ग्राउंड रिपोर्टः बनारस की दर्जन भर मंडियों में कुचल रहे दिहाड़ी मजदूरों के अरमान, फिर भी नहीं भरता पेट, आखिर ये कैसी है मोदी की गारंटी?

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में बेरोजगारी का जबर्दस्त संकट है। इस शहर में दर्जन भर स्थानों पर रोजाना मजदूरों की मंडी लगती है। इस मंडी में हर रोज मजदूरों के अरमान बेचे और खरीदे जाते हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले ये मजूदर अब यह सवाल पूछ रहे हैं कि उनके सांसद नरेंद्र मोदी आखिर किस बात की गारंटी दे रहे हैं? मजदूरों के पास काम नहीं हैं। न बच्चे पढ़ पा रहे हैं और न ही बेटियों की शादी हो पा रही है…!

बनारस का तापमान जोरों से बढ़ रहा है, जो गर्मी के दिनों में 45 डिग्री तक पहुंच जाता है। भीषण गर्मी और बारिश के दिनों में इस शहर में रोजाना हजारों मजदूरों का हुजूम काम की तलाश में सुबह से ही लाइन लगाकर सड़कों के किनारे खड़ा हो जाता है। इनमें कुछ ईंटों की चिनाई करने का काम करते हैं तो कुछ ईंट-गारा ढोने का। मेनहोल का गटर साफ करने और सिर पर समान ढोने वाले भी काम की तलाश में लाइन लगाकर उन लोगों का इंतजार करते रहते हैं जो उन्हें काम दे सके। खनन, कंस्ट्रक्शन, खेती-किसानी, कारपेंटरी और भट्ठियों पर काम करने वाले असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का जीवन कैसा है और मोदी की गारंटी के बारे में उनका नजरिया क्या है? यह जानने के लिए हमने बनारस शहर में सड़कों की किनारे लगने वाली मजदूरों की कई मंडियों में पड़ताल की।

बनारस की मंडी में विकते मजदूर

बनारस के हुकुलगंज में लबे रोड पर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की मंडी लगती है। यहां से होकर कोई भी गुजरता है तो दिहाड़ी कामगारों की आंखों की चमक बढ़ जाती है और सबके सब घेर लेते हैं। फिर शुरू होता है मोलभाव। सरकार ने भले ही पांच सौ रुपये से ज्यादा दैनिक मजदूरी घोषित कर रखी है, लेकिन मजदूरों के काम का खुलेआम मोलभाव होता है। काम के बाद पैसे देने की बात आती है तो कई लोग पूरी मजदूरी देने से मना कर देते हैं।

कठिन है मजदूरों की जिंदगी

यह कहानी सिर्फ हुकुलगंज की मजदूर मंडी की नहीं, बनारस शहर में लगने वाली ऐसी दर्जन भर मंडियों में काम की तलाश करने वाले हजारों मजदूरों की है। ये मजदूर ऐसा इसलिए करते हैं ताकि वो अपना और अपने बच्चों का पेट पाल सकें। दिहाड़ी मजदूरों की जिंदगी कितनी कठिन होती है, यह आपको तब पता चलेगा जब उनकी आंखों में झांककर देखने की कोशिश करेंगे। उनके पथरीले हो चुके हाथ-पैर छूकर देखेंगे तो पता चल जाएगा तपती दोपहरी, ठंड और बारिश में सड़क के किनारे खड़े होकर अपनी मेहनत की बोली लगना कितना चुनौती भरा काम है?

