”एनआरसी में धर्म विशेष के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। एनआरसी में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है जिसके आधार पर कहा जाए कि दूसरे धर्म के लोगों को इसमें शामिल नहीं किया जाएगा। सभी नागरिक भले ही उनका धर्म कुछ भी हो, एनआरसी लिस्ट में शामिल हो सकते हैं। एनआरसी अलग प्रक्रिया है और नागरिकता संशोधन विधेयक अलग प्रक्रिया है। इसे एक साथ नहीं रखा जा सकता। एनआरसी को पूरे देश में लागू किया जाएगा ताकि भारत के सभी नागरिक एनआरसी लिस्ट में शामिल हो सकें।”
ये शब्द हैं गृहमंत्री अमित शाह के हैं। उन्होंने यह बयान नवंबर 2019 में राज्यसभा में दिया था। तब एनआरसी और नागरिकता संशोधन को लेकर देश में काफी उबाल था। सरकार और सरकार के लोगों के साथ ही बीजेपी वाले भी इन मसलों को तूल दे रहे थे जबकि विपक्ष इन मुद्दों को लेकर सड़क से संसद तक हंगामा खड़ा कर रहा था। देश के मुसलमान काफी घबराये हुए थे। उन्हें लग रहा था कि सरकार उनके खिलाफ कोई बड़ा षड्यंत्र कर रही है। उनके भविष्य को चौपट करने का कोई बड़ा अभियान चला रही है।
तब कई प्रदेशों की विपक्षी सरकारों ने एनआरसी और नागरिकता संशोधन की काफी आलोचना की थी और अपने-अपने सूबे के लोगों को साफ़ तौर पर कह दिया था कि सूबे का कोई भी नागरिक घबराये नहीं। हम इसे लागू नहीं करेंगे और नहीं लागू होने देंगे। इस तरह के बयान बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ से तो आये ही थे, लगे हाथ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कहा था कि ”देश में बहुत कुछ बकवास चल रहा है। पता नहीं कौन क्या कह रहा है। हम इसे बिहार में लागू नहीं करेंगे। हमारा ध्यान तो बिहार के विकास पर लगा है। कौन क्या इधर-उधर की बात करता है हमें नहीं मालूम।”
लेकिन आज बिहार में जिस तरह से चुनाव आयोग की तरफ से मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसएआर की घोषणा की गई है, बिहार के काबिल मुख्यमंत्री चुप और शांत हो गए हैं। उनकी ये शांति किस वजह है, यह तो वही जानते होंगे लेकिन कई लोग यह भी कह रहे हैं कि बीजेपी ने उन्हें समझा दिया है कि इस बार सरकार के खिलाफ लोगों में काफी गुस्सा है इसलिए अगर सरकार फिर से बनानी है तो कोई खेल करने की जरूरत है और आप इस खेल पर कुछ मत बोलिए। केवल देखिए कि आगे क्या-क्या होता है?
लेकिन बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बीजेपी और अमित शाह के खेल को ताड़ गई हैं और अब वह काफी आक्रामक हो गई हैं। वह जान रही हैं कि उत्तर भारत में केवल बंगाल और बिहार ही दो प्रदेश बचा है जहां अभी तक बीजेपी सरकार बनाने से चूक रही है। बंगाल वाम सोच से ओत-प्रोत है भले ही ममता की पार्टी ने वामपंथ को कमजोर कर दिया है लेकिन ममता भी जानती हैं कि उनकी पार्टी में आज जो हैं उनमें अधिकतर लोग उसी वामपंथ की धारा से निकले हैं। बंगाल में आज भी मुसलमानों की बड़ी तादाद है और अधिकतर मुसलमान ममता के साथ ही हैं।
जबकि बिहार समाजवादी और सेक्युलर पृष्ठभूमि वाला राज्य रहा है और जितने भी यहां मुख्यमंत्री रहे हैं उनमें किसी के भी सामाजिक क्रेडेंशियल पर कोई सवाल नहीं उठा है। चाहे मुख्यमंत्री अगड़े समाज से आये हों या फिर पिछड़े समाज से, सबने बिहार को अपने तरीके से सींचा है। समाज को जोड़ा है और धार्मिक एकता को आगे बढ़ाया है। पिछले 40 साल के बिहार को देखें तो लालू और नीतीश राजनीति के केंद्र में रहे हैं। दोनों नेता आज भी हैं और दोनों एक बात पर सहमत हैं कि बिहार का ताना बाना कम से कम न टूटे। सामाजिक समरसता बनी रहे और कम से कम बीजेपी की सीधी एंट्री राज्य में न हो।
लेकिन इस बार बीजेपी को बिहार से काफी उम्मीद है। बीजेपी को लग रहा है कि कुछ नया खेल करके बिहार में बाजी मारी जा सकती है। नीतीश को कमजोर करके एनडीए के बाकी दलों के साथ नया खेल किया जा सकता है और कुछ नए दलों को एनडीए में शामिल करके सत्ता की कुर्सी को हासिल किया जा सकता है।
