जमानत पर रिहा गुलाम मुहम्मद भट के पैरों में जीपीएस बेल्ट

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यूएपीए और आतंकवाद की धाराओं में आरोपी और दिल्ली के एनआईए की पटियाला कोर्ट में दोषी गुलाम मुहम्मद भट को विशेष एनआईए कोर्ट, जम्मू ने जब जमानत दिया तब साथ ही जम्मू और कश्मीर पुलिस को उनके पैरों में जीपीएस ट्रैकर बेल्ट भी लगाने का आदेश पारित कर दिया। आज द संडे एक्सप्रेस के नवें पेज पर छपी यह खबर एक अधिकारी को उद्धृत करता हैः ‘‘अभियोग पक्ष की ओर से जो पेश किया गया उस आधार पर विशेष एनआईए कोर्ट, जम्मू ने जम्मू-कश्मीर पुलिस को आरोपी के पैरों में जीपीएस ट्रैकर लगाने का आदेश पारित कर दिया।’’

गुलाम मुहम्मद भट पर गंभीर आरोप हैं। और, उन पर आतंकवाद और यूएपीए की धाराएं लगी हुई हैं। उन्हें एक कोर्ट सजा भी दे चुकी है। उन्हें जम्मू के विशेष कोर्ट में पेश किया गया था। अभियोग पक्ष ने उन पर लगी धाराओं के आधार पर कड़ी निगरानी के लिए कोर्ट से आग्रह किया था।

कोर्ट के आदेश से अब जम्मू-कश्मीर पुलिस ने जब गुलाम मुहम्मद भट को जीपीएस बेल्ट पहनाया तब उसने यह भी दावा किया कि देश में उसने पहली बार इस तरह के बेल्ट का प्रयोग किया है। पीटीआई से ली गई इस खबर में अमेरीका, यूनाईटेड किंगडम, दक्षिण अफ्रिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड का संदर्भ भी दिया गया है जहां जमानत, पैरोल, नजरबंदी और कई बार जेलों की भीड़ को कम करने के दौरान इस तरह की तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। मुझे न तो इन देशों में इन तकनीकों के प्रयोग का संदर्भ पता है और न ही आरोपियों के अपराध की श्रेणी पता है। यहां इसका हवाला नहीं दिया गया है।

यहां गुलाम मुहम्मद भट के बारे में इतना ही बताया गया है कि उसने जमानत के लिए अर्जी दे रखी थी और सुनवाई के दौरान उसे जमानत पर रिहा किया गया। कोर्ट अक्सर ही जमानत पर रिहा करते समय कई सारी शर्तें तय करता है।

हम पिछले दो दशक में जितना ही अपराध से सबंधित कानूनों में बदलाव और उसे अधिक दंडात्मक बनाने का आग्रह सरकारों के अध्यादेशों, अधिनियमों आदि में देख रहे हैं, उसी गति से कोर्ट द्वारा जमानत और दंड के आदेशों में भी उतना दंडात्मक आग्रह दिख रहा है। खासकर, आतंकवाद से संबंधित कानूनों और प्रावधानों को लेकर एक बेचैनी बनी हुई है। खुद सर्वोच्च न्यायालय इस मसले को बहस के घेरे में लाकर एक आम निर्णय तक पहुंचना चाहता है। लेकिन, यह मसला फिलहाल आगे जाता हुआ नहीं दिख रहा है। यह और भी गंभीर स्थिति में जा रहा है।

भीमा कोरेगांव केस के नाम से चर्चित मामलों में कुछ लोगों को जमानत पर रिहा किया गया। लगभग सभी मामलों में उन्हें मुंबई में ही रहने की शर्त रखी गई। 5 अगस्त, 2023 को वर्नन गोंजालवेज और अरूण फरेरा को जमानत देते हुए विशेष अदालत ने यह शर्त भी रखी कि वे महाराष्ट्र से बाहर नहीं जाएंगे और अपना पासपोर्ट को जमा कर देंगे। साथ ही यह भी शर्त रखी गई इस केस के बारे में मीडिया से बात नहीं करेंगे।

साथ ही, एनआईए को यह अधिकार दिया गया कि उपरोक्त शर्तों के उलघंन पर इस जमानत को रद्द करने की अर्जी दे सकते हैं। इनके पहले, इस केस में सुधा भारद्वाज और आनंद तेलतुंबडे को जमानत दी गई थी। वरवर राव को स्वास्थ्य के आधार पर जमानत मिली। अभी हाल ही में, उनके आंख के आपरेशन के लिए महाराष्ट्र से बाहर हैदराबाद जाने की अनुमति मांगी गई, जिसमें कई शर्तों के साथ ही सात दिनों के लिए ही अनुमति मिली।

जाहिर है, ऐसे में उनके सिर्फ एक आंख का ही आपरेशन संभव है। दूसरी आंख के आपरेशन के लिए संभव है फिर से अर्जी देनी पड़े। इस मामले में, एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति फादर स्टेन स्वामी की रही। जिनकी आवाज को कोर्ट ने सुनने से ही इंकार कर दिया और वे गिरफ्तारी की स्थिति में ही दम तोड़ गये।