बनारस से सटे जनपद चंदौली के कमालपुर के 45 वर्षीय अमृतलाल मजदूरों की मंडी में आकर रोज खड़े हो जाते हैं, लेकिन काम कभी-कभार ही मिल पाता है। इनके चार बच्चे हैं। महीने भर तक जद्दोजहद करने के बाद वो सिर्फ आठ-दस हजार ही कमा पाते हैं। वह कहते हैं, “हम ईंटों की चिनाई का काम करते हैं, लेकिन दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुश्किल हो गया है। हमारी बेटी सुनैना जवान हो गई हैं। हमें उसकी शादी की चिंता खाए जा रही है। पास में फूटी कौड़ी नहीं है। बेटियों के हाथ कैसे पीले होंगे, इस बात को लेकर हम परेशान हैं। यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर मोदी की गारंटी क्या है? “

काम के लिए रोज करना पड़ता है इंतजार

लहकती गर्मी और हरहराती लू में काम कैसे मिलता है, इस सवाल पर चोलापुर के 34 वर्षीय ऋषिकेश सिंह कहते हैं, “जब बनारस का पारा 45 डिग्री पर पहुंचता है तब काम ढूंढना आसान नहीं होता। मंडियों में खड़े होकर काम ढूंढना कोई आसान काम नहीं हैं। हमारी मजबूरी है, इसलिए हम हर मौसम में सड़क पर लाइन लगाने के लिए मजबूर हैं। हमने देखा है कि हमारे कई साथी लू के थपेड़ों से नहीं बच सके और उनकी जान चली गई। हमें वो दिन याद है जब साल 2017 में हुकुलगंज की लेबर सट्टी में सड़क किनारे लगे ट्रांसफार्मर में अचानक तेज धमाके के साथ आग लग गई थी।”

“हुकुलगंज की लेबर सट्टी में कई मजदूर वहीं नीचे चबूतरे पर बैठे थे। भरी दोपहरिया में लपटों के बीच खौलता ट्रांसफार्मर ऑयल नीचे चबूतरे पर बैठे मजदूरों पर गिर पड़ा। ट्रांसफार्मर के ऑयल के तेज रिसाव के चलते अशोक गुप्ता, शोभनाथ व अमरनाथ और रामसेवक बुरी तरह झुलस गए। बाकी मजदूरों में किसी तरह भागकर अपनी जान बचाई। ऐसी चुनौतियां हमें रोज झेलनी पड़ती हैं। डबल इंजन की सरकार की नाक के नीचे हर कोई लेबरों को लूट रहा है। वाजिब मजूरी भी नहीं मिल पा रही है। कई बार हमें मजबूरी में दो-तीन सौ रुपये की पगार पर काम पर जाना पड़ता है। हमें ऐसा न करें तो भूखों मर जाएंगे।”

इन मंडियों में बिकते हैं अरमान

बनारस में सिर्फ हुकुलगंज ही नहीं, मैदागिन, गोदौलिया, चेतगंज, सारनाथ, गुरुधाम, पांडेयपुर, सोनारपुरा, चंदुआ सट्टी, अर्दलीबाजार समेत दर्जन भर स्थानों पर मजदूरों की मंडियां लगती हैं और ज्यादातर दिहाड़ी मजदूरों की शिकायत यह है कि अधिक तनाव और ज्यादा काम के चलते उन्हें आंखों में जलन, उल्टी और सिर दर्द जैसी समस्या है। काम न करें तो ठीक भी हो जाते हैं। लेकिन काम कैसे छोड़ सकते हैं। मजबूरी है। हमारे न इलाज का कोई इंतजाम है और न ही मोदी सरकार काम की गारंटी दे रही है।

काम ढूंढने के लिए बिलबिला रहे चोलापुर के 26 वर्षीय गुड्डू राजभर और 35 वर्षीय राजन के पैरों में फटा हुआ जूता था, जिसमें से फटी हुई बिवाइयां साफ-साफ दिख रही थीं। राजन कहते हैं, “हम निचले सामाजिक-आर्थिक तबक़े से आते हैं और जानकारी के अभाव में सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं से भी वंचित रह जाते हैं। मोदी-योगी सरकार से मदद की उम्मीद लिए हर दिन बोझा उठाने निकलना पड़ता है। कभी-कभी हमें अपने हक के पैसों के लिए भी लड़ना पड़ता है। 112 नंबर पर शिकायत करने पर पुलिस हमें हमारा मजदूरी दिला देती है। लेबर कार्ड अभी तक बना नहीं है, जिससे और परेशानियां होती हैं। सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता। न ही कोई हमारी सुनने आता है। महंगाई ने हमें बुरी तरह तोड़ कर रख दिया है। हम चाहते हैं सरकार हमारा लेबर कार्ड बनाए, ताकि हमें मेहनत का पैसा मिलने में कोई दिक्कत न हो।”

