ग्राउंड रिपोर्ट: शबरी घरकुल आवास योजना: सरकार को आदिवासियों की फ़िक्र नहीं

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महाराष्ट्र के गरीब आदिवासी परिवारों को आवास बनाने के लिए शत प्रतिशत आर्थिक मदद वाली ‘शबरी घरकुल आवास योजना’ इनदिनों बुरे दौर से गुजर रही है। योजना के तहत आवास बनाने के लिए लाभार्थियों को राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली एक लाख तीस हजार की आर्थिक मदद, बढती महंगाई के कारण जहाँ अपर्याप्त है, वहीं योजना के तहत चयनित लाभार्थियों को आवास निर्माण के लिए सरकार द्वारा भेजी जाने वाली किश्तें भी समय से नहीं भेजी जा रही हैं। राज्य में बड़ी संख्या ऐसे आवासों की है जो पिछले तीन-चार सालों से निर्माणाधीन अवस्था में हैं, लेकिन योजना की किश्तें जारी नहीं होने से उन्हें पूरा नहीं किया जा सका है।

उत्तर महाराष्ट्र के नासिक, धुले, जलगांव, नंदुरबार और उसके आस-पास के क्षेत्रों में विधानसभा चुनाव के दौरान मेरी मुलाकात कई ऐसे आदिवासी परिवारों से हुई थी, जिन्हें इस योजना के तहत आवास स्वीकृत होने के बाद भी, उसके निर्माण के लिए राज्य सरकार से जरूरी किश्तें समय पर नहीं मिल पा रही थीं।

गौरतलब है कि आदिवासियों के लिए आवास निर्माण की इस योजना को मार्च- 2013 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा शुरू किया गया था। ऐसी आशा थी कि यह योजना राज्य के कमजोर, उपेक्षित और बेहद गरीब दस फीसद आदिवासी समुदाय को संबल प्रदान करेगी। योजना में यह व्यवस्था की गई कि इसका पूरा खर्च राज्य सरकार वहन करेगी ताकि लाभार्थियों तक समय से जरूरी फंड उपलब्ध हो सके और आवास निर्माण में अनावश्यक ‘देरी’ नहीं हो। यह योजना प्रधानमंत्री आवास योजना की प्रतिकृति के बतौर महाराष्ट्र राज्य ने अपने संसाधनों से आदिवासी समुदाय के लिए शुरू की थी। इस योजना में 269 वर्गफीट का पक्का मकान बनाये जाने के लिए पात्र परिवारों को शत-प्रतिशत अनुदान मिलता है।

योजना के तहत प्रत्येक वर्ष जिलेवार सरकार लाभार्थियों का कोटा तय करती है। ग्राम पंचायत, तालुका पंचायत और जिला पंचायत की सक्रिय भागीदारी से योजना का लाभ पात्र परिवार तक पहुंचाए जाने की व्यवस्था है। इस समय एक लाख तीस हजार रुपये चार चरणों में इस योजना के लाभार्थी को दिए जाने की व्यवस्था है।

जलगांव जिले के अमलनेर तालुका निवासी पूर्व जिला पंचायत सदस्य व अमलगांव के वर्तमान सरपंच गिरीश पाटील आदिवासी घरकुल आवास योजना की खामियां गिनाते हैं। वह कहते हैं, ‘‘सरकार आम आदिवासी को किश्तों में घर बनाने के लिए पैसे देती है। यह पैसा अधिकतम एक लाख तीस हजार रुपया होता है। सरकार का कहना है कि घर का निर्माण कम से कम 269 वर्ग फिट का होना चाहिए। और लाभार्थी की खुद की जमीन होनी चाहिए। आज सरकार इस योजना में जितना पैसा देती है- उसमे अफसरों का सुविधा शुल्क, ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत समिति, ग्राम सेवक सहित सबका हिस्सा लगाने के बाद लाभार्थी को अधिकतम एक लाख रुपये बचते हैं। फिर इतने पैसे में तो तय मानक का घर कभी नहीं बन सकता है।’’

