चंदौली। आपने बचपन में वो कहानी जरूर सुनी होगी, “बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा…।” इस कहानी में बहेलिया समुदाय को पक्षियों के लिए खतरा बताया गया है, लेकिन आज वही बहेलिया समुदाय अपनी नई पहचान गढ़ रहा है। चंदौली जिले के चकिया प्रखंड के मगरौर गांव में रहने वाले बहेलिया समुदाय ने शिकार को छोड़कर बांस की खांची बनाने और सिंघाड़े की खेती जैसे परंपरागत कार्यों के साथ एक नई दिशा में कदम बढ़ाया है। बहेलिया समुदाय के जिन बच्चों का बचपन जंगलों में बीतता था, वो अब गणित, विज्ञान, हिंदी और अंग्रेजी सीख रहे हैं।

चकिया प्रखंड के मगरौर गांव के बहेलिया समुदाय की कहानी एक गहरी संवेदना और संघर्ष का प्रतिबिंब है। करीब 35 परिवारों का यह गांव, जहां कभी जंगलों में पक्षियों और वन्यजीवों का शिकार करना जीवनयापन का साधन था, आज खांची बनाने की कला के सहारे सांसें ले रहा है। समय बदला, शिकार पर पाबंदी लगी, तो इन लोगों ने अपनी पारंपरिक शिल्पकला को संभाल लिया। लेकिन अफसोस कि उनकी कला को वो सम्मान और सहारा कभी नहीं मिला, जिसकी वह हकदार है।
कभी जंगलों और पक्षियों के शिकार को अपनी आजीविका मानने वाला मगरौर का बहेलिया समुदाय आज एक नई कहानी लिख रहा है। यह कहानी है बदलाव की, आत्मनिर्भरता की, और सबसे बढ़कर, प्रकृति से प्रेम की। मगरौर गांव के बहेलिया समुदाय ने पक्षियों का शिकार छोड़कर उनके संरक्षण का जिम्मा अपने कंधों पर ले लिया है। यह सिर्फ एक आदत बदलने का किस्सा नहीं है, बल्कि एक पूरी जीवनशैली को बदलने और समाज में एक नई पहचान बनाने की कहानी है।
शिक्षा की रोशनी से रोशन जीवन
बहेलिया समुदाय के बुजुर्ग बताते हैं कि बदलाव की यह शुरुआत तब हुई, जब उन्होंने बांस और सिंघाड़े की खेती शुरू की। उन्हें यह महसूस हुआ कि पक्षी उनके खेतों में मौजूद कीटों को खाकर उनकी फसल को बेहतर बना रहे हैं। यह समझ ने न केवल उनके जीवन को नई दिशा दी, बल्कि पक्षियों और प्रकृति के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी बदल दिया।

पहले यह समुदाय खानाबदोश जीवन जीता था। बच्चों का बचपन जंगलों में शिकार के गुर सीखने में बीतता था। लेकिन आज वही बच्चे स्कूलों में बैठकर गणित, विज्ञान और अंग्रेजी सीख रहे हैं। गांव के पारस बहेलिया बताते हैं, “पहले हमारे बच्चे स्कूल का नाम तक नहीं जानते थे। लेकिन जब हमें समझ आया कि शिक्षा ही उनके जीवन को बदल सकती है, तो हमने उन्हें पढ़ाई के लिए भेजा। अब हमारा सपना है कि हमारे बच्चे अफसर बनें।”
छोटू, सनी, सुहानी, नीलम, सरस्वती, प्रिया और वर्षा जैसे बच्चे अब बड़े सपने देख रहे हैं। प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाली सरस्वती कहती है, “पहले हमें लगता था कि डॉक्टर बनना हमारे लिए असंभव है। लेकिन अब मैं जानती हूं कि यह मुमकिन है।”

पहले बेटियां घर के कामों तक सीमित रहती थीं, लेकिन अब बहेलिया समुदाय ने उन्हें भी शिक्षा का समान अधिकार दिया है। भगवती कहते हैं, “हम चाहते हैं कि हमारी बेटियां आत्मनिर्भर बनें और अपना भविष्य खुद तय करें। बेटियों की पढ़ाई ने पूरे समुदाय को एक नई पहचान दी है। जो लोग पहले इस समुदाय को तिरस्कार की नजर से देखते थे, वे अब उनके प्रयासों की सराहना करते हैं।”
