‘फुले’ फिल्म को लेकर जिस तरह का तूमार खड़ा किया जा रहा है, वह केवल उतना नहीं है, जितना दिखाया या बताया जा रहा है। यह नहीं कि अनुराग कश्यप नामक किसी फिल्म निर्देशक ने सेंसर बोर्ड की काट-छाँट को लेकर सोशल मीडिया पर अपनी असहमति जताई, और उस असहमति पर ट्रोल गिरोह की ओर से आई उकसावे वाली टिप्पणी पर खीजकर कोई टाला जा सकने योग्य क्रिया-पद लिख दिया। यदि बात इतनी ही होती, तो उस शब्द के लिए अनुराग कश्यप के एक नहीं, दो-दो बार सार्वजनिक रूप से माफी माँगने के बाद खत्म हो जानी चाहिए थी। मगर ऐसा नहीं हुआ-क्योंकि इसकी शुरुआत अनुराग कश्यप के उस एक शब्द से हुई ही नहीं थी।
‘फुले’ फिल्म को सेंसर बोर्ड का प्रमाणपत्र मिल चुका था। जिनके जीवन पर यह बनी है, उनके जन्मदिन पर सिनेमाघरों में इसे दिखाया जाना तय भी हो चुका था। जैसे ही इसका ट्रेलर जारी हुआ, वैसे ही कथित ब्राह्मणों के कुछ स्वनियुक्त, स्वयंभू संगठनों ने इस फिल्म के कई दृश्यों, संवादों, पात्रों और चरित्रों को लेकर अपने पोथी-पत्रों से सेंसर बोर्ड को लाद दिया। लड़कियों और महिलाओं की पाठशाला के लिए जाती सावित्रीबाई फुले पर गोबर और पत्थर फेंकने, ‘मांग’, ‘महार’, ‘पेशवाई’ जैसे शब्दों को हटाने, तीन हजार साल पुरानी गुलामी वाले संवाद से ‘तीन हजार’ हटाने जैसी माँगें उठाई गईं।
मोदी राज में सेंसर बोर्ड का गठन ही इस तरह किया गया है ताकि फिल्मों को भी उनके राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जा सके। ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘केरल स्टोरी’ और ‘छावा’ जैसी विषाक्त फिल्में बिना किसी काट-छाँट के धड़ल्ले से झूठ और अर्धसत्य दिखा सकती हैं, लेकिन इतिहास में सचमुच सकारात्मक योगदान देने वाले व्यक्तित्वों के संदेश को नहीं जाने दिया जा सकता। ‘फुले’ फिल्म पर चलाई जाने वाली यह कैंची उनकी लड़ाई और योगदान दोनों को ही अदृश्य कर देती है।
मगर इतने सारे कट्स के बाद भी कथित चाणक्य सेना, सर्व ब्राह्मण महासभा, ब्राह्मण सेवा संघ, अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा, विश्व ब्राह्मण परिषद, अखिल भारतीय ब्राह्मण संघ, ब्राह्मण रक्षा मंच जैसे अजब-गजब नामधारी संगठन मोर्चे पर डटे हैं और सरकार से फिल्म पर रोक लगाने की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस फिल्म के जरिए “पंडितों और ब्राह्मणों को अपमानित किया गया है, ब्राह्मण पंडितों के चरित्र को खलनायक के रूप में दिखाया गया है,” वगैरह-वगैरह!
