अमेरिकी साम्राज्यवाद को आर्थिक जवाब

अमेरिकी नेतृत्व में साम्राज्यवादी देश, ऐसे तमाम देशों पर एकतरफा प्रतिबंध लगाते रहे हैं, जो उनके आदेश निर्देश को मानने से इनकार करते रहे हैं, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन भी प्राप्त नहीं रहा है।

एक अनुमान के अनुसार कभी न कभी दुनियां के एक तिहाई देशों पर प्रतिबंध लग चुका है। इन प्रतिबंधों में पश्चिमी वित्तीय संस्थाओं में जमा उन देशों के संसाधनों को freeze कर देना शामिल है, जैसा एक समय ईरान, क्यूबा, उत्तरी कोरिया के साथ हुआ था और और अभी हाल में रूस के साथ हुआ। हालांकि इस तरह संसाधनों को freeze करना पूंजीवादी खेल के नियमों के विरुद्ध है और एक तरह की अंतर्राष्ट्रीय डकैती है, लेकिन साम्राज्यवादी देशों को इसे थोपने में कोई हिचक नहीं है।

जले पर नमक छिड़कते हुए अमेरिका ने रूस के जब्त किए हुए संसाधनों पर ब्याज को NATO द्वारा उत्प्रेरित युद्ध में यूक्रेन को ही उसके युद्ध में मदद में दे दिया। इसके साथ ही जहां नवउदारवादी नीतियां दक्षिणी गोलार्ध के देशों पर थोपी जा रही हैं, इस पूरी तरह दिखावटी लेकिन बार-बार दुहराए जाने वाले तर्क के आधार पर कि वह उनके लिए फायदेमंद हैं, अमेरिका स्वयं अपने देश में संरक्षणवादी नीतियां लागू कर रहा है, ताकि घरेलू रोजगार बढ़ाया जा सके और बजट घाटा कम किया जा सके। इस संरक्षणवाद की धार सबसे मुखर रूप से चीन के खिलाफ केंद्रित रही है।

और अब डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि वे इसे और सख्त करने जा रहे हैं। चीन से आने वाले सामान पर कर को वे और बढ़ाने जा रहे हैं। क्योंकि उनके अनुसार अवांछित ड्रग का चीन से आयात जारी है जबकि उनके नेतृत्व ने इसे रोकने का वचन दिया था।  संक्षेप में अमेरिकी साम्राज्यवाद यह समझता है कि वह जो चाहे वह कर सकता है, वह अपने आप में कानून है।

उसकी नीतियां पूंजीवादी खेल के नियमों का उल्लंघन करती हैं, भले ही वे उन सिद्धांतों का उल्लंघन करती हों जिसका वह पूरी दुनिया को पाठ पढ़ाता है, उसे इस सब से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यह एकतरफा दूसरे देशों पर जो अपनी इच्छा थोप रहा है, उसे अब गंभीरतापूर्वक चुनौती दी जा रही है। दरअसल जस का तस जवाब मिल रहा है।

चीन को सेमी कंडक्टर टेक्नोलॉजी के निर्यात पर प्रतिबंध के खिलाफ चीन ने अमेरिका को antimony के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया जिसका उपयोग सुरक्षा से जुड़े अनेक कामों में होता है। इससे एंटीमनी का दाम अमेरिका में बहुत बढ़ गया है। अभी हाल ही में चीन ने यह ऐलान करके की वह अमेरिका से तेल खरीदना पूरी तरह बंद कर देगा, उस पर जबरदस्त प्रहार किया है।

अमेरिका से चीन को तेल का आयात काफी बाद में शुरू हुआ था। 2023 में चीन ने 150.6 मिलियन बैरल तेल का आयात अमेरिका से किया था जो 2024 में घटकर 81.9 मिलियन रह गया अर्थात लगभग 46%की गिरावट हो गई। चीन की स्थिति बदल गई, अमेरिकी तेल का दूसरे नंबर का आयातक होने से घटकर वह छठवें नंबर पर पहुंच गया। और अब वह अमेरिका से तेल का आयात पूरी तरह बंद करने जा रहा है।