“शिक्षा ने बहेलिया समुदाय को गरीबी और सामाजिक भेदभाव के चक्र से बाहर निकलने का माध्यम दिया है। बच्चों को अब अपने अधिकारों और अवसरों का ज्ञान हो रहा है। वे समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की दिशा में बढ़ रहे हैं। आज मगरौर का बहेलिया समुदाय अपने गांव में उच्च शिक्षा के लिए अच्छे विद्यालय और कौशल विकास के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रमों की मांग कर रहा है। यह इस बात का प्रतीक है कि बदलाव की यह यात्रा अभी रुकी नहीं है।”
खांची बनाने का हुनर और संघर्ष
मगरौर गांव पूर्वांचल का इकलौता गांव है, जहां खांची बनाने का हुनर पीढ़ियों से जीवित है। यहां के लोग कर्मनाशा नदी के किनारे और जंगलों से हेला लकड़ी की झाड़ियां काटकर खांचियां बुनते हैं। इन खांचियों का उपयोग घर-गृहस्थी, पशुओं के गोबल उठाने और भूसा भरने के लिए होता है। 35 वर्षीय गुड़िया कहती हैं, “हमारी कई पीढ़ियां खांची बनाते हुए गुजर गईं। अब भी हमारी रोटी इसी से चलती है। लेकिन आज के दौर में हमारी मेहनत का कोई मोल नहीं है।”

गुड़िया अनपढ़ हैं। तीन बेटियों की मां हैं। उनकी बड़ी बेटी स्कूल जाना चाहती थी, लेकिन पैसे की तंगी ने पढ़ाई का सपना तोड़ दिया। खांची बुनते हुए गुड़िया की आंखें भर आती हैं। वे कहती हैं, “यह कला हमें पुश्तैनी मिली है। लेकिन हमारे बच्चे अब इसे नहीं अपनाना चाहते, क्योंकि इससे दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया है।”
53 वर्षीय राम केवल की कहानी किसी का भी दिल पिघला सकती है। चार बच्चों के पिता राम केवल जनकपुर और शेरपुर के जंगलों से झाड़ियां काटकर खांचियां बनाते हैं। वह बताते हैं, “हर रोज हमें डर के साए में जंगल जाना पड़ता है। वन विभाग के कर्मचारी हमें रोकते हैं। कई बार मारते-पीटते हैं। हमारा हसुआ और लकड़ियां छीन लेते हैं। फिर भी पेट पालने के लिए हमें यह जोखिम उठाना पड़ता है।”
शहजाद यादव की आठ बेटियां और एक बेटा है। उनका पूरा परिवार खांची बनाने के काम में जुटा रहता है। वह कहते हैं, “सुबह चार बजे बासी रोटी लेकर निकलते हैं और देर शाम तक खांचियां बेचते हैं। सर्दियों की रात हो या बारिश का मौसम, यह काम कभी रुकता नहीं। लेकिन दिनभर की कमाई मुश्किल से 150 रुपये तक पहुंचती है।”

मगरौर के कैलाश साहनी पिछले 40 सालों से हेला की झाड़ियों से खांची बुनाई कर रहे हैं। वह बताते हैं,”पहले खांचियों की बहुत मांग थी। लेकिन प्लास्टिक की टोकरियों ने हमारे काम को खत्म कर दिया। पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों की मांग के बावजूद हमें बाजार में स्थान नहीं मिल पाया। सरकार से हमें आज तक कोई मदद नहीं मिली। नतीजा, हमारी कला बस हमारे गांव तक सिमटकर रह गई है।”
मगरौर के खांची बुनने वाले अपनी कला के संरक्षण के लिए सरकार से मदद की आस में हैं। लेकिन अब तक उन्हें निराशा ही मिली है। शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव उनके संघर्ष को और भी गहरा बना देता है। राम केवल का सवाल हमें झकझोर देता है, “हमारा क्या कसूर है? हम तो मेहनत करते हैं। लेकिन न हमारी मेहनत का दाम मिलता है, न हमारा भविष्य सुधरता है। क्या हमारी कला का कोई मोल नहीं?”