लेकिन ममता भले ही बीजेपी के इस खेल को समझ रही हैं तो क्या नीतीश कुमार को यह सब समझ में नहीं आ रहा है? या नीतीश कुमार सब कुछ समझ कर भी मौन इसलिए हैं क्योंकि चाहे जैसे भी हो एक बार और सत्ता की कुर्सी उन्हें मिल जाए। भले ही सूबे का सामाजिक तानाबाना ख़राब ही क्यों न हो जाए? यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न है।
बिहार में मात्र तीन महीने बाद चुनाव है और ठीक चुनाव से पहले मतदाता पुनरीक्षण की कहानी शुरू हो गई है। इस कहानी के पीछे की राजनीति चाहे जो भी हो लेकिन इसने बिहारी समाज से लेकर विपक्ष को संकट में डाल दिया है। बड़ी बात यह है कि जहां बिहार का एनडीए इस पूरे मामले में मौन है वहीं कांग्रेस समेत महागठबंधन से जुड़ी पार्टियां खुलकर आवाज उठा रही हैं। चूंकि बंगाल में भी अगले साल चुनाव होने हैं इसलिए ममता बनर्जी भी बिहार में शुरू हुए इस खेल का विरोध करना शुरू कर दिया है और कई तरह की आशंका भी उन्होंने जाहिर की है।
कांग्रेस और ममता बनर्जी ने तो साफ़ तौर पर कहा है कि मतदाता पुनरीक्षण के तहत अपनी पात्रता साबित करने के लिए जिस दस्तावेज़ की प्रक्रिया से लोगों को गुजरना होगा वह किसी साजिश की तरफ ही इशारा कर रहे हैं। बहुत से लोग मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं और ऐसा हुआ तो चुनावी परिणाम कुछ और ही हो सकते हैं। कांग्रेस और टीएमसी ने यह भी कहा है कि यह सब कुछ वैसा ही खेल है जैसा कि चुनाव से पहले महाराष्ट्र में किया गया था।
कांग्रेस ने कहा कि चुनाव आयोग की योजना पर संदेह करने के लिए पर्याप्त कारण हैं, वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने इसे “खतरनाक” और “लोकतंत्र के लिए चिंताजनक” बताया है। कांग्रेस के नेताओं और विशेषज्ञों के एक मजबूत समूह ने एक बयान में कहा कि यह प्रस्तावित बदलाव “समस्या का हल दिखाने वाला नहीं है, असल में धोखा देने वाला और शंका पैदा करने वाला विचार है।” कांग्रेस ने कहा, “अब लाखों केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारी यह तय करेंगे कि किसके पास सही कागज़ात हैं और किसके पास नहीं और बिहार चुनाव में कौन वोट डाल सकेगा। इससे सरकार की मशीनरी का इस्तेमाल करके मतदाताओं को जानबूझकर बाहर करने का बड़ा खतरा है।”
दोनों पार्टियों ने उस कागज़ी प्रक्रिया पर आपत्ति जताई है, जिसके ज़रिए लोगों को यह साबित करना होगा कि वे वोट देने के योग्य हैं। चुनाव आयोग की योजना के मुताबिक, 1 जुलाई, 1987 से 2 दिसंबर, 2004 के बीच जन्मे लोगों को अपने पिता या मां की जन्मतिथि और/या जन्मस्थान से जुड़े दस्तावेज़ जमा करने होंगे।
2 दिसंबर, 2004 के बाद पैदा हुए लोगों को अपने माता-पिता दोनों के लिए यही साबित करना होगा। 1 जुलाई, 1987 से पहले पैदा हुए लोगों के लिए यह ज़रूरी नहीं होगा। चुनाव आयोग ने अपने कदम के पीछे तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण, लगातार पलायन, विदेशी अवैध प्रवासियों के नाम शामिल करने जैसे कारकों का हवाला दिया है।
कांग्रेस ने कहा कि यह घोषणा अपने आप में इस बात को मानने जैसा है कि भारत की मतदाता सूचियों में “सब कुछ ठीक नहीं है”- और यह वही मुद्दा है जिसे वह महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हार के बाद से लगातार ज़ोर-शोर से उठा रही है। हालांकि पार्टी का कहना है कि चुनाव आयोग ने जो समाधान निकाला है, वह खुद समस्या से भी ज़्यादा खतरनाक है।
बता दें कि चुनाव आयोग ने 8 मार्च, 2025 को आधार के ज़रिए मतदाता सूचियों को साफ करने का प्रस्ताव रखा था। यह तरीका पूरी तरह सही तो नहीं था, लेकिन बिहार में एसआईआर की तुलना में कहीं ज़्यादा व्यावहारिक था। अब सवाल यह है कि आयोग ने सिर्फ तीन महीने बाद अचानक आधार वाले प्रस्ताव को छोड़कर एसआईआर लागू करने का फैसला क्यों किया?”