अमलेर के जलोद गाँव निवासी, पूर्व सरपंच शशिकांत संखुले, गिरीश पाटील की बातों से सहमति जताते हुए आगे बताते हैं, ‘‘इस योजना की शर्तें इतनी कठोर हैं कि लाभार्थी इससे जुड़ने की हिम्मत ही नहीं कर पाता है। इसकी किश्तें समय से सरकार दे नहीं पाती, लिहाज़ा समय के साथ मकान बनाने की लागत बढ़ जाती है। लागत बढ़ने से लोगों की रुचि इस योजना को लेकर गिरती जा रही है।’’

इस योजना को पाने की प्रक्रिया कितनी जटिल है- इसके जवाब में शशिकांत कहते हैं, ‘‘ सबसे पहिले आदिवासी की अपनी खुद की जमीन होनी चाहिए। फिर उसके आवेदन पर ग्राम पंचायत, तालुका पंचायत समिति अपनी स्वीकृति देती है। और फ़िर उसके बाद उसे राज्य सरकार लाभार्थी के बतौर अपने यहाँ दर्ज करती है। जिस जमीन पर यह आवास बनेगा उसके अभिलेख में भी इस सूचना को दर्ज करवाना पड़ता है। फिर, आवास निर्माण का पैसा समय से आता नहीं है। एक लाभार्थी कब तक इसकी किश्त आने का इंतजार करेगा? पहिले थोडा पैसा मिलता है, फिर आवास की नीव भरकर उसकी फोटो भेजिए, उसका पंचायत से स्थलीय निरीक्षण करवाइए, फिर अगली किश्त आएगी। कई बार अगली किश्त आने में साल भर से ज्यादा लग जाता है। चेक लेने जाइये तो पंचायत में फिर पैसा दीजिये। इस तरह चार चरणों में फोटो और स्थलीय निरीक्षण होता है, फिर निरिक्षण के बाद किश्त आता है। गरीब आदिवासियों से अफसर ज्यादा पैसा ऐंठ लेते हैं। फिर सम्बंधित अधिकारीयों की खुशामद अलग से करिए। इसलिए अब लोग इस योजना में घुसना ही नहीं चाहते हैं।’’

वह आगे कहते हैं कि इस योजन में 2016- 2017 में जितना पैसा आवास बनाने के लिए मिलता था, वही आज भी मिलता है। जबकि घर बनाने का खर्च अब डेढ़ गुना से ज्यादा बढ़ गया है। किश्त समय से नहीं मिलती है, उसका दर्द अलग है।

इस योजना का सारा संकट कहाँ है, इसे समझाते हुए आदिवासी नेता और जलगांव के अमलनेर तालुका के भरवस ग्राम पंचायत के सरपंच दयाराम भील कहते हैं, ‘‘योजना में लम्बा समय बीतने के बाद भी लाभार्थी के घर तैयार नहीं हो पाते। बार-बार ग्राम सेवक और पंचायत अधिकारियों द्वारा- फोटो खींचने, अगले स्टेप के लिए मदद जारी करवाने के नाम पर इतना ज्यादा कमीशन खाया जाता है कि लाभार्थी इन अफसरों की जेब गर्म करने में ही परेशान हो जाता है। कई लोगों के आवास चार साल से रुके हुए हैं क्योंकि उन्हें राज्य सरकार द्वारा अगली किश्त जारी नहीं की गई है।’ वह आगे कहते हैं, ‘सरकार की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं है और जब उसपर कर्ज बढ़ता जा रहा हो फिर इस योजना के लिए पैसा कहाँ से आएगा? इसलिए किश्त के लिए लाभार्थियों को काफी लम्बा इन्तजार करना पड़ता है।’’