कहने की जरूरत नहीं कि इन सबकी चिंता में ब्राह्मण नामक प्राणी नहीं है; इनकी चिंता में वह प्रणाली है, जिसे ब्राह्मणवाद के नाम से जाना जाता है। ऐसा नहीं कि उन्हें इन दोनों के बीच का अंतर नहीं पता। ऐसा भी नहीं कि वे यह नहीं जानते कि छुआछूत की अमानवीय पराकाष्ठा, शूद्रों को ही नहीं, सवर्णों और यहाँ तक कि ब्राह्मण जाति में जन्मी महिलाओं को भी शिक्षा और सामान्य नागरिक जीवन से वंचित करने वाली थी।
पेशवाशाही के दौरान यह और भी यातनापूर्ण हो गई थी। इससे लड़ने वाले जोतिबा और सावित्रीबाई फुले का साथ देने वालों और सत्यशोधक समाज नामक संस्था के जरिए इसे एक ताकतवर सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन में बदलने वालों में फातिमा शेख ही नहीं, विनायक बापूजी भंडारकर, विनायक बापूजी डेंगले और सीताराम सखाराम दातार जैसे उनके वे मित्र भी अगली कतार में थे, जो जन्मना ब्राह्मण थे।
कोई व्यक्ति किस जाति में जन्म लेना है, इसका चुनाव नहीं कर सकता, मगर अपनी और समाज की चेतना को किस तरह विकसित और परिष्कृत करना है, इसका चुनाव तो कर ही सकता है। ऐसे अनेक जन्मना सवर्ण लोग सामाजिक कुरीतियों की लड़ाई में शामिल रहे हैं, उसके अगुआ भी रहे हैं। ठीक यही बात बापूसाहेब सहस्रबुद्धे के नाम से मशहूर गंगाधर नीलकंठ ने मनुस्मृति को आग लगाते हुए कही थी। उन्होंने कहा था कि ब्राह्मणवाद की बेड़ियों का साकार रूप यह मनुस्मृति सिर्फ शूद्रों या स्त्रियों के खिलाफ नहीं है; यह सभ्य समाज की अवधारणा के ही खिलाफ है, और जो भी मानवता और समानता में विश्वास करता है, वह ऐसी प्रणाली को धिक्कारकर ही ऐसा कर सकता है।
सहस्रबुद्धे जन्मना ब्राह्मण थे और जीवनभर डॉ. आंबेडकर के साथ उनकी छाया की तरह रहे। महाड़ के चावदार तालाब के पानी के लिए हुए सत्याग्रह के संयोजक, प्रबंधक और समन्वयक अनंत विनायक चित्रे भी जन्मना ब्राह्मण ही थे। होने को तो नरेंद्र दाभोलकर भी ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे-उनकी सरेआम की गई निर्म निर्मम हत्या के समय ये अजब-गजब नामधारी संगठन आक्रोश जता रहे थे या खुशी मना रहे थे, यह याद दिलाने की जरूरत नहीं।
इन नामों को गिनाने का मकसद सिर्फ यह ध्यान दिलाना है कि फिल्म के नाम पर उठाए जा रहे गुबार में ब्राह्मण तो बहाना है, असली मकसद उस ब्राह्मणवाद नामक कुप्रथा को बचाना है, जिसने भारतीय सभ्यता के डेढ़ हजार वर्ष अंधेरे में डुबो दिए। इसकी जाति-श्रेणीक्रम की जकड़न, वर्णाधारित कार्यों के बंधन और सत्ता के साथ मुट्ठीभर द्विजों के गठजोड़ ने विज्ञान, गणित, चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष ज्ञान से लेकर साहित्य और भाषा सहित सामाजिक विकास के हाथ-पाँव बाँधकर रख दिए। ‘फुले’ फिल्म इसके खिलाफ चले उस युगांतरकारी संघर्ष की झलक दे सकती है, जिसकी उपलब्धियों से पृथ्वी के इस हिस्से में जितनी रोशनी दिख रही है, वह आ पाई थी। ब्राह्मणवाद की बहाली की साजिशों को चुनौती दे सकती है, इसलिए सत्ता पर बैठे गिरोह को यह नागवार है। ऐसे अजब-गजब नामधारी संगठनों के नाम पर सेंसर बोर्ड के जरिए वह इस फिल्म के सार को ही ओझल कर देना चाहता है। इसके लिए वह पाखंड की सारी हदें पार कर रहा है। यही सेंसर बोर्ड है, जिसने ‘धड़क-2’ फिल्म की स्क्रीनिंग यह कहकर रोक दी थी कि यह फिल्म जाति की बात करती है, जबकि “मोदी जी ने इंडिया में कास्ट सिस्टम ही खत्म कर दिया है।” ठीक इसी आधार पर ‘संतोष’ नामक फिल्म भी इंडिया में रिलीज़ नहीं होने दी गई थी। आज ब्राह्मण जाति की “भावनाएँ आहत” होने के नाम पर ‘फुले’ की फिल्म के खिलाफ हुड़दंगाई ब्रिगेड को छूट दी जा रही है। अनुराग कश्यप ने ठीक ही कहा है कि, “भइया, जब कास्ट सिस्टम ही नहीं बचा है, तो काहे का ब्राह्मण? जब कास्ट सिस्टम था ही नहीं, तो ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई क्यों थीं?”
