मुसलमान और पाकिस्तान के खिलाफ नफरत से भरे नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या कर दी। यह जगजाहिर तथ्य है कि नाथूराम गोडसे खुद को सावरकर का पटु शिष्य मानता था। दोनों हिंदू महासभा और आरएसएस की विचारधारा के प्रचारक और नेता-कार्यकर्ता थे।
नाथूराम गोडसे, सावरकर और अन्य कट्टर हिंदूवादी गांधी से निम्न कारणों से घृणा करते थे-
- पहला गांधी का मानना था कि भारत पर जितना हक हिंदुओं का है, उतना ही हक मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य धर्म के मानने वालों का है।
- दूसरा गांधी का साफ शब्दों में कहना और मानना था कि कोई धर्म किसी धर्म से न तो श्रेष्ठ होने का दावा कर सकता है, न ही कोई धर्म किसी दूसरे धर्म की तुलना में दोयम दर्जे का है। अपनी इसी सोच के आधार पर उनका यह कहना था कि जितना महान हिंदू धर्म है, उतना ही महान इस्लाम, क्रिश्चियन और अन्य धर्म हैं। कोई धर्म किसी दूसरे धर्म की तुलना में श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकता है।
- भारत के भारत और पाकिस्तान नामक दो देशों में बंटवारे के बाद भी गांधी ने कहा कि बंटवारे के बाद बने भारत पर भी जितना हक हिंदुओं का है, उतना ही हक मुसलमानों का है। वे किसी तरह से भी दोयम दर्जे के नहीं हैं।
- गांधी ने बंटवारे के बाद भारत छोड़कर पाकिस्तान जा रहे मुसलमानों को भारत में रोकने की कोशिश की। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। उन्होंने उनसे कहा कि यह देश पहले जितना आपका था, इसके बाद उतना ही आपका भी रहेगा।
- गांधी के मन में नए बने देश पाकिस्तान के खिलाफ मुहब्बत का भाव था। वे उन्हें अपने भाई-बंधु की तरह देखते थे। वे भारत और पाकिस्तान के बीच भाईचारे के रिश्ते के हिमायती थे। वे चाहते थे कि बंटवारे के बाद पाकिस्तान के सारे हक उसको मिलना चाहिए। इसमें भारत की आर्थिक देनदारी भी शामिल थी।
- गांधी ने भारत-पाकिस्तान बंटवारे के पहले और बंटवारे के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हो रहे साम्प्रदायिक दंगे को निष्पक्ष तरीके से बिना किसी का पक्ष लिए रोकने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने कई भार अपनी जान भी जोखिम में डाली।
हिंदू-मुस्लिम एकता के बारे में गांधी ने अपने आदर्श के रूप में गणेश शंकर विद्यार्थी को प्रस्तुत किया था। 25 मार्च, 1931 को हिंदू-मुस्लिम दंगों को रोकने की कोशिश करते गणेश शंकर विद्यार्थी दंगाइयों के हाथों मार दिए गए।
उनकी शहादत के बाद गांधी ने कहा था कि “मेरा भी यह सुख स्वप्न है कि मैं उन्हीं की तरह मरूं। एक तरफ एक मनुष्य मुझ पर कुल्हाड़ी चला रहा हो, दूसरा दूसरी तरफ से बरछी मार रहा हो, तीसरा लाठी मार रहा हो, चौथा लात-घूसे बरसाता जाता हो….ऐसी अवस्था में खुद शांत रहूं और लोगों से शांत होने को कहूं। हंसता हुआ मरूं, ऐसा भाग्य मैं चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मुझे ऐसा मौका मिले और आपको भी मिले।”
अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए मारा जाना या मरना सबसे शानदार मौत होती है, इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधी एक शानदार मौत मरे। उन्होंने स्वयं अपने लिए ऐसी ही मौत की कामना की थी।
आखिर गांधी भी मुसलमानों के पक्ष में खड़े होने के चलते एक दंगाई हिंदू गोडसे के हाथों मारे गए। गणेश शंकर विद्यार्थी की तरह हिंदू होते हुए भी मुसलमानों से प्रेम करने के चलते मारे गए। जिन लोगों ने गोडसे की किताब “गांधी वध क्यों पढ़ा होगा”, उन्हें पता होगा कि सिर्फ गांधी की उसने इसलिए हत्या की, क्योंकि उनके दिल में मुसलमानों के लिए उतना ही प्रेम था, जितना किसी हिंदू के लिए। वे भारत को उतना ही मुसलमानों का मानते थे, जिनता हिंदुओं का। इसलिए वे गोडसे के हाथों मारे गए।
आज गोडसेवादी-सावरकारवादी विचारों-भावनाओं से प्रेरित मुस्लिम विरोधी घृणा देश में चरम पर है। हालांकि इसकी शुरुआत काफी पहले हो चुकी थी। बाबरी मस्जिद को राम मंदिर में बदल देना इसका जीता-जागता प्रमाण था। 2002 के गुजरात दंगों, मुजफ्फरनगर दंगों और दिल्ली दंगों जैसे दंगों में मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा की अगुवाई करने वाले भारत की सत्ता के शीर्ष पदों पर विराजमान हैं।
मुस्लिम विरोधी घृणा अभियान, आगजनी, तोड़-फोड़ और लिंचिंग-नेता होने, पद पाने, चुनाव जीतने और पुरस्कृत होने का मानदंड बन चुका है।
देश की पूरी राजनीति, समाज और यहां तक कि अर्थव्यवस्था को भी मुस्लिम घृणा के आधार पर चलाने कोशिश हो रही है। सारे बुनियादी सवालों को मुस्लिम घृणा के आवरण में ढंकने का प्रयास चल रहा है। सारे कुकर्मों को इसी घृणा के अभियान के आधार पर जायज ठहराया जा रहा है, यहां तक कि बलात्कार और बलात्कारियों को भी।
गोडसेवादी विचाराधारा आज आरएसएस-भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठनों के रूप में एक बड़ी संगठित शक्ति बन चुकी है। यह विचारधारा देश की नसों में जहर की तरफ फैल रही है। बर्बर मध्यकालीन समाज में भारतीय समाज को पूरी तरह तब्दील करने की कोशिश हो रही है।
ऐसे में गांधी के शहादत दिवस को गोडसेवादी वैचारिकी के वाहकों के खिलाफ संघर्ष के अभियान में तब्दील कर देना चाहिए। अगर कोई गांधी की शहादत को सम्मान देना चाहता है, उसका कोई मूल्य समझता है तो ऐसे लोगों को गोडसेवादी विचारधारा के खिलाफ संघर्ष में शहादत के लिए तैयार रहना चाहिए, जैसे गांधी ने शहादत दी। यही आज के दौर में गांधी की शहादत को याद करने की प्रासंगिकता है।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक-पत्रकार हैं।)
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