी। 24 साल बीत गए लेकिन इस अहम सवाल का पुख्ता जवाब अभी भी नदारद है कि  इतनी जिंदगीयों को इतने कम वक्त में अपने आगोश में लेने वाली जानलेवा वह आग लगी कैसे? सीबीआई और केंद्र तथा राज्य सरकार की तमाम फाइलों में बेशक यही दर्ज है कि वजह इंसानी लापरवाही एवं शॉट सर्किट थी लेकिन उस अकल्पनीय हादसे का शिकार हुए शहर डबवाली के लोग आज भी इन निष्कर्षौं पर बेयकीनी करते हैं।                                 

जैसे कि कहा जाता है कि जिंदगी अपनी रफ्तार से चलती रहती है। डबवाली की भी चल रही है। जिस शहर की एक फीसदी आबादी 23 दिसंबर 1995 को सिर्फ 7 मिनट में तबाह हो गई थी। उस भीषण अग्निकांड के जख्म हर दूसरी गली के किसी न किसी घर में अपने अमिट निशान छोड़ गए हैं। जिनका अपना या दूर का कोई मरा तथा जो गंभीर जख्मी होकर जिंदा होने के नाम पर जिंदा हैं-वे उस अग्निदिन की बाबत बात करने से इसलिए परहेज करते हैं कि वह सारा खौफनाक दृश्य उनकी आंखों के आगे आ खड़ा होता है और वे मानसिक और दिमागी तौर पर सिरे से असंतुलित हो जाते हैं और फिर संभलने में उन्हें काफी समय लगता है। इसकी पुष्टि डबवाली अग्नि पीड़ितों के बीच सक्रिय रहकर काम करते रहे मनोचिकित्सक डॉक्टर विक्रम दहिया भी करते हैं। बावजूद इसके कुछ लोगों से बहाने से बात होती है और धीरे-धीरे वे अपनी मूल पीड़ा और दरपेश दिक्कतों की अंधेरी कोठरियों में हमें ले जाते हैं।                                     

उमेश अग्रवाल डबवाली अग्निकांड के सरकारी तौर पर घोषित 90 प्रतिशत विकलांग हैं। हादसे के वक्त वह नौवीं जमात के छात्र थे। शेष शरीर के साथ-साथ उनके दोनों हाथ भी पूरी तरह झुलस गए थे। बुनियादी जानकारी के बावजूद वह कंप्यूटर नहीं चला सकते। यहां तक कि किसी को पानी तक नहीं पिला सकते। मिले मुआवजे से कब तक गुजारा होगा? भारत सरकार की आयुष्मान सरीखी योजनाओं का लाभ इसलिए नहीं ले सकते कि जले हाथों के फिंगरप्रिंट नहीं आते, जो नियमानुसार जरूरी हैं।

इसके लिए वे प्रधानमंत्री और हरियाणा के मुख्यमंत्री सहित पक्ष-विपक्ष के कई बड़े नेताओं से कई बार मिल चुके हैं लेकिन नागरिकता कानून से लेकर धारा 370 तक तो बदली जा सकती है पर सरकारी नौकरी देने के नियम-कायदे नहीं! अग्निनिपीड़िता सुमन कौशल की भी यही व्यथा है। सरकारी निजाम उन्हें पूरी तरह विकलांग और वंचित तो मानता है लेकिन सरकारी नौकरी का हकदार कतई नहीं। उमेश और सुमन सरीखे बहुतेरे युवा डबवाली में हैं, जो अग्निकांड का शिकार होने के समय बच्चे थे। अब आला तालिमयाफ्ता बेरोजगार हैं। 24 पढ़े-लिखे युवा ऐसे हैं जो सौ फीसदी अंगभंग का सरकारी सर्टिफिकेट लिए भटकते फिर रहे हैं लेकिन नौकरी नहीं मिल रही।             

शिकार लोग और उनके परिजन।

23 दिसंबर 95 की त्रासदी ने बचे बेशुमार लोगों को कदम-कदम पर विकलांग और कुरूप होने का अमानवीय एहसास बार-बार कराया है। इस पत्रकार की मुलाकात एक महिला से हुई जिसका चेहरा लगभग पूरी तरह जल गया था और प्लास्टिक सर्जरी उसे सामान्य की सीमा तक भी नहीं ला सकी। उन्होंने बताया कि बसों में सफर करते हैं तो जले चेहरों के कारण दूसरी सवारी पास तक नहीं बैठती या नहीं बैठने देती। घृणा का भाव आहत करता है। यह नंगा सामाजिक सच है जिसकी क्रूरता अकथनीय है।           

डबवाली अग्निकांड ने बड़े पैमाने पर लोगों को सदा के लिए मनोरोगी बना दिया है। किसी ने अपनी संतान खोई है तो कोई 7 मिनट की उस आग में अनाथ हो गया। किसी की पत्नी चली गई तो किसी का पति। यह यथास्थिति का क्रूर यथार्थ है, इसे शब्दों में बयान करना बहुत मुश्किल है। सिर्फ 7 मिनट मानों सैकड़ों लोगों के दिलों-दिमाग में (24 साल के बाद) आज भी ठहरे हुए हैं। 442 लोग, जिनमें ज्यादातर मासूम बच्चे और महिलाएं थीं, तो जल मरे लेकिन वह 7 मिनट शायद कभी भस्म न हों!                                         