मोदी की गारंटी पर उठ रहे सवाल

भदोही के जलालपुर के काम के लिए बनारस आए 35 वर्षीय पिंटू कहते हैं, “बनारस के सांसद मोदी देश के पीएम भी हैं। वो गारंटी देने का नारा दे रहे हैं तो वो हमें काम दिलाने की गारंटी कब दिलाएंगे? वैसे भी नेताओं के ऐस जुमलों को सुनकर हम आजिज आ चके हैं। मजदूरों के पास काम नहीं है। कई तो भोजन के बगैर ही मर रहे है। सरकार से कोई सुविधा नहीं मिल रही है। धूप और गर्मी में हम लोग पूरे दिन काम के लिए आते हैं, पर कभी कभी दो वक्त की रोटी के लिए भी पैसे नहीं जुटा पाते।”

झूठी है मोदी की गारंटी

लेबर मंडी में खड़े 50 वर्षीय रामलखन उदास नजर आए। दोपहर तक उन्हें कोई काम नहीं मिल पाया था। वो घर लौटने की तैयारी में थे। जिंदगी कैसे कट रही है? यह सवाल पूछने पर वो अपने सिर के बालों को खुजलाने लगते हैं। बाद में एक लंबी सांस खींचते हैं और कहते हैं, “हुजूर, हम हजार-दो हजार कमाकर इसी में गुजारा कर लेते हैं। हमारा श्रमिक कार्ड नहीं बना है।” दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाले 34 वर्षीय ऋषिकेश की भी यही कहानी है। वह कहते हैं, “काम के बाद मालिक दिहाड़ी पूरी देने में आना कानी करते हैं। बस जीवन किसी तरह कट रहा है। सरकार से ज़्यादा हमें अपने पांवों पर भरोसा है। लोगों का पहला भरोसा तो यही टूटा है कि गारंटी देने वाली बीजेपी सरकार मेरे लिए कुछ करेगी, लेकिन उनका मेरे ऊपर नहीं है।”

50 वर्षीय रामलखन वर्मा ईंट-गारे के काम करते हैं। वह कहते हैं, “हमें रोजाना तीन-चार सौ रुपये की दिहाड़ी मिलती है। मैं अपने घर दो तीन महीने से कोई पैसा नहीं भेज पाया। हमारे पास एक कप चाय ख़रीदने तक के लिए पैसे नहीं बचे हैं। फिलहार अपने कुछ मजदूर साथियों के रहमो-करम पर हम जिंदा हैं। हमारी जिंदगी में झंझावत तब से ज्यादा बढ़ा है जब कोरोना की महामारी फैली। पहले हमें ईंट-गारा ढोने का काम आसानी से मिल जाया करता था। अब मुश्किलें ज्यादा हो गई हैं। जो हाथ से करने वाले काम है वह भी ठप पड़ता जा रहा है। राज मिस्त्री के कारीगरों के पास भी काम नहीं है। जब से कंपनियां ठेके पर मजदूरों को लेकर आने लगी हैं तब से हमारी दुश्वारियां अधिक बढ़ गई हैं। मोदी की गारंटी झूठी है। हमारे अरमानों और उम्मीदों को कुचलकर कोई गारंटी दी जाएगी, तो हम भी नहीं भूलेंगे। लफ्फाजी भरे नारों का जवाब हम अपने वोट से देंगे।”