योजना की ख़राब हालत का अंदाजा महाराष्ट्र सरकार के आदिवासी विकास विभाग के द्वारा जारी किये गए आंकड़ों से भी मिलता है। जून -2024 तक इस योजना के बारे में उपलब्ध आकड़ों पर गौर करें तो बहुत निराशाजनक स्थिति दिखाई देती है। कई बार ऐसा हुआ जब सरकार ने इस योजना के तहत घोषित लक्ष्यों के सापेक्ष लाभार्थियों का चयन नहीं किया। यह सिर्फ सरकार द्वारा खुद को आदिवासी हितैषी दिखाने की होड़ में आदिवासी समुदाय के साथ किया गया एक भद्दा मज़ाक था, क्योंकि लोगों के आवेदन ही ख़ारिज कर दिए गए थे।

उदहारण के लिए, वित्त वर्ष 2019- 20 के दौरान जब महाविकास अघाड़ी सत्ता में था तब राज्य में 37879 आवास  इस योजना के तहत स्वीकृत किये गए थे। इन आवासों में 34967 को समय रहते पूरा कर लिया गया था और 2912 आवास आज भी निर्माणाधीन हैं। कोविड संक्रमण के दौरान इस योजना के तहत नए आवास स्वीकृत नहीं किये गए। लेकिन, वित्त वर्ष 2021-22 में इस योजना के तहत 18154 आवास पुनः स्वीकृत किये गए। इनमें से 14736  आवासों को पूर्ण किया गया और 3418 आवास आज भी निर्माणाधीन हैं। वर्ष 2022-23 के दौरान 77205 आवास राज्य की एकनाथ शिंदे सरकार ने स्वीकृत किये और केवल 26884 आवास पूर्ण किये जा सके। आज भी इस वित्त वर्ष के 50321 आवास निर्माणाधीन हैं। वित्त वर्ष 2023-2024 के लिए 54304 स्वीकृत आवासों के सापेक्ष 4080 आवासों को जहाँ पूर्ण किया जा सका, वहीँ अभी भी 50224 आवास निर्माणाधीन हैं।

यही नहीं, राज्य सरकार के आकंड़ों के के विश्लेषण से पता चला कि पूर्ववर्ती एकनाथ शिंदे सरकार के कुल कार्यकाल में कुल इकतीस हजार आवासों का ही निर्माण किया जा सका। उपलब्ध विवरण के मुताबिक 2023-2024 में इस योजना के तहत एकनाथ शिंदे सरकार ने 121125 आवासों के निर्माण का लक्ष्य रखा था, लेकिन केवल 54304 आवास ही स्वीकृत किये गए। हालाँकि, इसके लिए 1200 करोड़ रुपये का बजट निर्धारित किया गया था।

आखिर इतनी बड़ी संख्या में इस योजना के तहत आवास निर्माण का लक्ष्य रखने के बावजूद पचास फीसद से कम आवासों को स्वीकृति मिलना क्या भाजपा का केवल चुनावी प्रचार के लिए आदिवासी समुदाय से किया गया एक मजाक था? कुल मिलकर जब राज्य में डबल इंजन की सरकार होने का दावा किया जाता हो, जब मोदी सरकार समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास का लाभ पहुँचाए जाने का दावा करती हो, और खुद को आदिवासियों का एक सच्चा हितैषी घोषत करती हो- फ़िर इस योजना का खस्ताहाल होना भाजपा के सभी दावे की पोल खोल देता है।

जब देश को आदिवासी राष्ट्रपति देने के प्रचार पर आदिवासी समुदाय का वोट लेकर कुछ खास कार्पोरेट के लिए काम किया जा रहा हो, तब इस बिंदु को रेखांकित करना जरूरी है कि राज्य के आदिवासी हिंदुत्व की मजबूती के टूल बनने को अभिशप्त हैं। आदिवासी समुदाय केन्द्रित इस योजना का इतनी ख़राब स्थिति में होना बताता है कि भाजपा इन्हें सियासी लाभ के लिए प्रयोग कर रही है। सच यह है कि गरीब आदिवासियों से सम्बंधित योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन को लेकर इस ‘डबल इजंन’ के दावे वाली महायुति सरकार की कोई रूचि नहीं है।

(महाराष्ट्र के जलगांव से हरेराम मिश्र की ग्राउंड रिपोर्ट)

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