रोजगार का अधिकार देश के हर नागरिक का स्वाभाविक जन्मसिद्ध अधिकार है और सरकारों को इसकी गारंटी करना चाहिए। युवा मंच और तमाम वाम लोकतांत्रिक छात्र-युवा संगठन इसकी लड़ाई लंबे समय से लड़ रहे हैं कि रोजगार को हर नागरिक का मौलिक संवैधानिक अधिकार बनाया जाय।
जाहिर है भाजपा की फासीवादी सरकार से शायद ही किसी को उम्मीद हो कि वह इसे लागू करेगी।
उल्टे मनरेगा के बतौर सीमित अर्थों में ग्रामीण मजदूरों को रोजगार का जो अधिकार मिला हुआ है, मोदी सरकार उसे भी ध्वस्त करने पर आमादा है। इस पर सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. प्रभात पटनायक ने प्रकाश डाला है। यहां प्रस्तुत है पीपुल्स डेमोक्रेसी में प्रकाशित उनके लेख का भावानुवाद :
वे बताते हैं कि “दरअसल फासीवादी सरकारें जनता को अधिकारविहीन बनाती हैं, उन्हें सशक्त (empower) नहीं करती हैं। वे वोट हासिल करने के लिए लाडली बहन योजना जैसी स्कीम तो लागू कर सकती हैं, क्योंकि उससे कुछ आर्थिक लाभ जरूर मिलता है जिसके लिए महिलाएं सरकार की कृतज्ञ होती हैं, लेकिन वह उन्हें अपने किसी अधिकार के बतौर नहीं मिलता।
वे बताते हैं कि मनरेगा की योजना भी नव उदारवादी नीतियों के विपरीत माहौल में इसलिए लागू हो पाई क्योंकि तत्कालीन यूपीए सरकार वामपंथ के समर्थन पर टिकी थी और इसे लागू करने के लिए उसने दबाव बनाया था। अब इसे dilute करने के लिए मोदी सरकार जो तमाम तरीके अख्तियार कर रही है, उसकी वे चर्चा करते हैं।
पहला कदम तो National Mobile Monitoring System है। इसके तहत मजदूरों को अपना साइट पर काम करते हुए फोटो अपलोड करना है तथा बैंक खाते को आधार से लिंक करना है। यह मजदूरों के लिए आसान नहीं है। सब जगह इंटरनेट की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है।
इन हालात में तमाम मजदूर इस अधिकार का लाभ उठा पाने से वंचित रह जा रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 6.7 करोड़ मजदूर इस शर्त के कारण मनरेगा का लाभ उठा पाने से वंचित रह गए।
इस योजना को विफल करने का दूसरा तरीका यह है कि विपक्ष शासित राज्यों को फंड देने में भेदभाव किया जाता है। तर्क यह दिया जाता है कि वहां बड़े पैमाने पर इसमें भ्रष्टाचार हो रहा है। पश्चिम बंगाल इसका सबसे बड़ा शिकार है। 2021 में आखिरी किश्त के बाद बंगाल को केंद्र से हुए भुगतान के तीन साल बीत चुके हैं।
दरअसल भ्रष्टाचार की जांच के लिए सोशल ऑडिट की व्यवस्था है। केंद्र यह आरोप लगाता है कि राज्य सोशल ऑडिट नहीं करवाते। दरअसल सोशल ऑडिट के लिए भुगतान केंद्र को करना है लेकिन केंद्र ने तमाम राज्यों के ऑडिट का भुगतान रोक रखा है।
सबसे बड़ी बात यह कि अगर मान भी लिया जाय कि इसमें राज्य की ही गलती है, तो राज्य सरकार की गलती की कीमत उस राज्य के आम नागरिक/ग्रामीण मजदूर क्यों चुकाएं? केंद्र और राज्य सरकारें आपस में निपटें, लेकिन हर हाल में मजदूरी का भुगतान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। दरअसल यह योजना को विफल करने का ही एक बहाना है।