ऐसा नहीं है, कि यह स्थिति सिर्फ भीमा कोरेगांव केस में है। इस दौरान, आतंकवाद के अरोपों में बंद लोगों की भयावह कहानियां तब सामने आ रही हैं जब कुछ चंद मामलों में ऐसे आरोपी कोर्ट द्वारा दोषमुक्त करार दिये जाते हैं। जब वे जेल से बाहर आ रहे होते हैं, तब तक पूरा परिवार और खुद आरोपी की जिंदगी तबाह हो चुकी होती है। लेकिन, अब ये मसले इससे इतर अभियोग में भी दिखने लगी है।

दिल्ली के कथित शराब घोटाला और ईडी के आरोपों में आप पार्टी की सरकार के मंत्रियों पर चल रहा मुकदमा और जमानत न मिलना कोर्ट द्वारा पेश की जा रही एक नई बानगी है। यह अपराध और दंड के बीच चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है, जिसका कुछ समय पहले तक बंद कोर्ट में प्रदर्शन होता था, अब यह लाइव हो गया है।

आमतौर पर अपराध आरोप से पहले तय नहीं होता और दंड अपराध की परिभाषा के अनुरूप हो, इस पर कोर्ट काफी मशक्कत करता है। अमूमन मध्ययुगीन न्याय की प्रक्रिया इन तीनों में से आरोप और अपराध की प्रक्रिया को बेहद संक्षिप्त समय में पूरा कर लेती थीं। लेकिन, वे दंड देने के समय में काफी वक्त और इसका मुजाहरा काफी शोरगुल के साथ संपन्न होता था। खासकर, मौत की सजा का प्रदर्शन को एक उन्माद भरे क्षण में बदल दिया जाता था।

आधुनिक युग में, जिनसे हमारे कानून और प्रावधानों ने आकार लिया, यह सारा काम कोर्ट के बंद कमरों और कारागार की कोठरियों में संपन्न होने लगे। मिशेल फूको के शब्दों में, ‘‘19वीं सदी की शुरूआत के साथ शारीरिक दंड का प्रदर्शन लुप्त होने लगा, यातना से भरे शरीर को दरकिनार किया गया ओर दंड का जो नाटकीय प्रदर्शन होता था, उससे बचा जाने लगा। अब दंड में शोभनीयता (डीसीप्लिन एण्ड पनिश) का प्रदर्शन शुरू हुआ।’’

अपने देश आज स्थिति थोड़ी अलग सी दिख रही है। यहां सिर्फ आरोपों का प्रदर्शन ही नहीं हो रहा है, आरोप को अपराध की श्रेणी में लाकर उसके ट्रायल का प्रदर्शन भी उतने ही जोरों से हो रहा है। अभियुक्त और अभियोग न्याय के मूल्य को हासिल करने के दौरान जिस तरह से भिड़े हुए दिख रहे हैं, उसमें खुद न्याय की आवाज महज एक अंतिम उम्मीद की तरह दिखती है।

एक अंतहीन से लगने वाले संवादों को, जिसे आप कोर्ट की भाषा में जिरह कहिए, एक आरोपी न्याय की उम्मीद में जिस यातना को सह रहा होता है, उसका प्रदर्शन भी उसी समय हो रहा होता है। खासकर, यदि वह बिमार है या वृद्ध है, या किसी और कारणों से उसका शरीर क्षरित हो रहा है, तब इसका प्रदर्शन उन लोगों के लिए चेतावनी हो जाती है जो सत्ता के प्रति असहमत होते हैं या वे विपक्ष में होते हैं। जब विपक्ष के नेता राहुल गांधी यह बोल रहे होते हैं, कि वे नहीं डरते हैं, तब इसका अर्थ यह भी है कि डर का माहौल किस तरह से बन गया है।

ऐसे में, जब कोर्ट एक भयावह शर्तों के साथ जमानत पर रिहा करता है, पैरों में जीपीएस बेल्ट पहनने का आदेश पारित कर देता है, तब ऐसी जमानतों पर बाहर आये लोग समाज के बीच होते हैं। वे अपने साथ कोर्ट की उस यातना भरे आदेशों को लेकर, लोगों के बीच होते हैं। वे कोर्ट की इन शर्तों का एक खुला प्रदर्शन करने के लिए बाध्य होते हैं।

दरअसल वे खुद आरोप और अपराध की प्रक्रिया, जिसे कोर्ट के भीतर होना चाहिए था, के प्रदर्शन के लिए बाध्य होते हैं। वे कोर्ट के आदेश से बंधे होते हैं। यह एक मध्ययुगीन दंड प्रक्रिया नहीं है। यह उस राज्य की न्यायिक प्रक्रिया है जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, जहां दंड देने के पहले भी एक दंड की प्रक्रिया चल रही है।

ऐसी ही प्रक्रिया में, जब फादर स्टेन स्वामी को महज पानी पीने के लिए एक स्ट्रा की गुहार नहीं सुनी गई, उनके खराब स्वास्थ्य पर कोर्ट ने एक नजर तक डालने से मना कर दिया, तब उनकी मौत को आने से कौन ही रोक सकता था। न्याय निश्चय ही एक निरपेक्ष शब्द नहीं है। खासकर, उस समय तक तो जरूर ही जब तक दंड और कारागार इसका अभिन्न हिस्सा है।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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