जन्मदिवस पर विशेष: सांप्रदायिक राज्य अपने ही सहधर्मियों को ले डूबेगा- फ़िराक़ गोरखपुरी

Estimated read time 1 min read

फ़िराक़ गोरखपुरी हालांकि अपनी ग़ज़लों और मानीख़ेज़ शे’र के लिए जाने जाते हैं, मगर उन्होंने नज़्में भी लिखी। और यह नज़्में, ग़ज़लों की तरह खू़ब मक़बूल हुईं। ‘आधी रात’, ‘परछाइयां’ और ‘रक्से शबाब’ वे नज़्में हैं, जिन्हें जिगर मुरादाबादी, जोश मलीहाबादी से लेकर अली सरदार जाफ़री तक ने दिल खोलकर दाद दी। ‘दास्ताने-आदम’, ‘रोटियां’, ‘जुगनू’, ‘रूप’, ‘हिंडोला’ भी फ़िराक़ की शानदार नज़्में हैं, जिनमें उनकी तरक़्क़ीपसंद सोच साफ़ ज़ाहिर होती है।

‘हिंडोला’ नज़्म में तो उन्होंने हिंदुस्तानी तहज़ीब की शानदार तस्वीरें खींची हैं। हिंदू देवी-देवताओं, नदियों, त्यौहारों, रीति-रिवाजों और अनेक मज़हबी-समाजी यक़ीनों का इज़हार इस नज़्म में उन्होंने बड़े ही खू़बसूरती से किया है। उर्दू आलोचकों ने इस नज़्म को पढ़कर, बेसाख़्ता कहा, यह नज़्म हिंदुस्तानियत की बेहतरीन मिसाल है। इस नज़्म में मक़ामी रंग शानदार तरीके़ से आए हैं।

फ़िराक़ गोरखपुरी के एक और समकालीन फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने अपने एक मज़मून में उनके कलाम की तारीफ़ करते हुए कहा था,‘‘फ़िराक़ साहिब जज़्बात व एहसासात की बारीकबीनी में इज़्हार के ढंग के बारे में कशीदाकारी के माहिर थे। इस लिहाज़ से कुल्ली तौर से न सही, बहुत हद तक उनका ‘सौदा’ और ‘मीर’ से मुक़ाबला कर सकते हैं।’’

फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लों-नज़्मों में फ़ारसी, अरबी के ही कठिन अल्फ़ाज़ नहीं होते थे, बल्कि कई बार अपने शे’रों में उस हिंदुस्तानी ज़बान को इस्तेमाल करते थे, जो हर एक के लिए सहल है। मिसाल के तौर पर उनके कुछ इस तरह के शे’र हैं-

मज़हब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे

तहज़ीब सलीके़ की, इंसान करीने के।

तुम मुख़ातिब भी हो, क़रीब भी

तुमको देखें कि तुमसे बात करें।

मुहब्बत में मिरी तन्हाइयों के हैं कई उन्वां

तिरा आना, तिरा मिलना, तिरा उठना, तिरा जाना।

फ़िराक़ ने श्रंगार रस में डूबी अनगिनत ग़ज़लें भी लिखीं। जब इनसे दिल भर गया, तो रुबाइयात लिखीं, नज़्में लिखीं। हिंदू कल्चर और हिंदुस्तानियत में रचे इस शाइर ने एक से बढ़कर एक नज़्में लिखीं। ‘आधी रात’ उन्वान से लिखी नज़्म में उन्होंने भाषा और विचार के स्तर पर जो प्रयोग किए हैं, वे तो अद्भुत हैं। नज़्म को पढ़कर, यह एहसास ही नहीं होता कि यह उन फ़िराक़ गोरखपुरी की नज़्म है, जो उर्दू के मुक़ाबिल हिंदी ज़बान के मामले में बेहद पक्षपाती हो जाते थे। यक़ीन न हो तो इस नज़्म के कुछ मिस्रे देखिए-

करीब चांद के मंडला रही है इक चिड़िया

भंवर में नूर के, करवट से कैसे नाव चले

कहां से आती है अमद मालती लता की लपट

कि जैसे सैंकड़ों परियां गुलाबियां छलकाएं

कि जैसे सैंकड़ों बन देवियों ने झूलों पर

अदाए-खास से इक साथ बाल खोल दिए

बदल सके तो फिर इस ज़िंदगी का क्या कहना।

जिसमें यह मिसरा तो ऐसा है जिसका कोई ज़वाब नहीं,

कंवल की चुटकियों में बंद है नदी का सुहाग

इस मिसरे को पढ़कर मशहूर उर्दू आलोचक अस्करी ने कहा था, ‘‘इस एक मिस्रे में पूरा हिंदू कल्चर गूंज रहा है। मिठास, नर्मी, अपनापन, फ़ितरत की पाकीजग़ी, रोज़मर्रा की चीज़ों की पाकीज़ग़ी का एहसास, हर चीज़ यहां मौजूद है।’’

फ़िराक़ गोरखपुरी सिर्फ आला दर्जे के शायर ही नहीं थे, बल्कि सुलझे हुए दानिश्वर, फ़िलॉस्फर भी थे। मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब, भाषा और सियासत के तमाम ज्वलंत सवालों पर वे अपनी खुलकर राय रखते थे। हक़गोई और बेबाकी, ज़िहानत और ज़बानदानी उनकी घुट्टी में थी। सच को सच कहने का हौसला उनमें था। वे साम्प्रदायिकता और मज़हबी कट्टरता के घोर विरोधी रहे।