मगरौर के ग्राम प्रधान राधे साहनी कहते हैं, ” मगरौर के पारंपरिक शिल्पकला अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। यह समाज और सरकार दोनों के लिए एक संदेश है कि अगर इन समुदायों को संरक्षित नहीं किया गया, तो हम अपनी विरासत के एक महत्वपूर्ण हिस्से को खो देंगे। मगरौर के खांची बुनने वाले बदलाव की उम्मीद लगाए बैठे हैं। उनकी मेहनत और कला को एक नई पहचान देने की जरूरत है, ताकि उनके बच्चों को बेहतर भविष्य और सम्मानजनक जीवन मिल सके। यह केवल एक गांव की कहानी नहीं, बल्कि एक पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है।”

मगरौर गांव के बहेलिया अब अपनी हस्तशिल्प कला के लिए पहचाने जाते हैं। ये लोग बांस से खांची (टोकरी) बनाते हैं, जो स्थानीय बाजारों में बिकती हैं। महिलाओं और पुरुषों की मिलीजुली मेहनत से बनी ये खांचियां स्थानीय बाजारों के अलावा पड़ोसी जिलों तक भी जाती हैं। साथ ही, सिंघाड़ा की खेती ने इन परिवारों को स्थायी आय का साधन प्रदान किया है। तालाबों में सिंघाड़े उगाने का उनका हुनर अब पूरे इलाके में सराहा जा रहा है।
संघर्ष और नई उम्मीदों की कहानी
मगरौर, जो कभी जंगली जानवरों के हमलों और सरकारी नीतियों की वजह से खेती-किसानी से महरूम हो चुका था, आज अपनी मेहनत और संकल्प के बल पर एक नई पहचान बना चुका है। यह कहानी बहेलिया समुदाय की है, जिन्होंने कठिन हालातों के बीच भी हार नहीं मानी और सिंघाड़े की खेती के जरिए अपनी जिंदगी को एक नई दिशा दी।
मगरौर गांव के बहेलिया समुदाय के राम सकल बताते हैं, “पिछले 15 सालों से इस गांव में धान और गेहूं की खेती लगभग बंद हो चुकी है। जंगलों में रहने वाली नीलगाय और जंगली सुअर हमारी फसलों को तबाह कर देते हैं। पहले सरकार ने इन्हें मारने की अनुमति दी थी, लेकिन अब इस पर रोक लगा दी गई है। नतीजा यह है कि जो भी बोया जाता है, वह फसल रातों-रात चट कर दी जाती है। कई बार नीलगाय झुंड में आती हैं और पूरी मेहनत पर पानी फेर देती हैं।”

खेती-किसानी के इस संकट ने गांव के लोगों को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया, जहां उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा। लेकिन बहेलिया समुदाय ने हार मानने के बजाय अपनी लाचारी को ताकत में बदलने का फैसला किया। राम सकल आगे बताते हैं, “नीलगायों और जंगली जानवरों के आतंक के बीच हमें सिंघाड़े की खेती का ख्याल आया। शुरुआत में यह मुश्किल जरूर था, लेकिन धीरे-धीरे हमने इसे अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। अब हमारी पहचान सिंघाड़े की खेती से है।”
मगरौर गांव के लोग अब चंदौली और बनारस के तालाबों का ठेका लेते हैं और उनमें सिंघाड़े की खेती करते हैं। पहले यह खेती महज एक विकल्प थी, लेकिन अब यह पूरे समुदाय की आर्थिक रीढ़ बन चुकी है। यह केवल आय का साधन नहीं, बल्कि गांव के लोगों के आत्मविश्वास और भविष्य के सपनों की बुनियाद भी है।
