दलित बनाम करणी सेना : कानून की दोहरी चाल

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भारत की ज़मीन हमेशा से ही समाजी हलचलों और आंदोलनों से भरी रही है, जहाँ अलग-अलग समुदायों ने अपने हक़, इज़्ज़त और पहचान के लिए आवाज़ उठाई है। ऐसे ही दो अहम मौके-2 अप्रैल 2018 का दलित भारत बंद और 12 अप्रैल 2025 को आगरा में करणी सेना का प्रदर्शन-ना सिर्फ़ समाज के बीच तनाव को दिखाते हैं, बल्कि ये भी बताते हैं कि सरकार और प्रशासन का रवैया अलग-अलग लोगों के साथ कैसा होता है।

2 अप्रैल 2018 को देशभर के दलित और आदिवासी समुदायों ने भारत बंद का ऐलान किया। वजह थी सुप्रीम कोर्ट का वो फ़ैसला जो 20 मार्च को आया था। इस फ़ैसले में SC/ST एक्ट 1989 के कुछ प्रावधानों को कमज़ोर किया गया, जैसे कि तुरंत गिरफ्तारी पर रोक और डीएसपी रैंक के अफसर से जांच के बाद ही केस दर्ज करने की शर्त। दलित समाज को ये लगा कि उनके सुरक्षा वाले कानून को कमज़ोर किया जा रहा है, और इसी के खिलाफ़ उन्होंने सड़कों पर उतरकर विरोध किया। ये प्रदर्शन न्याय और बराबरी के हक़ की मांग के लिए था।

ये आंदोलन खुद से शुरू हुआ और बहुत बड़े पैमाने पर फैल गया। दिल्ली, यूपी, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में लाखों लोग सड़कों पर उतरे। ज़्यादातर लोग निहत्थे थे, हो सकता कुछ लोगों के पास लाठी रही हो, लेकिन किसी हथियार की बात सामने नहीं आई। नारों, रास्ता रोकने, और धरनों के ज़रिए उन्होंने अपनी बात रखी। “हम अंबेडकरवादी हैं, संघर्ष के आदी हैं” जैसे नारे इस आंदोलन की भावना को बयां कर रहे थे। भीम आर्मी और दलित पैंथर जैसी संगठनों ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई।

हालाँकि कई जगहों पर यह प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहा, लेकिन कुछ जगहों पर झड़पें और हिंसा भी हुई। जैसे ग्वालियर, मुरैना, भिंड, मेरठ और राजस्थान के कुछ हिस्से। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार कम से कम 11 लोगों की मौत हुई, जिनमें ज़्यादातर प्रदर्शनकारी थे। मध्य प्रदेश में पुलिस की गोली से कई लोगों की जान गई-ग्वालियर में चार और मुरैना में दो। मेरठ में पुलिस चौकी और गाड़ियों को जलाने की खबरें आईं। इस दबाव में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डाली और फिर संसद में एक बिल लाकर इस कानून को पहले जैसा कर दिया। इस आंदोलन ने दलित समाज की एकता और ताक़त को साफ़ दिखा दिया।

प्रशासन की तरफ़ से शुरुआत से ही कड़ा रुख अपनाया गया। कई राज्यों में धारा 144 लगाई गई, कर्फ्यू लगा और इंटरनेट बंद कर दिया गया। पुलिस ने लाठीचार्ज, आंसू गैस और गोली चलाने तक का इस्तेमाल किया। कई मानवाधिकार संगठनों ने आरोप लगाया कि पुलिस ने दलित प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाया, जबकि गैर-दलितों के हिंसक कामों को नज़रअंदाज़ किया गया। ग्वालियर और मुरैना में जो गोलियाँ चलीं, वे निहत्थे लोगों पर थीं। बाद में हज़ारों लोगों पर केस दर्ज हुए, जिनमें से कई झूठे बताए गए। 2023 तक भी बहुत से लोग इन केसों से परेशान थे। ये सब प्रशासन के भेदभाव भरे रवैये को दिखाता है।