योजना को विफल करने का तीसरा तरीका मजदूरों की लंबे समय तक बकाया मजदूरी है। जंतर-मंतर पर हुए प्रदर्शन में कई मजदूरों ने बताया कि उनकी तीन तीन साल तक की मजदूरी बकाया है। दरअसल मनरेगा कानून के तहत यह व्यवस्था है कि मजदूरी बकाया रहने पर सरकार उसका मुआवजा देगी।
यह भी व्यवस्था है कि रोजगार न दे पाने पर सरकार मजदूरों को बेरोजगारी भत्ता देगी। लेकिन असलियत यह है कि सरकार मजदूरों को न बकाया का मुआवजा दे रही है, न ही बेरोजगारी भत्ता। आज तक किसी को इस कानूनी अपराध के लिए सजा नहीं मिली है।
इसे विफल करने का चौथा तरीका है कम बजट का आबंटन। इसका परिणाम होता है मजदूरी के भुगतान में विलंब। यह सिलसिला UPA 2 के दौरान शुरू हुआ था। तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम हमेशा मनरेगा का बजट आवश्यकता से कम रखते थे।
उनका तर्क था कि क्योंकि यह मांग आधारित योजना है, इसलिए जितना बजट कम होगा उसे बाद में दे दिया जाएगा। लेकिन इसका परिणाम यह होता था कि मजदूरी भुगतान में विलंब होता था। यह विलंब एक तरह से मजदूरों को हतोत्साहित करता था। मोदी राज में यह परिघटना अपने चरम पर पहुंच गई।
2024-25 के बजट में मनरेगा के लिए आबंटन मात्र 86000 करोड़ है जो पुराना बकाया घटाने के बाद केवल 60000 करोड़ बचता है। यह इतना कम है कि फिर मजदूरी बड़े पैमाने पर बकाया रह जाएगी। इस तरह बकाया साल दर साल बढ़ता जा रहा है।
जाहिर है यह मजदूरों को मनरेगा के काम तलाशने में हतोत्साहित करता है। कोविड के दौरान जब मजदूर पलायन करके शहर से गांव आए थे, तब मनरेगा का संशोधित बजट 130000 करोड़ पहुंच गया था।
सच्चाई यह है कि कोविड खत्म होने के बावजूद बड़ी संख्या में वे मजदूर आज भी गांवों में हैं। इसका अर्थ यह है कि मनरेगा का बजट इसी के आसपास होना चाहिए। मजदूरों ने जंतर-मंतर पर अपने प्रदर्शन में मनरेगा योजना के विस्तार और उसके लिए 2.5 लाख करोड़ बजट की मांग की है।
बहरहाल मोदी सरकार ने इस वर्ष के लिए मात्र 60000 करोड़ का प्रावधान किया है। सरकार ग्रामीण मजदूरों के प्रति कितनी संवेदनशील है, इसे समझा जा सकता है।
इस योजना को विफल करने का पांचवां तरीका यह है कि मजदूरी की दर बेहद अपर्याप्त है। 2200 कैलोरी प्रति व्यक्ति के हिसाब से 5 व्यक्तियों के परिवार के लिए न्यूनतम मजदूरी 410 रुपये दैनिक होनी चाहिए। सरकार की एक विशेषज्ञ समिति ने भी मजदूरी बढ़ाकर 375 रुपये करने की वकालत की है।
‘बहरहाल आज की सच्चाई यह है कि केवल पंजाब, हरियाणा, केरल और कर्नाटक में यह 300 रुपये से ऊपर है, बाकी राज्यों में यह 200 से 300 के बीच है। और वह भी समय से नहीं मिलती है।’
कहां जरूरत इस बात की है कि मनरेगा जैसी योजना का शहरी मजदूरों के लिए विस्तार किया जाता, इतना ही नहीं सभी नागरिकों के लिए योग्यतानुसार रोजगार के अधिकार की गारंटी की जाती, लेकिन यहां तो मोदी सरकार पहले से जारी मनरेगा योजना को भी विफल करने पर आमादा है। जाहिर सी बात है रोजगार के अधिकार के लिए एक बड़ा जनांदोलन आज समय की मांग है।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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