सरयू बहेलिया, जो वन विभाग में रेंजर के पद से रिटायर हो चुके हैं, बताते हैं, “पहले लोग इतनी गरीबी में थे कि रोजाना 50 रुपये भी कमा पाना मुश्किल था। लेकिन जब नई पीढ़ी ने तालाबों का ठेका लेना शुरू किया, तो चीजें बदलने लगीं। सिंघाड़े की खेती ने हमें न सिर्फ आत्मनिर्भर बनाया, बल्कि हमारे जीवन का स्तर भी बेहतर किया।”
सिंघाड़े की खेती जून से शुरू होती है, जब तालाबों में बीज डाले जाते हैं। लेकिन यह केवल शुरुआत है। जलकुंभी (सेवार) को हटाना, खाद डालना, पानी की सही मात्रा बनाए रखना और तालाब की लगातार देखभाल करना, यह सब पांच महीने तक जारी रहता है। अक्टूबर-नवंबर में फसल तैयार होती है, और तालाबों की हरियाली इस बात की गवाह बनती है कि मेहनत कभी बेकार नहीं जाती।
कम साधनों में बड़ा सपना
सरयू बहेलिया बताते हैं, “मात्र 10 हजार रुपये की लागत से एक बीघा की पोखरी में सिंघाड़े की खेती की जा सकती है, और इससे लाखों रुपये कमाए जा सकते हैं। पहले सूखे सिंघाड़े की कीमत ज्यादा मिलती थी, लेकिन अब बाजार में यह 60-80 रुपये प्रति किलो में बिकता है। इसके बावजूद, यह हमारे लिए वरदान साबित हुआ है।”
यह खेती आसान नहीं है। ठंडे पानी में घंटों मेहनत करना, लगातार फसल की निगरानी करना और बाजार तक फसल को सही समय पर पहुंचाना-यह सब मेहनत और धैर्य की परीक्षा है। मगर मगरौर के बहेलिया समुदाय ने दिखा दिया कि अगर हौसला बुलंद हो, तो कोई भी काम असंभव नहीं है।

मगरौर गांव के चंद्रप्रकाश बहेलिया कहते हैं, “हमने साबित कर दिया कि इच्छाशक्ति और मेहनत से बड़े से बड़ा लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। सिंघाड़े की खेती ने हमारे गांव को चंदौली और बनारस में एक अलग पहचान दिलाई है। यह सिर्फ एक काम नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन है। यह हमें सिखाता है कि कैसे कम साधनों में भी प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर अपनी जिंदगी को बेहतर बनाया जा सकता है।”
आज इस गांव के लोग न सिर्फ खुद आत्मनिर्भर हैं, बल्कि आसपास के लोगों के लिए प्रेरणा भी बन चुके हैं। सिंघाड़े की खेती ने उनके जीवन को न सिर्फ आर्थिक रूप से मजबूत किया है, बल्कि उन्हें सम्मान और पहचान भी दिलाई है। मगरौर के बहेलिया समुदाय ने यह समझाने की कोशिश की है कि ठंडे पानी में गहराई तक जाने से ही मोती हाथ लगते हैं।
वीरता और विरासत की गाथा
मंगरौर गांव, चकिया क्षेत्र का एक ऐसा स्थान है, जिसकी मिट्टी में बहेलिया समुदाय की सांस्कृतिक धरोहर और संघर्ष की कहानियां बसी हुई हैं। यह गांव न केवल बहेलिया समुदाय का घर है, बल्कि उनकी अनूठी परंपराओं, बहादुरी और जंगल से जुड़े गहरे रिश्ते का प्रतीक भी है। सदियों से जंगल बहेलिया समुदाय के जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है। उनके पूर्वजों ने जंगल को केवल अपनी जीविका का साधन नहीं, बल्कि अपने संरक्षक के रूप में देखा।