चीन की इस घोषणा से ट्रंप बेहद नाराज हैं जिनके नेतृत्व में अमेरिका तेल और गैस का दुनियां में सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक बन गया था। 2022 में जो नॉर्ड स्ट्रीम गैस पाइप लाइन उड़ा दी गई थी, जिसे अमेरिकी पत्रकार सीमोर हर्ष का मानना है कि CIA का काम था, वह रूसी गैस पर यूरोप की निर्भरता को खत्म करने के लिए था और उसकी जगह इसे अमेरिकी आपूर्ति पर और अधिक निर्भर बनाने के लिए था। ठीक यही उसके बाद हुआ है। अमेरिकी तेल के आयात पर प्रतिबंध की चीनी कार्रवाई अमेरिकी ऊर्जा स्रोतों के लिए निर्यात बाजार की तलाश था तमाम देशों को अमेरिकी तेल के आयात पर निर्भर बनाने की अमेरिकी नीति के खिलाफ है।

दरअसल अमेरिकी तेल पर प्रतिबंध अमेरिकी व्यापार प्रतिबंधों के खिलाफ बदले की कार्रवाई भी है साथ ही अमेरिका पर अपनी निर्भरता घटाने का भी कदम है ताकि भविष्य में उसके बांह मरोड़ने की किसी कार्यवाही पर रोक भी लगाई जा सके। यह भी सोचने लायक है कि किस तरह चीन अमेरिका से होने वाले आयात की पूर्ति करेगा। अमेरिका से होने वाले आयात के अभाव की पूर्ति रूस, ईरान और वेनजुएला से और बढ़े हुए आयात के माध्यम से होगी। ये वो तीन देश हैं जो अमेरिकी प्रतिबंधों के सबसे बड़े निशाने पर रहे हैं। इन प्रतिबंधों के कारण इन देशों से तेल इस समय सस्ते दामों पर उपलब्ध है। चीन के लिए रूसी तेल, अमेरिकी तेल से सस्ता पड़ेगा।

तो इस तरह अमेरिका पर निर्भरता से मुक्त होने के साथ ही, नई व्यवस्था में चीन को तेल भी सस्ता मिलेगा।
इसके विपरीत, अमेरिका ने यूरोपी ऊर्जा बाजार पर कब्जा करके जहां बड़ी जीत हासिल की थी, वह अब चीनी बाजार खो देगा। और अब उससे फायदा नहीं उठा पाएगा।

इस संदर्भ में ट्रंप की नाराजगी आश्चर्यजनक नहीं है। ट्रंप चीन पर व्यापार युद्ध छेड़ने का आरोप लगा रहे हैं। जब कि सच्चाई यह है कि चीन अपने खिलाफ अमेरिका द्वारा छेड़े गए व्यापार युद्ध से अपनी रक्षा के लिए कदम उठा रहा है।

अमेरिका के एकतरफा उपाय जो अबतक अमेरिकी साम्राज्यवाद के नक्शे कदम पर चलने के लिए असहाय देशों को धमकाने का माध्यम थे, वे अब एक नई वैश्विक व्यवस्था को जन्म दे रहे हैं जो अमेरिकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवाद के आर्थिक प्रभुत्व को ढीला करेंगे।

जब तक अमेरिकी कार्रवाइयां कुछ चुनिंदा छोटे असहाय देशों के खिलाफ केंद्रित थीं, ऐसे कदम प्रभावी हो सकते थे और लक्षित देश साम्राज्यवादी वर्चस्व की मातहती के लिए मजबूर किए जा सकते थे। लेकिन जब ऐसी कार्रवाइयां तमाम देशों के बड़े समूह को निशाना बनाने लगती हैं, तब एक वैकल्पिक व्यवस्था अपने आप उभरने लगती है। साम्राज्यवादी वर्चस्व दरकने लगता है, अगर वह दुनियां के एक तिहाई देशों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई करने लगता है। इस सबका डालर की भूमिका पर भारी असर पड़ना तय है।

