गहरी है इजरायल में चीनी राजदूत की ‘मौत’ की पेंच

Estimated read time 1 min read

परसों तेल अवीव में चीन के राजदूत की मृत्यु के बाद अचानक बहुत से सवाल और आशंकाओं ने जन्म ले लिया क्योंकि इतिहास में शायद यह पहली घटना है जब किसी राजदूत की हत्या होने का आरोप उसी देश की गुप्तचर एजेंसी पर लगा हो। यद्धपि इस प्रकार की एजेंसियों द्वारा राजनेताओं की हत्याएं कराने की कहानियां अक्सर मीडिया में आती रही हैं जिनमें जिया उल हक और केनेडी सहित बेनजीर भुट्टो भी एक हैं।

इस घटना क्रम को समझने के लिए इसके इतिहास और इतिहास के पर्दे के पीछे की घटनाओं को समझना जरूरी है।

यहूदी कौम सदैव से स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ईश्वर के पुत्र के रूप में समझते रहे हैं और इनमें भी एक समुदाय जो कट्टर सोच वाले हैं अन्य मनुष्यों को केवल गुलाम या जानवर जैसा मानते हैं तभी केवल यहूदी धर्म ही एकमात्र ऐसा है जो किसी अन्य को अपना धर्म स्वीकार करने की अनुमति नहीं देता।

मूल रूप से हजारों साल से इनका मुख्य कार्य ब्याज तथा गुलामों की खरीद-फरोख्त रहा है, प्रथम विश्व युद्ध के बाद इन्होंने लार्सन ट्रिटी के तहत सल्तनत उस्मानिया को समाप्त किया एवम् नई विश्व व्यवस्था का आगाज़ किया जिसमें पासपोर्ट, वीज़ा तथा कागज की मुद्रा के साथ-साथ अरब क्षेत्र के तेल व्यापार पर कब्ज़ा था जिसके कारण डॉलर्स विश्व मुद्रा बना तथा सऊदी अरब का निर्माण हुआ।

लेकिन जब यूरोप के देशों को अपना अस्तित्व खतरे में लगने लगा तो द्वितीय विश्वयुद्ध का आगाज़ हुआ और साथ ही इजरायल का निर्माण भी।

क्योंकि 2023 में लार्सन ट्रीटी की अवधि समाप्त होने वाली है तथा तुर्की के तय्येब अर्दगान ने पुनः मुस्लिम साम्राज्य का स्वप्न दिखाना शुरू कर दिया है एवम् विश्व की ऊर्जा की आवश्यकता भी तेल आधारित से अन्य स्रोतों की ओर बदल रही हैं तो ये गवर्नमेंट की चिंता होना स्वाभाविक है।

यदि विश्व अर्थजगत से डॉलर्स की महत्ता समाप्त हो जाती हैं तो Rothschild का साम्राज्य भी ख़त्म हो जाएगा और इसी के साथ बैंकिंग एवम् मुद्रा प्रबन्धन की आड़ में पूंजीवादी व्यवस्था को भी धक्का लगना अवश्य संभव हो जाता है। क्योंकि डॉलर्स के नाम पर झूठ और फरेब के साम्राज्य की पोल खुलने के साथ-साथ नई व्यवस्था के नाम पर रूस का बिट कॉइन भी सामने आ चुका है।

निर्माण के क्षेत्र में चीन का आर्थिक साम्राज्य न केवल यूरोप अपितु अमेरिकी साम्राज्य को भी निगलने के लिए तैयार है तथा इसके कारण विश्व में चीन के एक छत्र साम्राज्य को भी कोई चुनौती नहीं मिल रही थी।

क्योंकि इजरायल के नेताओं ने स्थिति के अनुसार खुद को बदलने का निर्णय लिया और हुफा बंदरगाह सहित कई महत्वपूर्ण ठेके चीन को दे दिए जिसमें 300 किमी लंबी रेल एवम् सड़क परियोजना भी है।

इस प्रकार अमरीका के ताश के महल का गिरना और पत्ते बिखरना अवश्यंभावी हो गया था जिसके बचाव के लिए मार्क पॉन्पियो ने पिछले हफ्ते तेल अवीव में डेरा डाल दिया।

सैनिक मोर्चे पर भी पेंटागन की एक रिपोर्ट लीक हुई है जो कई जगह प्रकाशित हो चुकी है और उसके अनुसार आगामी दस साल तक भी अमेरिका चीन से किसी युद्ध में या इंडो पेसिफिक रीजन में विजय प्राप्त नहीं कर सकता।

इन्हीं हलचलों के मध्य अति क्रूर अधिकारियों द्वारा अंतिम विकल्प के रूप में हत्याओं का डर्टी गेम खेला जा सकता है।

शायद इन्हीं तर्कों के आधार पर सोचा जा रहा हो कि चीन के राजदूत महोदय की मृत्यु स्वाभाविक नहीं भी हो सकती। यहां याद रखना चाहिए कि दो वर्ष पूर्व तुर्की द्वारा रूस के एक जहाज़ को मार गिराया गया था जिसके कारण आशंका बलवती हो गई थी कि रूस एवम् तुर्की आमने-सामने आ जाएंगे तथा इन दोनों के आपसी युद्ध के परिणाम स्वरूप वेस्टर्न पॉवर सुरक्षित हो जाएंगी किन्तु रूस ने समझदारी दिखाते हुए हालात बिगड़ने से बचा लिया।

दूसरी योजना भारत और चीन को युद्ध में उलझाना था जो कतिपय कारणों से सम्भव नहीं हुआ जिसका खुलासा देशहित में नहीं होगा।

बी प्लान के अनुसार कोरोना और इसके मीडिया द्वारा खौफ पैदा करने से पूरी दुनिया की आर्थिक हलचल को रोक दिया गया, शायद यह पुरानी सभी व्यवस्थाओं को समाप्त करके ग्रे गवर्नमेंट या ब्लैक ज़ोन द्वारा नई अर्थव्यवस्था तथा नई विश्व मुद्रा के साथ साथ नई वैश्विक बैंकिंग प्रणाली के लिए एक प्रयास किया जा रहा है बेशक इसके लिए युद्ध ही क्यों न करना पड़े।

मेरा मानना है कि पुतिन और ट्रंप के व्यक्तिगत प्रयास अभी तक सीधे सैनिक हस्तक्षेप से दुनिया को बचाए हुए हैं किन्तु शायद अधिक दिन तक ऐसा संभव नहीं होगा।

जिन देशों ने नई व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है और समझौता स्वीकार कर लिया है  उनके यहां कोरोना का संकट भी समाप्त हो चुका है तथा ताला बन्दी भी समाप्त हो चुकी है। लेकिन जिन्होंने निर्णय नहीं लिया है अथवा जिन देशों की अर्थव्यवस्था बाकी है वहां लॉक डाउन चालू है।

भारत के सम्बन्ध में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि हम बिना किसी देशहित की नीतियां बनाए अभी दो नावों पर सवारी करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं तथा उसमे भी डूबते हुए जहाज़ की ओर हमारा झुकाव उसका प्यादा या पिछलग्गू होने का ज्यादा है तो हमारे लिए उज्जवल भविष्य की केवल कामना की जा सकती है।

समय की आवश्यकता है कि जनता को देशहित में स्थितियों को समझना चाहिए तथा यदि निडरता से गलत फैसलों और देश एवम् मानवता विरोधी सोच का विरोध करना चाहिए अन्यथा आने वाली पीढ़ियों को हम सिर्फ गुलामी और गरीबी या भुखमरी देकर जाएंगे

(प्रमोद पाहवा विदेशी मामलों के जानकार हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like