बिजली का काम लोगों की जिंदगी में अंधेरा नहीं, प्रकाश करना है!

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किसी जुगनू की तरह मुझे उड़ जाने दो 

घने अंधेरे में जरा रोशनी तो फैलाने दो 

बीसवीं सदी में यह काम बिजली ने किया, रोशनी की आवश्यकता आदिकाल से रही है। पाषाण काल, अनुमानित 25 से 20 लाख साल पहले, पत्थरों को रगड़ने से पैदा हुई आग को रोशनी के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। बीसवीं शताब्दी में बिजली प्रकाश प्रबंध का अनिवार्य हिस्सा बन गई तथा लगातार सरकारों के सामने प्रत्येक गांव में आबादी के अंतिम छोर तक बिजली पहुंचाना पंचवर्षीय योजनाओं का आवश्यक अंग बना।

शुरुआत में बिजली उत्पादन में प्राइवेट कंपनियां ही आयीं परंतु अब 80% उत्पादन सरकारी क्षेत्र में है। मांग के अनुसार उत्पादन बढ़ाने की अभी भी जरूरत है। बेहतर होगा कि बिजली बचाने के लिए नागरिकों के बीच जागरूकता अभियान निरन्तर चले।  बिजली को समाज की वास्तविक आवश्यकता मानकर  सरकार को इसके वितरण को व्यापार के समकक्ष न रख,  सामाजिक बंदोबस्त के उत्तरदायित्व के अधीन रखना चाहिए अर्थात बिजली को नफा-नुकसान का उपक्रम नहीं माना जाना चाहिए। जाहिर है, कम आय वर्ग के लिए न्यूनतम आवश्यकता तक सस्ती तथा अधिक उपभोग करने वालों को उससे उच्च दर पर सप्लाई की जाए। एक सामान्य कमरे में 20 वाट का एलईडी तथा एक पंखा जरूरत मानकर योजना तय हो। दिल्ली प्रदेश सरकार ने इस दिशा में कुछ प्रयास किया है। जरूरी नहीं कि दिल्ली मॉडल सभी राज्य सरकारें अपनाएं, किन्तु मूल्य तार्किक हो।

उत्तर प्रदेश में घरेलू बिजली की दरें 150-150 यूनिटों के साथ वर्तमान में 50 पैसे प्रति यूनिट के स्लैब में बढ़ती हैं, जो ₹ 5.50 से ₹7.00 प्रति यूनिट तक पहुंचती हैं। वाणिज्य कनेक्शन में पहले 300 यूनिट पर ₹7.50, 301 से 1000 यूनिट तक ₹8.40 व इससे अधिक पर ₹8.75 की दर लागू होती है। इसके अतिरिक्त घरेलू बिजली पर ₹110.00 प्रति किलो वाट स्थाई चार्ज तथा वाणिज्य में दो-दो किलो वाट पर ₹330.00, 390.00  व 450.00 हैं। बिल  राशि पर 5% व 7% विद्युत शुल्क का अतिरिक्त प्रभार है। वाणिज्य वर्ग में सर्वाधिक आपत्ति न्यूनतम शुल्क पर है क्योंकि उपभोग न होने के बावजूद आवंटित लोड पर न्यूनतम बिल अवश्य आता है। इसका दुष्परिणाम है कि उपभोक्ता न्यूनतम शुल्क  तक बिजली खर्च करने को स्वाभाविक रूप से उकसित हो जाता है। यह बिजली बचत के विपरीत नियत  बनाता है। लॉकडाउन में सर्वाधिक असंतोष तीन महीने प्रतिष्ठान पूर्णतया बंद होने के बावजूद वाणिज्य उपभोक्ताओं को न्यूनतम शुल्क के कारण सामान्य की तरह बिजली बिल मिलने पर रहा।

इलेक्ट्रिसिटी सेविंग मैनेजमेंट को प्रभावशाली बनाने के लिए प्रदेश सरकार को बिल के साथ सभी स्लैबों की दरों का उल्लेख करना चाहिए। अभी तक कंसोलिडेटेड बिल आने के कारण उपभोक्ता यह जांच ही नहीं पाता कि वह मामूली खपत कम कर निचले स्तर के स्लैब में आ जाएगा जो बिजली बचाने के लिए बड़ी पहल होगी। 

विगत 100 वर्षों के संघर्ष के बाद विश्व को उपभोक्ता हितार्थ अधिकार प्राप्त हुए जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण दर को जानने का अधिकार है। उपभोक्ताओं द्वारा यह आपत्ति लगातार दर्ज कराई जाती रही है कि बिजली बिल पर दरों का उल्लेख न होने  से उनके संरक्षित नागरिक अधिकार का उल्लंघन है परंतु सरकार ने इस ओर कान बंद किए हुए हैं जबकि यह सरकार के फायदे की बात है।

पूर्व में बिजली उत्पादन व वितरण में निजी कंपनियों के एकाधिकार से उत्पन्न जन-असंतोष के कारण सरकार ने उत्पादन व वितरण अपने हाथ में लिया जिससे सेवा को गुणवत्ता के साथ अनुशासित व्यवस्था के अंतर्गत लाया जाए परंतु अब सरकारी लापरवाही परिलक्षित हो रही है। मीटर फास्ट की शिकायतें आम हैं। बिल बनाने में लापरवाही की सीमा टूट चुकी है। विद्युत सप्लाई कोड में 30 दिन की रीडिंग लेकर बिल बनाने का प्रावधान होने के उपरांत भी 15 से 45 दिन तक के अव्यवस्थित बिल बन रहे हैं जो उपभोक्ताओं के पॉकेट पर सीधा कुठाराघात है।

बार-बार यह ध्यान दिलाया जाना अर्थहीन हो गया है कि विद्युत राज्य के सेवा क्षेत्र में है। इसके मूल्य में प्रतिवर्ष वृद्धि अनुचित है फिर भी चुनावी वर्ष को छोड़ प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है तथा दरें अनुमानित 12% की छलांग के साथ आगे बढ़ रही हैं। सर्वाधिक विरोध ग्रामीण क्षेत्र में की जा रही मूल्य वृद्धि का है। यह कृषि आधारित अर्थशास्त्र  के विरुद्ध है। कृषि, कुटीर उद्योग, सूक्ष्म व लघु उद्योगों को बिजली सस्ती देने से जीडीपी का सीधा रिश्ता है। सस्ता माल बाजार को गति देता है तथा अलाभकारी होती कृषि को सहारा देना राज्य के उत्तरदायित्व का भाग होना चाहिए। आम जनता के मन में शंका उठ रही है कि क्या दो दुधारू पशु रखने मात्र से बिजली का  भुगतान वाणिज्य  के दायरे में लाना हास्यास्पद  नहीं होगा?

जहां-जहां वितरण निजी क्षेत्र में आवंटित किया जा रहा है वहां की स्थिति अधिक चिंताजनक हो रही है। निजी कंपनियां ठेका लाभ कमाने के उद्देश्य से ही लेती हैं जो सरकार के सामाजिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के विपरीत है तथा इसे नितांत अविवेकपूर्ण इसलिए भी कहा जाता है कि निजी कंपनियों के साथ तमाम सरकारी इंजीनियरों व अधीनस्थ कर्मचारियों का अमला ‘ज्यूं का त्यूं’ रह कर खर्च में कटौती नहीं करता।

देखना यही है कि सरकार बिजली का व्यापार छोड़, रोशनी फ़ैलाने के मूल उत्तरदायित्व की और कब लौटती है ?

(गोपाल अग्रवाल समाजवादी चिंतक व लेखक हैं और आजकल मेरठ में रहते हैं।)

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