पूरी दुनिया पर्यावरण में आ रहे बदलाव और धरती के लगातार गर्म होते जाने की मार से गुजर रही है। अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बिजली उत्पादन और ईंधन के लिए कोयले के उपयोग को हरी झंडी दे दी है। ट्रम्प प्रशासन ने कोयले को एक ‘जरूरी खनिज’ और ‘जरूरी वस्तु’ की श्रेणी में शामिल किया है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चुनाव अभियानों के दौरान खुद को विकास के एक चैंपियन की तरह पेश किया और इस दिशा में आने वाली बाधाओं से दो-दो हाथ करने का वादा किया था। उनका दावा था कि वे अमेरिका की खोती जा रही जमीन को वापस दिलाएँगे और अमेरिकी हितों को नुकसान पहुँचाने वालों को आवश्यक हुआ तो दंडित भी करेंगे। उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े उद्योगपति को अपने साथ लिया और सरकार का हिस्सा भी बनाया।
उनकी पहली उपलब्धि अमेरिकी हितों को पूरा करने के लिए पूरी दुनिया के देशों पर कर लगाने का निर्णय था। यह आँच इतनी तेज थी कि दुनिया के शेयर बाजार में ‘कत्लेआम’ की स्थिति बन गई। मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपनी बचत और निवेश के साथ ‘मर-खप’ गया। यह एक ऐसा क्षण था जब एक साथ पूरी दुनिया की सरकारों और उनके प्रमुखों ने बयान दिया और इस संदर्भ में कार्रवाई करने का निर्णय लिया।
डोनाल्ड ट्रम्प ने अब अपने यहाँ कोयला खदानों में उत्पादन बढ़ाने और इसके उपयोग में आ रही तकनीकी बाधाओं को खत्म करने का निर्णय लिया है। इसका उपयोग वे इंजीनियरिंग उद्योग को बढ़ाने, खासकर स्टील उत्पादन को तेज करने और बिजली की खपत को पूरा करने के लिए कर रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक ने बिजली की खपत को बढ़ा दिया है, ऐसे में बिजली की मांग तेजी से बढ़ रही है।
अमेरिकी ऊर्जा अधिनियम, 2020 में ‘जरूरी खनिज’ और ‘जरूरी वस्तु’ वे श्रेणियाँ हैं जो गैर-ईंधन, खनिज, तत्व या वस्तु हैं। अब इस श्रेणी में कोयले को शामिल करने की तैयारी शुरू हो गई है। यदि अमेरिका कोयले की व्याख्या इस श्रेणी में रखकर करता है, तो पूरी दुनिया के स्तर पर वह नायाब उदाहरण पेश करने जा रहा है।
अमेरिका ने ऊर्जा की खपत में पिछले दो दशकों में कोयले की हिस्सेदारी को कम करने की दिशा में कदम उठाए थे। 2014 में बिजली उत्पादन में कोयले की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत थी, जो पिछले साल तक घटकर 14 प्रतिशत तक आ गई थी। ट्रम्प प्रशासन ने आते ही कोयले के उपयोग में प्रदूषण नियंत्रण से जुड़ी तकनीकी बाध्यताओं को खत्म कर दिया। ट्रम्प को रूढ़िवादी विचारों के वाहक की तरह देखा जाता है। कोविड महामारी के दौरान उनका नजरिया वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं देखा गया। इसी तरह का उनका नजरिया पर्यावरण को लेकर भी देखा गया है।
यहाँ यह बात याद करने की है कि जब पर्यावरण बदलाव को लेकर संयुक्त राष्ट्र की सीओपी-28 की बैठक में मुख्य निर्णय कोयले और फॉसिल ईंधन स्रोतों, जिसमें पेट्रोलियम शामिल है, के उपयोग को कम से कमतर करने की दिशा में ले जाना था। साथ ही नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ाना था। लगभग एक लाख प्रतिनिधियों के जमावड़े के अंतिम समय में देशों के प्रतिनिधियों ने सीधी हिस्सेदारी की थी। इस सम्मेलन को ‘फॉसिल ईंधन उपयोग के खात्मे’ के लिए एक संक्रमणकालीन दौर के निर्माण की जिम्मेदारी दी गई थी।
