वर्तमान दलित राजनीति को चाहिए एक नई दिशा और रेडिकल एजेंडा

कुछ समय पहले में एक साक्षात्कार में चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ ने कहा था कि वर्तमान दलित राजनीति का स्वर्णिम काल है। वैसे आज अगर दलित राजनीति की दशा और दिशा देखी जाए तो यह कहीं से भी उसका स्वर्णिम काल दिखाई नहीं देता है बल्कि यह उसका पतनकाल है। एक तरफ जहां दलित नेता दलित विरोधी पार्टियों में शरण लिए हैं वहीं शेष दलित पार्टियां इतनी कमजोर हो गई हैं कि वे राजनीति में कोई प्रभावी दखल नहीं दे पा रही हैं।

इधर जिन दलित पार्टियों ने जाति की राजनीति को अपनाया था वे भाजपा के हाथों बुरी तरह से परास्त हो चुकी हैं क्योंकि उनकी जाति की राजनीति ने भाजपा की फासीवादी हिन्दुत्व की राजनीति को ही मजबूत करने का काम किया है।

परिणामस्वरूप इससे भाजपा की जिस अधिनायकवादी कॉर्पोरेटपरस्त राजनीति का उदय हुआ है उसका सबसे बुरा असर दलित, आदिवासी, मजदूर, किसान और अति पिछड़े वर्गों पर ही पड़ा है। निजीकरण के कारण दलितों का सरकारी नौकरियों में आरक्षण लगभग खत्म हो गया है। श्रम कानूनों के शिथिलीकरण से मजदूरों को मिलने वाले सारे संरक्षण लगभग समाप्त हो गए हैं।

वर्तमान सरकार द्वारा दलितों/आदिवासियों का दमन किया जा रहा है। इन वर्गों के मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले तथा उनकी पैरवी करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, लेखकवर्ग को माओवादी/राष्ट्रविरोधी करार देकर जेल में डाल दिया गया है। सामंती एवं पूंजी की ताकतें आम लोगों पर बुरी तरह से हमलावर हो रही हैं।

सरकार पूरी तरह से इन जन विरोधी ताकतों के साथ खड़ी है। सरकार हर सरकार विरोधी आवाज को दबाने पर तुली हुई है। लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों का बुरी तरह से दमन हो रहा है। काले कानूनों का खुला दुरुपयोग हो रहा है और वर्तमान कानूनों को अधिक क्रूर बनाया जा रहा है। लोगों पर फर्जी मुकदमे लगा कर उन्हें जेलों में डाला जा रहा है।

अब अगर दलित राजनीति की वर्तमान दशा और दिशा पर दृष्टि डाली जाए तो यह अपने पतन काल में दिखाई देती है। दलितों के अधिकतर नेता या तो सत्ताधारी पार्टी में चले गए हैं या उससे गठबंधन में हैं। जो बाकी बचे हैं वे या तो इतने कमजोर हो गए हैं कि किसी दलित मुद्दे पर बोलने से डरते हैं या दलित मुद्दे उनकी राजनीति का हिस्सा ही नहीं हैं।

उत्तर भारत में जो दलित राजनीति बहुजन के नाम पर शुरू हुई थी वह उसके संस्थापक कांशीराम के जीवन काल में ही सर्वजन में बदल गई थी, जो विशुद्ध सत्ता की राजनीति थी और उसका दलित मुद्दों से कुछ भी लेना देना नहीं था। इसके पूर्व की डॉ. अंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) अवसरवादी एवं व्यक्तिवादी नेताओं के सत्ता लोभ का शिकार हो कर इतने टुकड़ों में बंट चुकी है कि उनका गिना जाना मुश्किल है।

यह उल्लेखनीय है कि आजादी के बाद यही आरपीआई जब तक दलित मुद्दों को लेकर जन आन्दोलन आधारित राजनीति करती रही तब तक वह देश में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी। परंतु जैसे ही कांग्रेस ने इसके सबसे बड़े नेता दादासाहेब गायकवाड को बड़े पद का लालच देकर फोड़ लिया तब से यह पार्टी कुछ लोगों की जेबी पार्टी बन कर कई गुटों में बंट गई और बेअसर हो गई।

