बीमारी से आज़ादी

Estimated read time 1 min read

इन दिनों अस्पताल के वार्ड में खड़े होकर मैं अक्सर एथेंस के किले एक्रोपोलिस के खंडहरों के बारे में सोचा करता हूं। इस किले में निर्मित प्रसिद्ध पार्थेनन मंदिर और उसका अग्रभाग प्रोपीलिया, इरेक्थियन मंदिर और युद्ध की की देवी एथेना नाइक के प्राचीन मंदिर ग्रीक सभ्यता के उत्कर्ष की गौरव गाथा बयान करते हैं। लेकिन आज उनके केवल खंडहर ही रह गए हैं।

एक दिन दोपहर ढले मेरे सहकर्मियों ने मुझे सूचना दी कि 16 साल की लड़की रामप्यारी (परिवर्तित नाम) को कोरोना हो गया है। उसकी जांघ पर एक असाध्य ट्यूमर था और उसे आपरेशन के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया था, लेकिन लाकडाउन के कारण सर्जरी में देरी हो गई थी। यह वायरस संक्रमण उसकी जान बचाने के लिए ज़रूरी इस सर्जरी में और देरी का कारण बनेगा। रामप्यारी की देखभाल कर रहे एक जूनियर डॉक्टर ने अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘हमें इस वायरस से कब आजादी मिलेगी?’’ उसके इस आवेगपूर्ण उद्गार ने मेरी विचार प्रक्रिया को जगा दिया।

आजादी एक अच्छा शब्द है लेकिन इसके कपटपूर्ण अर्थ निकाले जा सकते हैं। आज जब हम भारत की आजादी की 74वीं सालगिरह मना रहे हैं तो मेरे सहकर्मी द्वारा पूछे गए इस सवाल जैसे तमाम सवालों पर हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए।

नए कोरोना वायरस से आज़ादी हमारे लिए कितना महत्व रखती है? यह सही है कि हम सभी किसी असाध्य ट्यूमर की सर्जरी के लिए इंतजार में नहीं बैठे हैं। हम स्वस्थ हैं, या कम से कम हम सोचते हैं कि हम स्वस्थ हैं। हम में से अधिकांश कोविड-19 से आज़ादी इसलिए चाहते हैं ताकि हम वापस अपने ‘‘सामान्य’’ जीवन में लौट सकें। लेकिन भारत के वंचित नागरिकों के अधिकांश के लिए ‘‘सामान्य’’ जीवन क्या है– यह परिभाषित नहीं है– यह एक ऐसी चीज है जिसके बारे में सोच पाना भी उनके लिए मुश्किल है। इसके बरक्स, हममें से कुछ इसलिए आजादी चाहते हैं ताकि अपने मनपसंद कामों का मजा ले सकें।

उदाहरण के लिए, मेरे एक परिचित चाहते हैं कि सारे मॉल खुल जाएं ताकि वह अपनी नियमित ‘‘तनाव कम करने वाली’’ शापिंग का आनंद ले सकें। इस प्रकार हर आदमी के लिए कोरोना वायरस से आज़ादी के अर्थ अलग-अलग हैं। मेरे लिए आज़ादी का वही मतलब नहीं है जो तुम्हारे या फिर राम प्यारी के लिए है। हालांकि ‘‘आज़ादी’’ शब्द के ये अलग-अलग अर्थ एक बुनियादी सवाल के सामने कोई मायने नहीं रखते– क्या एक अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश में बीमारी से आज़ादी की कोई संभावना है?

आजाद देश के रूप में अपने वजूद के 73 सालों में हमने अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर समुचित ध्यान नहीं दिया। राज्य की प्राथमिकताओं में स्वास्थ्य सेवाएं कभी भी नहीं रहीं। हर साल 5 साल से कम उम्र के 10 लाख से ज्यादा बच्चे हमारे देश में न्यूमोनिया और दस्त जैसी बीमारियों से दम तोड़ देते हैं। देश में शिशु-मृत्यु दर ईराक और सीरिया जैसे युद्ध से तबाह देशों से भी ज्यादा है। भारत में 2015-16 में बच्चे के जन्म के दौरान दम तोड़ देने वाली माओं की संख्या भारतीय उपमहाद्वीप के बाकी देशों में कुल मौतों से भी ज्यादा थी– इस मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल का प्रदर्शन हमसे बेहतर था। उस औरत के लिए आज़ादी के क्या मायने हैं जिसके लिए बच्चे को जन्म देना एक जिंदगी और मौत का सवाल है?

संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘टिकाऊ विकास के लिए 17 लक्ष्यों’ के प्रति हमारी वचनबद्धता डगमगाती हुई प्रतीत होती है। 2030 तक देश को अपने नागरिकों के अच्छे स्वास्थ्य और खुशहाली के उच्चतम स्तर को हासिल करना है। इसके लिए जरूरत है कि हर नागरिक की गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच हो– अपने स्वास्थ्य की वजह से किसी को आर्थिक कठिनाइयों का सामना न करना पड़े। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के मौजूदा खस्ताहाल को देखते हुए ऐसा हो पाना लगभग असंभव लगता है। एक खंडहर हो चुकी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली– जिसे कोविड-19 ने एकदम साफ कर दिया है– आशा की कोई किरण नहीं दिखाती कि टिकाऊ विकास के लक्ष्य कैसे हासिल होंगे।

चिकित्सा सुविधाओं पर हमारा सालाना खर्च स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर हमारी प्रतिबद्धताओं या उनकी कमी की कलई खोल देता है। स्वास्थ्य सेवाओं पर राज्य का कुल खर्च देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के एक प्रतिशत से थोड़ा ही ज्यादा है। यह दुनिया के कुछ निर्धनतम देशों द्वारा किए जा रहे खर्च से भी बहुत ज्यादा कम है। उदाहरण के लिए इथोपिया अपने जीडीपी का 4.9 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है जबकि सूडान 8 प्रतिशत से भी ज्यादा।

दार्शनिक प्लेटो ने कहा था, ‘लोकतंत्र में आज़ादी राज्य का गौरव होती है।’ दुर्भाग्य से, पिछले कुछ दिनों से, निहित स्वार्थी तत्व राज्य के गौरव की तलाश में अतीत को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं, अपने वर्चस्व को थोपने और अधिनायकवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगे हैं। और यह सब आज़ादी के अपरिहार्य तत्वों जैसे स्वास्थ्य और शिक्षा की कीमत पर, उन्हें पीछे धकेल कर किया जा रहा है।

एक ऐसे वक्त में जब हम महामारी का मुकाबला कर रहे हैं, देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की आलोचना करना क्रूरता लग सकती है। लेकिन यह जरूरी है कि हम– हर तरह के अच्छे बुरे वक्त में– अपनी आज़ादियों पर जोर देना जारी रखें और उनमें भरोसा कायम रखें। आज भारत में बीमारी से आज़ादी का विचार एक दूर की कौड़ी लगता है। देश के बहुत से लोग बीमारी को अभिशाप मानते हैं– पिछले जन्म के बुरे कर्मों या इसी जीवन के कुकर्मों की सजा समझते हैं। राम प्यारी के माता-पिता जैसे लोग अपने उत्तर प्रदेश के सुदूर गांव में स्वास्थ्य सेवाओं की कोई व्यवस्था नहीं करने के लिए राज्य को कठघरे में खड़ा नहीं करते।

वे अपने 4 बच्चों के लिए अच्छे स्कूलों के अभाव पर भी कोई सवाल नहीं उठाते। वे उनके अस्तित्व के लिए खतरा बनी हुई महामारी– गरीबी– के इलाज के लिए आवश्यक साधनों के अभाव के बारे में भी सवाल नहीं खड़ा करते। और हां, उनमें उस जाति-व्यवस्था पर सवाल उठाने की तो हिम्मत ही नहीं है जो उन्हें अपनी छोटी सी बस्ती के भी सीमांत पर रहने के लिए मजबूर करती है। आज़ादी के लिए बुनियादी बात है, हमारे जीवन को दुश्वार बनाने वाली चीजों पर सवाल उठाना और हमारे वजूद को खतरे में डालने वाले मुद्दों पर खतरे का निशान लगाना। जहां तक मैं समझता हूं, राम प्यारी ‘‘आजाद भारत’’ में नहीं रहती।

एक आजाद देश के बतौर अपने 73 साल के इतिहास में हम पहली बार एक ऐसे संकट से दो-चार हैं जो हमारे स्वास्थ्य और एक आजाद नागरिक के तौर पर हमारे अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। महामारी ने हमें इस बात का गहरा अहसास कराया है कि अपने लोगों के स्वास्थ्य को नजरंदाज करने का क्या मतलब है। कोविड-19 वायरस इन तमाम सालों में सिर दर्द बन चुकी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को बर्दाश्त कर पाने की हमारी क्षमता की परीक्षा ले रहा है। इसने हमारे स्वास्थ्य सेवा मॉडलों की दुर्बलताओं को उजागर कर दिया है और इसके साथ-साथ देश की राजनीतिक विचारधाराओं की सीमाएं भी स्पष्ट कर दी हैं।

अब यह हमारे ऊपर है कि क्या हम उसी ‘‘सामान्य’’ जीवन की ओर लौटना चाहते हैं जिसे हम समझते थे कि वह “सामान्य” है। या फिर हम इस मौके का इस्तेमाल आज़ादी के वास्तविक अर्थों को समझने और ‘‘सामान्य’’ की एक नई परिभाषा गढ़ने में करेंगे जो बराबरी के सिद्धांतों पर आधारित हो। खंडहर खूबसूरत लग सकते हैं लेकिन खंडहरों में जीवन गुजारना न सिर्फ डरावना होता है बल्कि बेहद खतरनाक भी।

(एम्स के हड्डी रोग विभाग में प्रोफेसर डॉक्टर शाह आलम खान के इस लेख का हिंदी अनुवाद ज्ञानेन्द्र ने किया है। यह लेख 15 अगस्त को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ था।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author