घटना के बाद का फोटो।

डबवाली अग्निकांड राजीव मैरिज पैलेस में हुआ था। जहां 23 दिसंबर 1995 को डीएवी  स्कूल का सालाना कार्यक्रम था। हॉल बच्चों, अभिभावकों और मेहमानों से खचाखच भरा था। सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था। अचानक एक बजकर 40 मिनट पर आग लग गई और एक बजकर 47 मिनट तक चौतरफा फैल गई। महज सात मिनट में मौके पर 400 लोग तिल-तिल झुलस कर राख हो गए। 42 ने अगले दिन दम तोड़ दिया। 150 से ज्यादा घायल हुए जो आठ बड़े मेडिकल कॉलेजों के लंबे इलाज के बाद भी दो से सौ प्रतिशत तक स्थायी रुप से विकलांग हैं। यह सरकारी आंकड़े हैं। गैरसरकारी अनुमान के अनुसार पीड़ितों की संख्या इससे ज्यादा है। पैलेस और दो बिजलीकर्मियों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 304 के तहत औपचारिक मुकदमा चला।                           

डबवाली फायर विक्टिम एसोसिएशन के प्रधान विनोद बंसल हैं, “दाह संस्कार के लिए श्मशान में जगह कम पड़ गई तो खेतों में अंतिम संस्कार किए गए। बमुश्किल मृतकों की शिनाख्त हो पाई। 23 दिसंबर 1995 के उस मंजर को डबवाली का कोई भी बाशिंदा न तो भूल सकता है और न याद रखना चाहता है। जिन्होंने उस भयावह अग्निकांड को भुगता या देखा, उनकी मन:स्थिति आज भी विक्षिप्त़ों से कम नहीं। मुआवजे और मुनासिब सरकारी इलाज की लड़ाई हमने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी है। फिर भी पूरा इंसाफ नहीं मिला। हर सरकार और डीएवी प्रबंधन ने बेइंसाफी, बेरुखी दिखाई और निर्दयता से दांवपेंच बरते। यह विश्व इतिहास का अपने किस्म का इकलौता हादसा है। जिसमें सात मिनट के भीतर सैकड़ों लोग इस तरह जिंदा अग्निभेंट हो गए।”             

विक्टिम एसोसिएशन के अध्यक्ष।

सरकारों ने कुछ मुआवजा दिया और हाईकोर्ट के आदेशानुसार घायलों का एम्स से लेकर पीजीआई तक इलाज करवा कर पल्ला झाड़ लिया। जिंदा बच्चों और लोगों की क्रबगाह मैरिज पैलेस अब डबवाली अग्नि कांड के मृतकों की याद में स्मृति स्मारक में तब्दील हो गया है। वहां मृतकों की तस्वीरें हैं और एक बड़ा पुस्तकालय। स्कूल ने नई इमारत बना ली, जहां हर साल 23 दिसंबर को हवन की रस्म अदा की जाती है।                                                                       

सरकारी तौर पर इस हादसे को शॉट सर्किट से हुआ बताया जाता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज तेजप्रकाश गर्ग के जांच आयोग और छह महीने की सीबीआई जांच के निष्कर्ष यही हैं। अन्य कई विशेष जांच रिपोर्ट भी सरकारी फाइलों में यही कहती हैं लेकिन स्थानीय लोग इस असाधारण दुर्घटना अथवा हादसे को साधारण नहीं मानते। विनोद बंसल खुद अग्निकांड में घायल हुए थे और लगातार तीन बार से पार्षद हैं। वह कहते हैं, “यकीनन यह कोई बड़ी साजिश थी जिस पर सरकार ने किसी नीति के कारण पर्दा डाला।

सात मिनट में पूरे परिसर में आग फैलने का दूसरा कोई उदाहरण दुनिया भर में नहीं मिलता।” एक बड़ा सवाल डबवाली अग्निकांड आज भी यह खड़ा करता है कि इससे सबक क्या लिए गए? डबवाली अग्निकांड के बाद दिल्ली में उपहार सिनेमा अग्निकांड हुआ और यह सिलसिला अभी हाल ही में दिल्ली में हुए एक बड़े अग्निकांड तक जारी है। सो जवाब है कि डबवाली अग्निकांड से किसी ने कोई सबक नहीं लिया। क्या यह हमारे देश में ही है कि मासूम बच्चों, औरतों और बूढ़े-बुजुर्गों की दर्दनाक मौतें हमारे लिए सनसनीखेज खबरें तो होती हैं लेकिन कोई सबक नहीं! देश आज नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध की आग में जल रहा है तो आइए, कम से कम डबवाली अग्निकांड के मृतकों को श्रद्धांजलि तो अर्पित कर दें!                                   

(अमरीक सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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