सवाल तो यह भी है कि अभी मात्र दो वर्ष पहले ही तो आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने फरमाया था कि “जाति पहले से नहीं थी, इसे तो बाद में पंडितों ने बनाया था।” फुले दंपति की सारी मुहिम इन्हीं “बनाई” हुई जातियों के बर्बर श्रेणीक्रम के खिलाफ ही तो थी। फिर डर किस बात का है? डर इस बात का है कि आज दिखावे के लिए दावे कुछ भी किए जाएँ, इस गिरोह का असली मकसद उस ब्राह्मणवादी प्रणाली की पुनर्स्थापना है, जिसे पिछले ढाई-तीन हजार वर्षों से लगातार चुनौती दी गई।
अनगिनत और अनवरत सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्षों से इसे काफी हद तक पीछे धकेला गया। इसकी बहाली ही मौजूदा हुक्मरानों का मुख्य लक्ष्य है, बाकी सब तो दिखावा है। यही इनका असली हिंदू राष्ट्र है, जिसे हिंदुत्व के नाम पर लाना चाहते हैं। सावरकर और गोलवलकर जैसे इनके पुरखों ने बिना किसी लागलपेट के इसे साफ-साफ कहा भी है, लिखा भी है।
उनके आराध्य और हिंदुत्व शब्द, जिसका उनके अनुसार हिंदू धर्म की परंपराओं से कोई संबंध नहीं, के जनक सावरकर ने कहा था कि “मनुस्मृति वह शास्त्र है, जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति-रीति-रिवाज, विचार और व्यवहार का आधार बना हुआ है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक और दैवीय पथ को संहिताबद्ध किया है।
आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू कानून है। यह मौलिक है।” सावरकर इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “ब्राह्मणों का शासन, हिंदू राष्ट्र का आदर्श होगा।” वे यह भी कहते हैं कि “सन 1818 में यहाँ देश के आखिरी और सबसे गौरवशाली हिंदू साम्राज्य (पेशवाशाही) की कब्र बनी।”
यह वही पेशवाशाही है, जिसे हिंदू पद-पादशाही के रूप में फिर से कायम कर आरएसएस एक राष्ट्र बनाना चाहता है और इसी को वह हिंदू राष्ट्र बताता है। आरएसएस, जिन्हें अपना पूज्य गुरुजी मानता है, वे गोलवलकर स्वयं वर्णाश्रम की ताईद करते हुए कह गए हैं कि “आज हम अज्ञानतावश वर्ण व्यवस्था को नीचे गिराने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह इस प्रणाली के माध्यम से था कि स्वामित्व को नियंत्रित करने का एक बड़ा प्रयास किया जा सकता था… समाज में कुछ लोग बुद्धिजीवी होते हैं, कुछ उत्पादन और धन की कमाई में विशेषज्ञ होते हैं और कुछ में श्रम करने की क्षमता है।
हमारे पूर्वजों ने समाज में इन चार व्यापक विभाजनों को देखा। वर्ण व्यवस्था का अर्थ और कुछ नहीं है, बल्कि इन विभाजनों का एक उचित समन्वय है और व्यक्ति को एक वंशानुगत के माध्यम से कार्यों का विकास, जिसके लिए वह सबसे उपयुक्त है, अपनी क्षमता के अनुसार समाज की सेवा करने में सक्षम बनाता है। यदि यह प्रणाली जारी रहती है, तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके जन्म से ही आजीविका का एक साधन पहले से ही आरक्षित है।” (ऑर्गनाइज़र, 2 जनवरी, 1961, पृष्ठ 5 और 16 में प्रकाशित)।