अपने ऐसे ही एक विचारोत्तेजक मज़मून ‘हमारा सबसे बड़ा दुश्मन’ में वे लिखते हैं,‘‘साम्प्रदायिकता का भाव खुद अपने सम्प्रदाय के लिए खु़दकुशी के बराबर होता है। देखने में फ़िरक़ापरस्त आदमी दूसरे धर्मवालों को छुरा भोंकता है, लेकिन दरअसल वह आदमी अपने ही फ़िरके़ का खू़न करता है। चाहे दूसरे फ़िरके़ वालों से बदला लेने के लिए वह ऐसा काम करे।’’

साम्प्रदायिक लोग समाज के लिए किस क़दर ख़तरनाक हैं, अपने इसी लेख में वे लिखते हैं,‘‘साम्प्रदायिक हिन्दू, हिन्दू जाति के लिए ख़तरनाक है, मुसलमान के लिए उतना ख़तरनाक नहीं है। फ़िरक़ापरस्त मुसलमान, फ़िरके़ के लिए ज़्यादा नुकसान पहुंचाने वाला है, हिन्दू के लिए उतना नहीं। और यही हाल साम्प्रदायिक सिख, साम्प्रदायिक पारसी, साम्प्रदायिक एंग्लो इंडियन, साम्प्रदायिक ईसाई का है। ये सब अपनी जाति के दुश्मन हैं। साम्प्रदायिकता के आधार पर अपने सहधर्मियों की सेवा ही नहीं की जा सकती, पर साम्प्रदायिकता से बच कर ही अपने सम्प्रदाय की, अपने सहधर्मियों की तरक़्क़ी हो सकती है। या यों कहो कि दूसरे सम्प्रदाय वालों, दूसरे धर्मवालों की उन्नति, खु़शहाली मुमकिन है।’’

फ़िराक़ गोरखपुरी अपने इस लेख में साम्प्रदायिकता की समस्या को चिन्हित भर नहीं करते, बल्कि देशवासियों को आग़ाह भी करते हैं, ‘‘हिन्दू संस्कृति को हिन्दू राज्य मिटाकर रख देगा, मुस्लिम संस्कृति को इस्लामी राज्य मिटाकर रख देगा और साम्प्रदायिक राज्य अपने ही सहधर्मियों को ले डूबेगा।’’

फिर मुल्कवासियों का असली दुश्मन कौन है और उसे किससे लड़ना चाहिए? इस बात का सुराग भी वे अपने लेख में देते हैं, ‘‘हमारे अनुचित रीति-रिवाज, हमारे समाज का ग़लत ढांचा, ग़लत क़ानून, कारोबार के ग़लत तरीके़, व्यापार के नाम पर बेदर्दी से नफ़ा कमाने का लालच और खु़द हमारे जीवन की ग़लतियां, रिश्वत, चोर बाज़ारी, निरक्षरता, भूख़ और बेकारी असली दुश्मन हैं।’’

फ़िराक़ गोरखपुरी का यह लेख सत्तर साल पहले साल 1950 में लिखा गया था, लेकिन आज भी यह उतना ही प्रासंगिक है, जितना लिखते वक़्त था। इस लेख में उन्होंने जो विचार व्यक्त किए हैं, उनसे शायद ही कोई रौशनख़याल शख़्स नाइत्तफ़ाक़ी जताए। एक इंटरव्यू में जब फ़िराक़ से हिंदुत्व के बारे में सवाल पूछा गया, तो उन्होंने पलटकर सवाल किया कि ‘‘हिंदुत्व क्या शै है?’’

उनकी नजर में हिंदुत्व की परिभाषा कुछ अलग थी। उन्होंने कहा, ‘‘हिंदुत्व की अज़्मत यही है कि वो पूरी तरह खुला समाज है। उसमें कहीं से कोई जकड़न नहीं है।’’

इस जवाब पर सवाल करने वाले ने उनसे प्रतिप्रश्न किया कि ‘‘खुले मुआशरे से आपकी क्या मुराद है?’’

फ़िराक़ का जवाब था,‘‘जिस जज़्बे को हम कल्चरल लिबरलिज़्म का नाम देते हैं, वही हिंदुस्तान की असल रूह है। कैसे कहा जाए कि बाक़ायदा तालीमयाफ़्ता और माकू़ल आदमी होना ही असल में हिंदू होना है। शायद आज़ाद हिंदुस्तान में हिंदुत्व अपने सही और ऊंचे कमालात को दिखा पाए, लेकिन ये काम तंगनज़री, दूसरे को गाली दे कर या उसे हक़ीर कह कर नहीं हो सकता।’’

उनकी यह बात सोलह आने सही भी है। देश के अदब में, ललित कलाओं में अध्यात्म की रिवायत में कल्चरल लिबरलिज़्म के सैंकड़ों उदाहरण हमें देखने को मिल जाएंगे। सच बात तो यह है कि कल्चरल लिबरलिज़्म फ़िराक़ की फ़िक्र व एहसास की ख़ासियत है। फ़िराक़ की नज़्मों व नस्र दोनों में भी कल्चरल लिबरलिज़्म की कई मिसालें मौजूद हैं।

यही वजह है कि साम्प्रदायिक कट्टरतावादी उन्हें कतई पसंद नहीं करते थे। फ़िराक़ गोरखपुरी की एक अकेली ज़िंदगी के कई अफ़साने हैं। एक अफ़साना छेड़ो, दूसरा खु़द ही चला आता है। एक लेख में न तो उनकी पूरी ज़िंदगी आ सकती है, और न ही उनके लिखे अदब के साथ इंसाफ़ हो सकता है।

आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो

जब भी उन को ख़याल आयेगा कि तुम ने ‘फ़िराक़’ को देखा था।

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author