कोयले का उपयोग न केवल कार्बन डाइऑक्साइड और इसके कई अन्य रूपों वाली गैसों का उत्सर्जन करता है, बल्कि इससे उत्पन्न होने वाली गैसों के साथ मौजूद कण साँस की गंभीर बीमारियों को जन्म देते हैं। इससे उत्पन्न होने वाली गैसें वातावरण को गर्म करने में अहम भूमिका निभाती हैं। यह तात्कालिक और दीर्घकालिक दोनों ही तरह का असर पैदा करती हैं। इसकी राख भूमि और जल को लंबे समय के लिए प्रदूषित कर देती है। इससे उत्पन्न होने वाली अम्लता नदियों, तालाबों, झीलों के जीवन को खत्म कर देती है।
पिछले डेढ़ सौ सालों में धरती के तापमान में हुई वृद्धि के पीछे कोयले और खनिजों की लूट और उनके अंधाधुंध उपयोग का वह दौर है जिसे उपनिवेशकाल कहा जाता है। यूरोप और अमेरिका इस तरह के विकास के केंद्र में थे। सीओपी की बैठकों में भारत, चीन, ब्राजील जैसे देश इतिहास के इन पन्नों का उदाहरण देते हुए और अपने देशों में दुनिया के कुल उत्सर्जन में हिस्सेदारी का अनुपात दिखाते हुए कोयले जैसे ईंधन के उपयोग पर अपनी दावेदारी करते रहे हैं। यह दावेदारी चाहे जितनी भी राष्ट्रवादी लगे, जमीनी स्तर पर इसका असर भयावह होता है।
कोयला हासिल करने की प्रक्रिया में न केवल गाँव के गाँव उजाड़ दिए जाते हैं, बल्कि उन इलाकों की नदियाँ और जीवन के अन्य स्रोत तेजी से नष्ट होने की ओर बढ़ते हैं। कोयले से बिजली बनाने के दौरान जितने बड़े पैमाने पर पानी का उपयोग होता है, वह एक अलग ही समस्या को जन्म देता है। भारत में कोयला खदानों के संदर्भ में विविध रिपोर्ट मौजूद हैं और इससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं को आसानी से समझा जा सकता है।
अमेरिका की बदली हुई नीति का असर निश्चित रूप से दीर्घकालिक होगा। खुद अमेरिका के जंगलों की आग वहाँ के जीवन को बर्बाद कर रही है। पूरा यूरोप इतिहास के सबसे कम जल-स्तर पर जूझ रहा है। ब्राजील और अन्य देशों में फैला अमेजन का जंगल और उसमें बहने वाली दुनिया की विशालतम नदी सूखने की ओर बढ़ रही है।
भारत का मैदानी क्षेत्र, जिसमें पानी का मुख्य स्रोत हिमालय है, वहाँ बर्फबारी की संख्या कम होने, ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने और बारिश की तीव्रता में वृद्धि तथा अवधि में कमी बाढ़ और सूखा दोनों को जन्म दे रही है। गर्म दिनों की संख्या में पिछले दस सालों में अभूतपूर्व वृद्धि देखी जा रही है। इन सबका असर आम जीवन पर पड़ रहा है।
साम्राज्यवादी और पूँजीपतियों की आकांक्षाओं को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के एक ऐसे मीठे जहर में लपेटकर पेश किया जा रहा है, जिससे पूरा समाज प्रदूषित हो रहा है और मौत का नंगा नाच हो रहा है। धरती और जीवन के बीच एक विशिष्ट संबंध है। एक पर प्रभाव दूसरे को प्रभावित करता है। आज यह जरूरी है कि हम न केवल मानव समाज के जीवन की रक्षा करें, बल्कि अपनी इस धरती को भी बचाएँ।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)
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