हमें रोजाना तीन-चार सौ रुपये की दिहाड़ी मिलती है

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, “साल 2001 से लगातार हर रोज़ दस  हज़ार लोग किसानी छोड़कर खेतिहर मज़दूर बन रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते दिहाड़ी मजदूरों के हालात ज्यादा खराब हो गए हैं। पिछली मर्तबा बनारस में भीषण गर्मी पड़ी और ठंड आई तो कई दिनों तक लोगों को कंपाती रही। भोजूबीर स्थित मजदूरों की मंडी में खड़े चौबेपुर के धर्मेंद्र कुमार और पिसौरा के सुरेश कहते हैं, “मौसम अनुकूल है, इसलिए थोड़ी गनीमत है। पिछले साल गर्मी के दिनों में दोपहर 12 बजे ही सड़कों पर सन्नाटा खिंच जाता था। बढ़ती गर्मी हमारे रोज़गार के लिए और ज्यादा ख़तरा पैदा करेगी तो हम अपना और अपने बच्चों का पेट कैसे पालेंगे?कौन हमारी मदद करेगा? मोदी सरकार से तो कोई उम्मीद नहीं है। अब बस भगवान का ही सहारा है।”

मजदूरों के प्रति सहानुभूति नहीं

बनारस में असंगठित क्षेत्र के बदहाल मजदूरों की जिंदगी सुधारने में जुटे एक्टिविस्ट सौरभ सिंह और उनकी पत्नी मीरा कहती हैं, “कामकाजी मज़दूरों के प्रति किसी की कोई सहानुभूति नहीं है। वे उपयोगी ज़रूर हैं, लेकिन वो प्राथमिकताओं के दायरे से बाहर हैं। कोरोना के संकटकाल में दिहाड़ी मजदूरों की समस्याएं सामने जरूर आईं और देश भर को यह भी पता चल गया कि ये लोग ही भारतीय अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े इंजन हैं। सबकी जिंदकी की गारंटी देने का दावा करने वाले नरेंद्र मोदी बनारस की मजदूर मंडियों में लाइन लगाए कामगारों के अस्तित्व को स्वीकार करने तक के लिए तैयार नहीं है।”

सौरभ यह भी कहते हैं, “मुझे ऐसा लगता है कि दिहाड़ी मज़दूरों ने खुद को बेहद मामूली समझा लिया है। हालांकि वो भी सम्मान चाहते हैं, लेकिन इस बात को कोई नहीं समझ रहा है। कुल मिलाकर दिहाड़ी मजदूरों के हालात बहुत ख़राब होने वाले हैं। पूंजी और श्रम के लिए अविश्वास अच्छा नहीं है। श्रम बनाम पूंजी का विचार शुरुआत से ही अच्छा तरीका नहीं हो सकता। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए श्रमिक यूनियनों को ख़राब समझा जाना उचित नहीं है। यूपी जैसे राज्यों ने श्रम क़ानून को ही निलंबित कर दिया है। लगता है कि बीजेपी सरकार बंधुआ मज़दूरी और गुलामी को संस्थागत रूप दे रही है। दिड़ाही मज़दूरों की वास्तिवक स्थिति और उनके उत्पीड़न की सामाजिक सच्चाई को मोदी सरकार भी समझने के लिए तैयार नहीं है। यही वजह है कि श्रमिकों का इस सरकार से भरोसा टूटता जा रहा है। मोदी की गारंटी पर इन्हें तनिक भी भरोसा नहीं है।”

दिहाड़ी मज़दूरों ने खुद को बेहद मामूली समझा लिया है

संयुक्त राष्ट्र संघ की हालिया एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2030 तक भारत में ऐसी 3.4 करोड़ लोगों के पास कोई काम ही नहीं बचेगा। बनारस की एक्टिविस्ट श्रुति नागवंशी कहती हैं, ” मुझे इस बात का अचरज है कि सिर्फ 3.4 करोड़ नौकरियों जाने के आंकड़े दिए गए हैं। हमारी जानकारी के मुताबिक़, आने वाले समय में इससे कहीं ज़्यादा लोगों की रोज़ी-रोटी प्रभावित होगी। दिहाड़ी मजदूरों का दुख तकलीफ सुनकर तो यही लगता है कि, सरकारें मजदूरों के हित के लिए योजनाएं तो कई निकालती है, पर इनका फायदा इन मजदूरों को होता नहीं दिख रहा। कई राजनीतिक दलों ने अपने मजदूर संगठन भी बना रखे हैं। सभी दल दावा करते हैं कि उनका दल मजदूरों के भले के लिए काम करता है। हकीकत इससे कहीं उलटी हैं। मेहनत-मजूरी करने वाले ज्यादातर लोग बगैर मास्क, दस्तानों और सुरक्षा इंतजामों के बगैर काम करते हैं ताकि अपने बच्चों के लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ कर सकें।”

