बेगुनाह को दोषी में तब्दील करने की मशीनरी बनती जा रही हैं सरकारी एजेंसियां

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हरियाणा पुलिस ने कुछ ही दिनों पहले बड़े धूम-धड़ाके से केवाईसी (नो योर केस) ऐप लांच किया था, जिसने चारों ओर से प्रशंसा बटोरी। इस ऐप के जरिये आप कहीं से भी किसी केस की ताजा स्थिति का पता कर सकते थे। बेहद सुविधाजनक और पारदर्शी कदम! लेकिन जरा ठहरिये और तूल पकड़ रहे इस मामले पर भी गौर कीजिये।

मजदूर अधिकार संगठन की 23 वर्षीय नवदीप कौर को हरियाणा पुलिस ने 12 जनवरी को कुंडली, सिंघु बॉर्डर पर किसान धरना स्थल से उठाया। उन पर तीन मुकदमे दर्ज किये गए  जिनमें हत्या का प्रयास और जबरन धन वसूली के अविश्वसनीय आरोप भी शामिल थे। उनके परिवार के अनुसार पुलिस हिरासत में उनके साथ मारपीट और यौनिक दुर्व्यवहार हुआ है। जबकि, किसान वकील कमेटी के अनुसार नवदीप कौर के विरुद्ध दर्ज तीन में से एक भी एफआईआर हरियाणा पुलिस की साइट पर अपलोड नहीं की गयी है। तब, केवाईसी ऐप का क्या लाभ?

दरअसल, पुलिस अपनी संकटमोचक भूमिका को जब-तब वक्तव्यों से ही रेखांकित करती हुयी नहीं, कार्यकलापों से भी आलोकित करती मिलेगी। लेकिन थोड़ा सा भी जांचने पर यह स्थिति पारदर्शी कम और पहेली ज्यादा नजर आती है। जिन पर समाज को कानून की परिधि में रखने की जिम्मेदारी है वे स्वयं सबूतों को तोड़ने-मरोड़ने के आरोपों से प्रायः घिरे मिले, ऐसा होना समाज और पुलिस दोनों के लिए दुखद है।

26 जनवरी को दिल्ली में किसान परेड के दौरान ट्रैक्टर सवार 25 वर्षीय किसान नवरीत सिंह की मृत्यु को प्रत्यक्षदर्शी शुरू से ही गोली लगने से हुयी मौत बता रहे हैं। दूसरी तरफ दिल्ली पुलिस इसे तेज रफ़्तार ट्रैक्टर के पुलिस बैरियर से टकरा कर पलटने से हुयी दुर्घटना मान रही है। आश्चर्यजनक रूप से ऐसी अप्राकृतिक मौत पर शव का जो पोस्टमार्टम दिल्ली में होना चाहिए था, वह रामपुर, यूपी में कराया गया। अब दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले में एसआईटी गठित करने की परिवार की याचिका का संज्ञान लिया है। नवरीत के परिवार द्वारा हासिल की गयी स्वतंत्र फॉरेंसिक राय के अनुसार, पहली नजर में नवरीत की चोटें दुर्घटना से लगी नजर नहीं आतीं। नवरीत के चेहरे पर गोली की एंट्री और एग्जिट के गन शॉट जैसे घाव हैं जो गोली के प्रवेश और निकासी से मेल खाते हैं।

इसी दिल्ली पुलिस ने इसी दिन लाल किले पर भारी उपद्रव और हिंसा के सामने गोली न चलाने का संयम दिखाकर व्यापक पेशेवर प्रशंसा बटोरी थी। उसे नवरीत के  मामले में लीपा-पोती करने की क्या बाध्यता रही होगी? क्या राजनीतिक आकाओं के एजेंडा के साथ कदम-ताल करने की मंशा से?

पुलिस की जांच पर कानून भक्ति के बजाय राजनीति भक्ति का सबसे गंभीर आरोप भीमा कोरेगांव केस में सामने आने जा रहा है और वह भी एक स्वतंत्र फोरेंसिक जांच रिपोर्ट के टेबल पर आ जाने से। अमेरिका स्थित विख्यात फोरेंसिक लैब आर्सेनल के अनुसार आरोपी रोना विल्सन के कंप्यूटर में मिली जिन तमाम मेल के आधार पर वरवर राव, आनंद तेलतुम्बडे, सुधा भारद्वाज, फादर स्टेन स्वामी, गौतम नवलखा इत्यादि मानवाधिकार क्षेत्र के बड़े नाम यूपा कानून में दो वर्ष से अधिक समय से देशद्रोह और प्रधानमन्त्री मोदी की हत्या के षड्यंत्र में जेलों में बंद हैं, वे रोना विल्सन के कंप्यूटर में एक मैलवेयर के माध्यम से प्लांट की गयी थीं। यहाँ तक कि रोना का कंप्यूटर लगभग ढाई वर्ष से किसी ने निगरानी में रखा हुआ था।

आर्सेनल लैब ने सम्बंधित कंप्यूटर और मेल की यह जांच आरोपियों के वकीलों के कहने पर हाथ में ली थी। इनकी कॉपी कोर्ट के आदेश पर जाब्ता फौजदारी के नियमानुसार जांच एजेंसी एनआईए को आरोपियों को देनी पड़ी थी जिसे रोना विल्सन इत्यादि के वकीलों ने आर्सेनल लैब को स्वतंत्र जांच के लिए भेजा था। ध्यान रहे कि जाँच एजेंसी कॉपी उस सॉफ्टवेयर से तैयार करती है जिससे सिर्फ एक ही बार लिखा जा सकता है। यानी आरोपी पक्ष की ओर से कॉपी से कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। लिहाजा, आर्सेनल लैब की रिपोर्ट की प्रक्रिया स्वीकृत मानदंडों पर खरी है और इसका संज्ञान भारतीय अदालतों में लिया जाएगा। इसका सीधा मतलब होगा कि अब स्पष्टीकरण देने की जिम्मेदारी उस सरकारी फोरेंसिक लैब की होगी जिससे भारत सरकार की जांच एजेंसी ने जांच करायी थी।

जाहिर है, यदि भीमा कोरेगांव केस तमाम ख्यातिप्राप्त आरोपियों के विरुद्ध साजिश सिद्ध हुआ तो इससे आतंकवाद के विरुद्ध गठित भारत सरकार की जांच एजेंसी एनआईए की अंतर्राष्ट्रीय साख को भी धक्का लगेगा। लेकिन किसी को भूलना नहीं चाहिए, जांच एजेंसियों को भी नहीं, कि देश में मानवाधिकारों की प्रतिष्ठा भी दांव पर है। उनके भी हक़ में है कि वे पारदर्शी बनें, पहेली नहीं।

(विकास नारायण राय हैदराबाद पुलिस एकैडमी के निदेशक रह चुके हैं।)

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