बहेलिया समुदाय का जंगल से संबंध उनके जीवन और अस्तित्व के लिए उतना ही महत्वपूर्ण था जितना उनके सांस्कृतिक मूल्यों के लिए। जंगल की हर बारीकी, हर पेड़-पौधे और हर पशु-पक्षी की गहरी जानकारी उनके पास थी। यह ज्ञान उनके लिए सिर्फ जीविकोपार्जन का माध्यम नहीं था, बल्कि उनकी पहचान का एक अभिन्न हिस्सा भी था।
इतिहास के पन्नों में मंगरौर का नाम तब दर्ज हुआ, जब राजा बलवंत सिंह ने बहेलिया समुदाय की कुशलता और बहादुरी को पहचाना। राजा ने राजस्थान से बहेलिया समुदाय को बुलाकर मंगरौर गांव में बसाया। उस समय अपराध और डकैती का आतंक छाया हुआ था। बहेलिया समुदाय ने अपनी वीरता से न केवल इन अपराधों पर लगाम लगाई, बल्कि राजा के शासन को भी सशक्त किया।
समुदाय के मुखिया, राजेश बहेलिया, जो दो बार चकिया विधानसभा सीट से विधायक रह चुके हैं, बताते हैं, “हमारे पूर्वजों ने राजा बलवंत सिंह के लिए योद्धाओं की तरह काम किया। उन्हें जंगलों, पहाड़ों और नदी-नालों का गहरा ज्ञान था, जो युद्धों में बेहद काम आता था। कर्मनाशा नदी के किनारे बसे मगरौर की कहानी काफी दिलचस्प है। महाराजा काशी नरेश बलवंत सिंह के जमाने में चकिया जिला हुआ करता था। गरीबी और पिछड़ेपन के चलते चकिया इलाके में लूट व डकैती की वारदातें बहुत होती थीं। डकैतों के आगे काशी नरेश की सेना भी बेबस थी।”
काशी नरेश और राजा बलवंत सिंह के लिए बहेलिया समुदाय के लोगों ने शिकार और सुरक्षा का जिम्मा संभाला। काशी नरेश जब शिकार के लिए जाते, तो बहेलिया समुदाय के लोग जंगलों में हाका लगाकर जानवरों को एकत्र करते। राजा शिकार करते, और बहेलिया उनकी सहायता करते। यह रिश्ता इतना गहरा था कि काशी नरेश ने इस समुदाय को एकनाली बंदूकें तक प्रदान कीं।
जब भारत में अंग्रेजों का आगमन हुआ और नवाबों का शासन मजबूत हुआ, तो बहेलिया समुदाय के लिए एक नई चुनौती खड़ी हो गई। उन्होंने अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए हर बाहरी ताकत का सामना किया। पूर्व विधायक राजेश बहेलिया कहते हैं, “हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों और नवाबों के सामने कभी सिर नहीं झुकाया। उन्होंने जंगलों के अपने ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए गुरिल्ला युद्ध की तकनीकें अपनाईं और अपनी जमीन और स्वतंत्रता की रक्षा की।” बहेलिया समुदाय की इस बहादुरी और संघर्ष ने उन्हें मंगरौर के इतिहास में एक विशेष स्थान दिलाया।
समय के साथ बहेलिया समुदाय ने अपनी जीवनशैली में बदलाव किया। उन्होंने शिकार को त्यागकर खेती और पक्षियों के संरक्षण की ओर कदम बढ़ाए। यह बदलाव सिर्फ आजीविका का साधन नहीं, बल्कि उनके जीवन के प्रति एक नई दृष्टि का प्रतीक बन गया। राजेश बहेलिया कहते हैं, “शिकार छोड़ने के बाद हमारे समुदाय में शांति और स्थिरता आई है। अब हम अपने बच्चों को शिक्षित कर रहे हैं और समाज की मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं।”