उधर ममता बनर्जी ने कहा कि चुनाव आयोग मान्यता प्राप्त राज्य और राष्ट्रीय दलों से परामर्श किए बिना ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकता। उन्होंने सुझाव दिया कि यह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बनाने की योजना को पुनर्जीवित करने का प्रयास हो सकता है। उन्होंने कहा, “गरीब लोगों के पास दस्तावेज़ कहां से आएंगे? क्या यह एनआरसी लागू करने की तैयारी है? सरकार का इरादा क्या है? कृपया साफ-साफ बताएं। इस देश में आखिर चल क्या रहा है? आप 1987 से 2004 के बीच जन्मे लोगों को निशाना बना रहे हैं- यानी 21 से 37-38 साल के बीच की उम्र वाले लोग। क्या सभी के पास अपने माता-पिता का जन्म प्रमाण पत्र होगा? आजकल तो कुछ लोगों के पास ये दस्तावेज़ होते हैं, लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था।”
उधर राजद नेता मनोज झा ने बिहार में चल रहे इस खेल पर एक बड़ा लेख लिखा है। उन्होंने अपने लेख में कहा है कि अगर यह हमारी सीमाओं की सुरक्षा में गृह मंत्रालय की विफलता का निंदनीय आरोप नहीं है, तो यह निश्चित रूप से बड़े पैमाने पर हेरफेर की आशंका के लिए एक बहाना बनाने के लिए कुत्ते की सीटी बजाने जैसा है। पैटर्न स्पष्ट है और विपक्षी दलों को, उद्देश्य स्पष्ट लगता है कि मतदाता सूची में इस तरह से हेरफेर करना कि व्यवस्थित रूप से अल्पसंख्यकों और गरीबों को बाहर रखा जाए।
झा लिखते हैं कि यह पहली बार नहीं है जब इस तरह की रणनीति अपनाई गई है। 2024 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद महाराष्ट्र में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले, कम समय में ही लाखों नाम मतदाता सूची में जोड़े गए। विपक्षी दलों ने अचानक हुई वृद्धि और देर शाम को असामान्य रूप से अधिक मतदान के बारे में वाजिब चिंताएँ जताई हैं। चुनाव आयोग ने डिजिटल, मशीन-पठनीय मतदाता सूची या मतदान के दिन की सीसीटीवी फुटेज जारी करने से इनकार कर दिया है।
अगर भारत की लोकतंत्र के रूप में प्रतिष्ठा को बचाए रखना है तो चुनाव आयोग को इन आरोपों की पूरी तरह से और ईमानदारी से जांच करनी चाहिए। भारत का संविधान अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का काम सौंपता है। इसका मतलब सिर्फ़ मतपत्र की गोपनीयता या मतदान की सुचारू व्यवस्था नहीं है, इसका मतलब है कि चुनाव आयोग संवैधानिक रूप से मतदाताओं की ईमानदारी की रक्षा करने के लिए बाध्य है। यह ईमानदारी तब खतरे में पड़ जाती है जब पूरे समुदाय से उनके खिलाफ़ किसी भी सबूत के बिना वोट देने के अपने अधिकार को साबित करने के लिए कहा जाता है।
रिपोर्ट्स बताती हैं कि एसआईआर के सत्यापन के लिए बिहार के प्रत्येक मतदाता को अपनी पात्रता और नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज प्रस्तुत करने होंगे। ये आवश्यकताएं असम में बदनाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) अभ्यास से एक अजीब समानता रखती हैं, जहां लाखों भारतीयों को नागरिकता साबित करने के लिए दशकों पुराने दस्तावेजों को खोदने के लिए मजबूर किया गया था, अक्सर मनमाने ढंग से।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार के 70 लाख से ज़्यादा नागरिक राज्य के बाहर काम करते हैं। अब इन बाधाओं को लागू करने से न केवल मतदान में कमी आएगी और वैध मतदाता भाग लेने से वंचित होंगे, बल्कि बिहार के ग़रीब निवासियों और दूसरे राज्यों में रहने वाले प्रवासियों द्वारा नागरिकता साबित करने की आवश्यकता बड़े पैमाने पर अराजकता, जानबूझकर भ्रम और भय पैदा करने के लिए बनाई गई है।
(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)