अब ज़रा 12 अप्रैल 2025 की बात करें जब करणी सेना ने आगरा में बड़ा प्रदर्शन किया। वजह थी सपा सांसद रामजी लाल सुमन का वो बयान जिसमें उन्होंने संसद में राणा सांगा को “ग़द्दार” कहा और कहा कि उन्होंने बाबर को भारत बुलाया था। इस बात को राजपूत समाज ने अपनी बेइज़्ज़ती माना और करणी सेना ने इसे अपने सम्मान का सवाल बना लिया।

राणा सांगा की जयंती पर आगरा के गढ़ी रामी में “रक्त स्वाभिमान सम्मेलन” हुआ। ये एक तय कार्यक्रम था जिसमें हज़ारों लोग आए। लोग तलवारें, लाठियाँ और बंदूकें लेकर आए। एक लड़के का वीडियो वायरल हुआ जिसमें वह गाड़ी की छत पर बंदूक लहराते दिखा। रैली के बाद एक्सप्रेसवे और हाईवे जाम कर दिए गए, पुलिस की बैरिकेडिंग तोड़ी गई और धमकियों वाले नारे लगाए गए। अखिलेश यादव के खिलाफ ज़बानी हमले किए गए और खुलेआम धमकियाँ दी गईं। राजा भैया जैसे नेताओं का भी इस कार्यक्रम को समर्थन मिला, जिससे इसकी राजनीतिक मंशा भी सामने आई।

अब सोचने वाली बात ये है कि इस पूरे मामले में प्रशासन और सरकार का रवैया क्या रहा। करणी सेना के इस प्रदर्शन में ना तो कोई पुलिसिया सख़्ती दिखाई दी, ना ही कोई लाठीचार्ज हुआ, और ना ही किसी के खिलाफ सख़्त कार्रवाई। जब सोशल मीडिया पर हथियारों के साथ वीडियो वायरल हुए, तो कुछ लोगों की गिरफ्तारी ज़रूर हुई, लेकिन पूरी रैली को लेकर प्रशासन ने किसी तरह की सख़्ती नहीं बरती। उल्टा, नेताओं ने बयान दिया कि “अगर कोई गलती हुई है, तो हम देखेंगे”, या फिर ये कि “लोगों के जज़्बात थे, थोड़ा बहक गए”।

अब सोचिए-जब दलित समाज अपने संवैधानिक हक़ के लिए, अपनी इज़्ज़त और सुरक्षा के लिए प्रदर्शन करता है, तो पुलिस गोलियाँ चला देती है, हज़ारों लोगों पर केस दर्ज होते हैं, इंटरनेट बंद कर दिया जाता है, और मीडिया उन्हें हिंसक बता देता है। लेकिन जब एक सवर्ण संगठन खुलेआम हथियार लेकर प्रदर्शन करता है, सड़कें जाम करता है, धमकियाँ देता है, तो ना कोई गोली चलती है, ना कोई कर्फ़्यू, और ना ही मीडिया में उसे “अराजक” कहा जाता है।

ये फर्क दिखाता है कि हमारी राजनीति और प्रशासन किस तरफ झुकी हुई है। जब दलितों की बात आती है, तो उन्हें तुरंत “क़ानून-व्यवस्था का ख़तरा” मान लिया जाता है। लेकिन जब ऊँची जातियों से जुड़े संगठन कुछ भी करते हैं, तो उसे “भावनाओं का उफान” कहकर टाल दिया जाता है। यही नहीं, बहुत बार तो ऐसे संगठनों की बातों को सुनकर ही सरकारें नीतियाँ बदल देती हैं या चुप्पी साध लेती हैं।

दलित आंदोलन संविधान और लोकतंत्र की बुनियादी बातों को लेकर होता है-बराबरी, न्याय और सम्मान के लिए। वहीं, करणी सेना जैसे संगठन अक्सर इतिहास को अपने नज़रिये से देखने और दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं। एक तरफ हक़ की लड़ाई है, दूसरी तरफ पहचान और वर्चस्व (दबदबा) की राजनीति।

इन दोनों आंदोलनों को देखकर ये साफ़ समझ आता है कि भारत का लोकतंत्र अब भी बराबरी से दूर है। जब तक सरकार और प्रशासन सभी नागरिकों को एक नज़र से नहीं देखेंगे, तब तक न्याय सिर्फ़ किताबों में रहेगा और हक़ सिर्फ़ ताक़तवरों के पास होगा।

(डॉ. सलमान अरशद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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