एक्टिविस्ट चौधरी राजेंद्र सिंह कहते हैं, “असंगठित क्षेत्र के दिहाड़ी मजदूरों की हालत बद से बदतर है। यूपी में सरकार अब खुल लोगों को बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने लगी है। आंगनवाड़ी, आशा और मिड-डे मील कार्यकर्ता सरकारी विभागों में बंधुआ मज़दूर की तरह हैं। आंगनवाड़ी में काम करने वालों को (जिनमें अधिकतर महिलाएं होती हैं) आज तक कर्मचारी ही नहीं माना गया, बल्कि उन्हें स्वेच्छासेवी माना जाता है। पहले मज़दूरों के हक़ों के लिए त्रिपक्षीय परामर्श बैठकें होती थीं जिनमें सरकार, मज़दूरों के प्रतिनिधि और कंपनी के नुमाइंदे रहते थे, लेकिन मोदी सरकार आने के बाद इस व्यवस्था को ख़त्म कर दिया गया है।”

मजदूरों को बंधुआ बना रही सरकार

बनारस में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जिला सचिव नंदलाल पटेल बताते हैं, “ईज़ ऑफ़ बिज़नेस के तहत विदेशी पूंजी को देश में लाना है और देश में भी पूंजीपतियों को बढ़ावा देना है तो ट्रेड यूनियन का एक्टिविज़म नहीं चलेगा। इस कारण ट्रेड यूनियनों को कमज़ोर किया जा रहा है। देश की आज़ादी के बाद में देश में श्रमिकों के लिए करीब 44 क़ानून बनाए गए थे। मोदी सरकार ने सोशल सिक्यॉरिटी कोड, वेतन (और बोनस) संबंधित कोड, कार्यस्थल पर सुरक्षा संबंधी कोड और इंडस्ट्रियल रिलेशन्स कोड आदि कानून को करीब-करीब समेट दिया है। मोदी लोगों का जीवन सुधारने का नहीं, बल्कि झूठ बोलने की गारंटी दे रहे हैं। बीजेपी सरकार कामगारों के खिलाफ कायदा-कानून बनाती जा रही है।”

बनारस की मंडियों में रोज हजारों मजदूर घंटों करते हैं काम के इंतजार

नंदलाल यह भी कहते हैं, ” कामगारों के लिए जो क़ानून बने थे, वे कॉर्पोरेट हाउस के दवाब में मसल दिए गए हैं। हमने लगता है कि आने वाले दिनों में दिहाड़ी कामगारों के लिए काम के अवसर ही खत्म हो जाएंगे। वैसे भी हमारे श्रम क़ानून बेहद सुस्त हैं और विकास के रास्ते में रोड़े की तरह हैं। “सरकार कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरियां देने को बढ़ावा दे रही है जिसके चलते कामगारों को इंश्योरेंस, पीएफ, ग्रैच्युटी की जो सुविधाएं मिलनी चाहिए उन्हें वो नहीं मिल पा रही हैं। सरकार ने अब यह कानून भी बना दिया है कि कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म होने पर या किसी नोटिस के बदले वो वेतन नहीं ले सकेंगे। ये क़ानून मज़दूरों को लूटने के लिए बनाया गया है। कारपोरेट घरानों के हित में सरकार सीधे-सीधे ट्रेड यूनियन में घुसना चाहती है ताकि कोई अपने हक की आवाज न उठा सके और साल दर साल कामगारों का शोषण व उत्पीड़न होता रहे।”

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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