रामदास आठवले भी इसी के एक गुट के नेता हैं जो भाजपा के साथ गठजोड़ करके सत्ता सुख भोग रहे हैं। राम विलास पासवान हमेशा ही सत्ताधारी पार्टी के साथ गठजोड़ करके मंत्री पद प्राप्त करते रहे। कांशीराम की बसपा पार्टी ने तीन वार घोर दलित विरोधी पार्टी भाजपा के साथ गठबंधन करके मायावती के लिए मुख्यमंत्री पद प्राप्त किया। चंद्रशेखर भी कांशीराम की इसी राजनीति को आगे बढ़ाने की बात कर रहा है।

शायद चंद्रशेखर इस समय जो राजनीति कर रहा है वह उसको ही दलित राजनीति का स्वर्णिम काल कह रहा है। उसके अनुसार वह कांशीराम के मिशन को ही आगे बढ़ाने की राजनीति कर रहा है। यह किसी से छुपा नहीं है कि कांशीराम की राजनीति विशुद्ध सत्ता की जातिवादी/सांप्रदायिक अवसरवादी राजनीति थी जिसका न तो कोई दलित एजेंडा था और न ही कोई सिद्धांत। वह तो अवसरवादी एवं सिद्धांतहीन होने पर गर्व महसूस करते थे।

उन्होंने शुरूआत तो व्यवस्था परिवर्तन के नारे के साथ की थी परंतु बाद में वे उसी व्यवस्था का एक हिस्सा बन कर रह गए। मायावती के चार बार मुख्यमंत्री बनने से भी उत्तर प्रदेश के दलितों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ जबकि उनके नाम पर बहुत सारे दलित और गैर दलित नेताओं ने सत्ता का इस्तेमाल अपने विकास के लिए बखूबी किया। चंद्रशेखर ने भी पिछले वर्ष बिहार के चुनाव में पप्पू यादव के साथ जो गठजोड़ किया था क्या वह दलित हित में था? पप्पू यादव कितना दलित हितैषी हैं यह कौन नहीं जानता कि वह उस समय किसको लाभ पहुंचाने का काम कर रहे थे।

अतः यह विचारणीय है कि चंद्रशेखर बिहार में बेमेल गठजोड़ की जो राजनीति कर रहा था वह कितनी दलित हित में थी? वर्तमान में दलित राजनीति को बदलाव का रेडिकाल एजेंडा लेकर चलने की जरूरत है न कि कांशीराम मार्का अवसरवादी एवं सिद्धांतहीन राजनीति की। क्या केवल कोई सेना खड़ी करके लड़ाकू तेवर दिखाने से दलित राजनीति को आगे बढ़ाया जा सकता है, क्योंकि इस प्रकार की सेनाओं के बहुत से प्रयोग पहले हो चुके हैं।

वास्तव में वर्तमान में दलितों सहित समाज के अन्य कमजोर वर्गों एवं अल्पसंख्यकों की नागरिकता एवं मौलिक अधिकारों को बचाने के लिए जन मुद्दा आधारित जनवादी राजनीति की जरूरत है ना कि वर्तमान अधिनायकवादी, शोषणकारी राजसत्ता में हिस्सेदारी की। अतः अधोपतन, बिखराव, अवसरवाद एवं सिद्धांतहीनता की शिकार वर्तमान दलित राजनीति की त्रासदी को इसका स्वर्णिम युग कहना एक मसखरापन ही कहा जा सकता है।

अब तक यह भी स्पष्ट हो चुका है कि केवल जाति की राजनीति से दलितों का कोई भला होने वाला नहीं है। इसलिए दलित राजनीति को एक रेडिकल दलित एजेंडा (भूमि वितरण, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, अत्याचार से मुक्ति, ग्लोबल वित्तीय पूंजी के हमले का विरोध तथा लोकतंत्र का बचाव) अपनाने और उसके लिए सौदेबाजी और वर्तमान लूट की राजनीति में हिस्सेदारी के बजाए संघर्ष की स्वतंत्र राजनीति अपनानी होगी।

(एस आर दारापुरी, ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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