चीन का रूस, ईरान, वेनेजुएला से ऊर्जा आयात, जिसमें से दो ब्रिक्स में शामिल हैं, तीसरा भविष्य में शामिल होने वाला है, का अर्थ है कि ब्रिक्स देशों में आपसी व्यापार बढ़ने वाला है। यह व्यापार अनिवार्यतः अमेरिकी डॉलर में नहीं होगा। डालर ब्रिक्स देशों के बीच आदान-प्रदान का माध्यम नहीं होगा। हालांकि ब्रिक्स देशों के बीच मुद्रा व्यवस्था का अंतिम रूप अभी तय नहीं है, यह तय है कि उनके बीच व्यापार में डॉलर का वर्चस्व नहीं होगा।

दरअसल ब्रिक्स देशों की कजान शिखर वार्ता का यही संदेश था। चीन के अमेरिका से तेल आयात पर प्रतिबंध से ब्रिक्स देशों में व्यापार ही नहीं बढ़ेगा बल्कि वैकल्पिक मुद्रा व्यवस्था को भी मजबूत करेगा जो डॉलर के वर्चस्व को चुनौती देगा। निश्चय ही डॉलर का विस्थापन एक दिन में नहीं होगा लेकिन यह साफ है कि उसके वर्चस्व की अवमानना शुरू हो गई है। यह एक संभावनामय मुक्तिदाई विकास है। नवउदारवादी व्यवस्था जो वैश्विक दक्षिण को अपने शिकंजे में जकड़े हुए है, अब एक अंधी गली में फंस गई है और वहां की मेहनतकश जनता की बदहाली को और बढ़ा रही है।

जाहिर है नवउदारवाद के अंतर्गत ही नवउदारवाद के संकट के अंत का कोई सवाल ही नहीं उठता। इस व्यवस्था से अलग होने में पर्याप्त संक्रमणकालीन तकलीफ निहित है, और यह ठीक उन्हीं लोगों के लिए जिनके हित ऐसी अलग व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। यह तकलीफ दोनों कारणों से है, नवउदारवाद की स्वतः स्फूर्त व्यवस्था के कारण भी और जो साम्राज्यवादी प्रतिबंध लगेंगे उसके कारण भी।

उदाहरण के लिए यदि वैश्विक दक्षिण का कोई देश अपने राष्ट्र राज्य की स्वायत्तता को पुनर्जीवित करने के लिए ताकि वह पूंजी पलायन के भय के बिना जनपक्षीय एजेंडा लागू कर सके, पूंजी पर नियंत्रण थोपता है, वह पाएगा कि अल्पावधि में वह अपने व्यापार घाटे को पूरा नहीं कर सकता क्योंकि उसके यहां पूंजी नहीं आएगी। यह व्यापार नियंत्रण को भी अनिवार्य बना देगा जो आंतरिक बाजार में सामानों की उपलब्धता को कम कर देगा और इसलिए मेहनतकश जनता की मांग को भी संक्रमण काल में कम कर देगा।

वैकल्पिक व्यापार और मुद्रा व्यवस्था इस संक्रमणकालीन तकलीफ को कम कर सकती है। खास तौर से अगर यह व्यवस्था द्विपक्षीय व्यापार का रूप लेती है, जैसा सोवियत संघ अपने समय में वैश्विक दक्षिण के तमाम देशों के साथ करता था। इसलिए नवउदारवादी व्यवस्था से टूट कर तमाम देशों के अलग होने की संभावना बढ़ रही है। चीन की वैकल्पिक तेल आयात की कार्रवाई इसी संभावना को रेखांकित कर रही है।

( People’s Democracy से साभार, अनुवाद लाल बहादुर सिंह )

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