बस्ती जिले के पिपरा काजी गाँव के रहने वाले परशुराम के खेत में खड़ी सरसों की फसल को पिछले दिनों आवारा जानवरों ने काफी नुकसान पहुंचाया। जानवरों को भगाने के क्रम में वे चोटिल भी हो गए। वे कहते हैं जब से इन आवारा जानवरों ने फसल को नुकसान पहुंचाया है तब से वे रातों की नींद उड़ी हुई है। हमेशा जानवरों द्वारा फसल को नुकसान का डर सताता रहता है, और अक्सर उन्हें आधी रात को खेतों की निगरानी करने जाना पड़ता है, तो कभी-कभी मुँह अँधेरे ही खेतों की ओर निकल जाना पड़ता है।

पहले माचा (मचान) बनाकर खेत में रातभर रहते थे, लेकिन ज्यादा जाड़े में वह भी तो संभव नहीं था। इस चुनाव में आवारा जानवर कितना बड़ा मुद्दा है? सवाल के जवाब में वे कहते हैं “एक किसान के लिए तो यह बहुत बड़ा मुद्दा है, खड़ी फसल को आवारा घूम रहे सांड, गाय बरबाद कर रहे हैं। इनको भगाओ तो कभी-कभी ये जानवर हमलावर भी हो जाते हैं।” जब मैंने पूछा कि गाँव के इर्द-गिर्द गौशालाएँ तो बनी होंगी, तो वे बोले हाँ बनी तो हैं लेकिन उनकी सच्चाई आप खुद जाकर देख लीजिए… परशुराम जी ने सही कहा। सच्चाई या यूँ कहें कि उनकी बदहाली देखना भी जरूरी था। उन्होंने हमें बेलघाट और पिपरा की दो गौशालाओं की जानकारी दी जो उनके गाँव से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित थे।

तो सबसे पहले हम पहुँचे बेलघाट में बने गौशाला की स्थिति का जायजा लेने के लिए। गौशाला पहुँचने पर उसके गेट के बाहर हमें सतनु जी मिल गए। उनका घर गौशाला के बगल में ही था। जब हमने उनको बताया कि हम गौशाला पर स्टोरी करने आये हैं, तो उन्होंने हमें यहाँ बने गौशाला के बारे में बेहिचक बताना शुरू कर दिया।

उन्होंने बताया “एक समय इस खाली पड़े गौशाला में आवारा सांड, गाय रखे गए थे। उनके लिए चारा-पानी का भी इंतजाम रहता था। दो सफाई कर्मी भी रहते थे, लेकिन पिछले एक साल से सब जानवरों को छोड़ दिया गया, क्योंकि चारा आना बंद हो गया।”
सतनु का कहना था, “जब खुले घूम रहे पशुओं को यहाँ लाकर रखा जा रहा था, तो हमारी फसले भी सुरक्षित थीं। लेकिन अब फिर उसी हालात में पहुँच गए हैं।” ठंडी साँस भरते हुए वे कहते हैं “समझ में नहीं आता, जब यहाँ जानवरों को रखना ही नहीं था तो सरकार ने इसे बनवाया ही क्यूँ?” आख़िर यह गौशाला बंद क्यों कर दी गई, इस सवाल के जवाब में वह गाँव के पूर्व प्रधान से बात करने के लिए कहते हैं, क्योंकि इस गौशाला के संचालन की जिम्मेदारी उन्ही के पास थी।
अब बारी थी गाँव के पूर्व प्रधान रामरतन यादव जी से मिलने की, जो हमें गाँव के बाज़ार में ही मिल गए। गौशाला बंद होने का कारण वे बताते हैं कि सरकार का आदेश था कि छोटी गौशालाएँ बंद कर दी जायें। पर ऐसा आदेश क्यूँ हुआ, इस पर वे कहते हैं कि यह तो सरकार जाने। रामरतन जी के मुताबिक गौशाला बेहतर चल रही थी। बाहर खुले घूम रहे जानवर भी यहाँ लाये जा रहे थे। किसानों को भी राहत थी परंतु अब सरकार का आदेश था बंद करने का तो बंद करना पड़ा।
वे कहते “गौशाला में रखे जानवरों को हरा चारा और पशु आहार खिलाने के लिए उन्होंने अपनी जेब से भी करीब साठ हजार रुपय लगाये, ताकि पशुओं को कुपोषित होने से बचाया जा सके। पैसे तो आज तक मिल नहीं पाये, उल्टे गौशाला ही बंद हो गई।” तो वहीं बगल में खड़े पतीला गाँव के दिलीप कुमार वर्मा बताते हैं “सांड पकड़वाने पर रुपयों का भुगतान करने की बात भी सरकार कहती थी। लेकिन पिछले दिनों इलाके के तीन सांड पकड़वाने के बावजूद ब्लॉक से अभी तक कोई भुगतान भी नहीं हुआ।” वे कहते हैं “ऐसे भी मामले हुए हैं जब ग्रामीण अपनी कोशिश से इन आवारा जानवरों को पकड़ कर गाड़ी में लाद कर गौशाला ले जाते हैं, तो रास्ते में ही पुलिस द्वारा उन्हें गोकशी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है। बेचारा किसान हर तरफ से मारा जा रहा है।”