जिनके नाम पर बनी फिल्म ‘फुले’ को लेकर सनका खींचा जा रहा है, वे जोतिबा और सावित्रीबाई फुले भारत के सामाजिक इतिहास के ऐसे टर्निंग पॉइंट हैं, जिन्होंने सिर्फ स्त्री और शूद्रों को शिक्षा तक ही खुद को सीमित नहीं रखा, बल्कि एक विराट राजनीतिक आंदोलन भी शुरू किया। उन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ लिखना शुरू किया। शिवाजी का सही मूल्यांकन किया और उन्हें किसानों का राजा और बहुजनों का प्रतिनिधि बताया। उन्होंने अपनी किताबों ‘गुलामगिरी’, ‘किसानों का चाबुक’, ‘ब्राह्मणों का विश्वासघात’ आदि के माध्यम से इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में रखा, जिसका तार्किक निष्कर्ष 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना में हुआ।
यह ब्राह्मणवादी जकड़न के खिलाफ एक समग्र आंदोलन था, जिसमें उनके धर्मग्रंथों को चुनौती देना शामिल था। उन्होंने वेदों से लेकर स्मृतियों, पुराणों, रामायण से लेकर महाभारत और यहाँ तक कि गीता तक सभी ब्राह्मणवादी धर्मग्रंथों की निंदा की। उन्होंने ब्राह्मणों की सर्वोच्चता और जाति व्यवस्था की बुनियाद को चुनौती दी। उन्होंने शूद्रों का विश्वास जीता-जिन्हें वे ब्राह्मणों के गुलाम मानते थे-और सत्यशोधक समाज आंदोलन के माध्यम से उनमें नई भावना भरी, जिसके तहत पूरे ब्राह्मणवादी नियंत्रण को चुनौती दी गई और शूद्रों को शामिल किया गया।
सत्यशोधकों द्वारा घृणित अनुष्ठानों, परंपराओं पर हमला किया गया। उनकी उपयोगिता को निरर्थक माना जाने लगा और लोग ब्राह्मणवादी चालों से दूर होने लगे। 1921 में यह सत्यशोधक समाज के जबरदस्त आंदोलन से उपजी बेचैनी थी, जिसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गई। इसके संस्थापक हेडगेवार का लक्ष्य था सवर्ण हिंदुओं को एकजुट करना, इसके लिए कट्टर और उग्र चेतना उभारना और मराठा प्रभुत्व-पेशवाशाही-की बहाली करना।
ठीक यही बात ‘फुले’ फिल्म के बहाने हो रही बिलबिलाहट में दिख रही है। कोई किसी का मुँह काला करने पर एक लाख रुपये के इनाम का ऐलान कर रहा है, किसी ने जूते मारने के संकल्प के साथ अपनी शिखा में गाँठ बाँधने की घोषणा कर दी है, तो किसी ने ‘अपने’ प्रदेश में उस फिल्म को रिलीज़ न होने देने का शंख फूँक दिया है। बातें तो घर-परिवार की बहन-बेटियों के साथ बलात्कार की धमकियों तक पहुँच रही हैं।
यह सवर्ण पलटवार भर नहीं है, यह ब्राह्मणवाद की प्राण-प्रतिष्ठा का शंखनाद है; इसीलिए यह उस संविधान के विरुद्ध भी युद्ध-घोष है, जिसने लोकतंत्र और अन्य प्रावधानों के जरिए काफी हद तक इसे पीछे धकेला था। दूधनाथ सिंह के उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ के प्रो. तत्सत पांडे को याद करना होगा, जिनका ब्राह्मण पुरोहित परिवार में जन्म लेने के बावजूद विचार था कि “…ब्राह्मणवाद ही इस देश की प्रगति में बाधक है। यह एक अलग तरह का उपनिवेशवाद है, जिससे जनता को लड़ना पड़ेगा। कोई भी आजादी मुकम्मल नहीं होगी, जब तक ब्राह्मण उपनिवेश का खात्मा नहीं होगा।”
बात फिल्म तक नहीं है, इसलिए इसका मुकाबला भी फिल्म तक सीमित न रखते हुए उसी सर्वग्रासी, व्यवस्थित तरीके से करना होगा, जिस तरह से किया जाना चाहिए।
(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)