आज के ‘टेलिग्राफ’ में भाजपा के सांसद स्वपन दासगुप्ता ने अपने लेख के अंत में उपसंहार के तौर पर लिखा है- “दरअसल, मोदी ‘ग़रीबों के लिए’ कार्यक्रमों की ख़ातिर ‘ग़रीबों के द्वारा’ नेतृत्व को तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं । भारतीय राजनीति की पृष्ठभूमि में यह क्रांतिकारी है ।”
दासगुप्ता यह बात उस काल में कह रहे हैं जब महंगाई अपने चरम पर पहुँच चुकी है । जिस अखबार में वे मोदी की ‘गरीब नवाज़’ छवि बना रहे हैं, उसी अख़बार की आज की सुर्ख़ी रसोई गैस के दाम में और पचास रुपये की बढ़ोत्तरी और उससे आम लोगों की बढ़ती हुई परेशानियों की खबरों से भरी हुई है।
अभी दो दिन पहले ही भारत की अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाले संस्थान सीएमआईई ने आँकड़ा जारी करके बताया है कि हमारे यहाँ बेरोज़गारी रिकॉर्ड गति से लगभग 8 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।
सब जानते हैं, दुनिया में भूख के सूचकांक में भारत की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। 2021 में हम दुनिया के 116 देशों में 101वें स्थान पर पहुँच चुके थे । अवनति का यह क्रम महंगाई और बेरोज़गारी के अभी के हालात में कहीं से रुकने वाला नहीं है ।
भारत के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में वृद्धि की दर लगातार उम्मीद से काफ़ी कम रह रही है । खुद आर.बी.आई को इसमें सिर्फ गिरावट के आसार दिखाई दे रहे हैं ।
स्वास्थ्य सूचकांक, मानव विकास सूचकांक, जनतंत्र सूचकांक, भ्रष्टाचार सूचकांक, प्रेस की आज़ादी का सूचकांक, महिलाओं की सुरक्षा सूचकांक, क़ानून के शासन का सूचकांक, धर्म की आज़ादी का सूचकांक, ख़ुशी का सूचकांक, समृद्धि सूचकांक — किसी भी मानदंड को देख लीजिए, सब सिर्फ़ पतन और पतन की कहानी कहते हैं ।
देश में अगर कुछ बढ़ा है तो वह है विषमता, नफ़रत, हिंसा और कुपोषण। और मज़े की बात यह है कि इन सबके बढ़ने को ही स्वपन दासगुप्ता ग़रीबों का कल्याण बता रहे हैं !
दरअसल, दासगुप्ता जैसे प्रचारकों की समस्या यह है कि वे खुद के असली चेहरे से ही वाक़िफ़ नहीं हैं । अर्थात् अपने उस नक़ाब से वाक़िफ़ नहीं हैं, जो उनके तमाम कारनामों से निर्मित हुए हैं । इसीलिए जनता के बीच अपनी असली पहचान को लेकर भारी ग़लतफ़हमी में रहते हैं । जनता की दृष्टि में वे वास्तव में क्या हैं, इसे वे नहीं जानते । मोदी की अंबानी-अडानी प्रीति बहुत छिपी हुई बात नहीं है ।
जनता उन्हें सिर्फ उग्रपंथी हिंदूवादी के रूप में जानती और चाहती है । और सही हो या गलत, सिर्फ़ इसी एक वजह से, धर्म के नशे में वह अभी आँख मूँद कर उनके साथ नाच रही है ।
पर स्वपन दासगुप्ता की तरह के बावले बौद्धिक मोदी की ‘गरीब नवाज़’ सूरत का जितना ढोल पीटेंगे, उतना ही धर्म के नशे से निकले लोगों को उनकी दुर्दशा का अहसास होगा ।
कहना न होगा, मोदी की गरीब नवाज़ी का ढोल पीटने वाले ये लोग उनके ऐसे नादान दोस्त की भूमिका निभा रहे हैं जो हमेशा किसी दाना दुश्मन से ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं ।
(अरुण माहेश्वरी लेखक और विचारक हैं। और आजकल कोलकाता में रहते हैं।)
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