गौशाला खाली पड़ी है और जानवर बाहर फसलों को बर्बाद कर रहे हैं, अभी इस बात पर ग्रामीणों का गुस्सा देखकर बेलघाट से वापस लौट ही रही थी, कि एक खेत में कुछ जानवरों को फसल चरते हुए देखा तो अपने कैमरे में कैद कर लिया। वहाँ से गुजर रहा एक ग्रामीण तुरंत खेत के मालिक को बुलाने दौड़ पड़ा। इस दृश्य को देखकर यह सोचना लाज़िमी था कि आज अगर गाँव की गौशाला चालू होती, तो ये आवारा पशु वहाँ होते और फसलें बरबाद होने से बच जाती।
खैर, अब बारी थी पिपरा में बने गौशाला को देखने की, तो हम उधर की ओर निकल पड़े। गाँव से दूर बने इस गौशाला का भी वही हाल था जो बेलघाट की गौशाला का था। यानि गौशाला खाली और जानवर बाहर कभी फसलों को बर्बाद करते हुए तो कभी लोगों पर हमला करते हुए।

गौशाला का गेट टूट चुका था, जो जर्जर अवस्था में पानी में पड़ा था। पिपरा काजी गाँव के किसान रामचंद्र बताते हैं “पहले यहाँ भी छुट्टा जानवरों को लाया जाता था, जिससे किसानों को कुछ राहत थी। लेकिन अब इसे भी बंद कर दिया गया है, और इस गौशाला को बंद करने के पीछे कारण यह बताया गया कि यह ऐसी जगह पर बना है जहाँ पानी भर जाता है, और बरसात के समय तो हालात बहुत खराब हो जाते हैं।” रामचंद्र जी आगे कहते हैं “जब गौशाला का निर्माण किया जा रहा था, तो क्या तब इस बात का ध्यान नहीं रखना चाहिए था कि यहाँ जल-जमाव होता है जो जानवरों के लिए मुसीबत का सबब बन सकता है।”
वे गुस्से में कहते हैं “दरअसल इन गौशालाओं की यही सच्चाई है, बना तो दिए गए लेकिन न तो इनका संचालन ठीक से हो पा रहा है और न ही आवारा जानवरों को यहाँ लाया जा रहा है। इसके अलावा जहाँ गौशालाएँ चल भी रही हैं वहाँ भी जानवर बुरी हालात में हैं। एक या दो सफाई कर्मियों के भरोसे गौशालाएँ छोड़ दी गई हैं, कोई पूछने वाला नहीं है।”

लौटते समय चिरुईया गाँव के किसान कन्हैया अपने खेत में काम करते हुए दिखे। कन्हैया बताते हैं अभी कुछ दिन पहले उन्होंने इलाके के कुछ सांड पकड़वाये। मैंने पूछा, इसके लिए आपको कुछ प्रोत्साहन राशि भी मिली होगी, जैसा कि सरकार ने कहा था। उनका जवाब था, “न मिले कोई राशि। बस हमें इन छुट्टे जानवरों से राहत मिल जाये, वही सबसे बड़ी प्रोत्साहन राशि होगी।” आवारा पशुओं से अपनी फसल को बचाने के लिए कन्हैया ने अपने खेत के इर्द-गिर्द कोई तार नहीं लगवाई थी, कारण पूछने पर वे कहते हैं “आखिर कितने खेतों में लगवा दें? महंगा भी तो पड़ता है।” उन्होंने बताया कि अपने कुछ दूसरे खेतों में उन्होंने तार लगवाया है।

कन्हैया से बात खत्म कर लौट रही थी तो दूर खेत में बने एक मचान पर नजर पड़ी जो आवारा जानवरों से अपनी फसल को बचाने के लिए एक किसान के जद्दोजेहद की कहानी बयां कर रहा था। गौशालाएं खाली हैं और जानवर बाहर धमा-चौकड़ी मचाये हुए हैं, ऐसे में भला किसान को चैन कैसे मिले। खड़ी फसलें बर्बाद हो रही हैं, लेकिन प्रदेश की सरकार ने कभी इस सच को नहीं माना कि ये छुट्टे घूम रहे जानवर किस कदर किसानों के लिए सिरदर्द बन गए हैं। जिस सरकार को हर बात पर अपनी पीठ थपथपाने की आदत पड़ गई हो वे भला इस सच को कैसे स्वीकार करेगी।
(लखनऊ से स्वतंत्र पत्रकार सरोजिनी बिष्ट की रिपोर्ट।)
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