बहादुरी और संघर्ष का प्रतीक
वंचित समुदाय के लिए लंबे समय से संघर्ष करने वाले एक्टिविस्ट अजय राय कहते हैं, “मंगरौर गांव बहेलिया समुदाय की बहादुरी, संघर्ष और सांस्कृतिक धरोहर का जीवंत उदाहरण है। यह गांव न केवल उनके अतीत की गाथाओं को संजोए हुए है, बल्कि उनके भविष्य के सपनों का भी साक्षी है। बहेलिया समुदाय की बहादुरी की गाथा हमें यह सिखाती है कि कैसे संघर्ष, संकल्प और बदलाव के जरिए कोई भी समुदाय अपनी पहचान को बनाए रखते हुए अपने भविष्य को उज्जवल बना सकता है। यह कहानी हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है, जो अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए लड़ना चाहता है।
“मंगरौर गांव की मिट्टी में बहेलिया समुदाय की कहानियां आज भी जिंदा हैं। यह गांव न केवल उनके अदम्य साहस और विरासत का साक्षी है, बल्कि उनके बदलते समय के साथ ढलने और खुद को फिर से गढ़ने की प्रेरणादायक यात्रा का प्रतीक भी है। आज बहेलिया समुदाय का जीवन पहले जैसा नहीं रहा। आधुनिकरण और शहरीकरण के प्रभाव ने उनकी पारंपरिक जीवनशैली को गहराई से प्रभावित किया है। वन संरक्षण के नियम और पर्यावरणीय नीतियां, जो एक ओर प्रकृति की रक्षा के लिए बनाई गईं, दूसरी ओर, बहेलियों की सदियों पुरानी जीवनशैली पर रोक बनकर आईं।”
पूर्व विधायक राजेश बहेलिया यह भी कहते हैं, “मगरौर गांव के बारे में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। इस गांव से जुड़ी एक कहानी यह है कि अंधेर नगरी और चौपट राजा मगरौर के रहने वाले थे। दूसरी कहानी यह है कि जटायू को यहीं मारा गया था। यह गांव तीन तरफ से कर्मनाशा नदियों से घिरा है और चौतरफा जंगल है। यहां सात कोट हैं, जिसे मारीच की नगरी के रूप में जाना जाता है। मुगल शासक दायम खा का किला भी यहीं हुआ करता था। यहां मंगला देवी का प्रसिद्ध मंदिर है जिसकी मूर्ति काशी नरेश ने इटली से मंगवाई थी। मगरौर गांव सड़क पर है, लेकिन यहां किसी की सड़क हादसे में कभी मौत नहीं हुई। गांव के लोग इसे मंगला देवी का प्रताप मानते हैं।”

“काशी नरेश के समय मगरौर गांव के सभी लोगों को लाइसेंसी बंदूकें मिली थीं, लेकिन अब सिर्फ चार लोगों के पास ही मौजूद हैं। मगरौर में 80 बीघे कृषि योग्य जमीन है, लेकिन वन्यजीवों के आतंक के चलते परती रहती हैं। यहां तीन कुएं हैं, जिन का पानी खारा है। कुछ हैंडपंप लगे हैं, लेकिन नहाने और कपड़ा धोने के लिए लोग कर्मनाशा नदी के पानी का इस्तेमाल करते हैं। बहेलिया अनुसूचित जाति में अधिसूचित है, लेकिन बहुत से लोग खुद को राजपूत बताते हैं। लेकिन जब आरक्षण लेने की बात आती है तो अपनी मूल जाति का सर्टिफीकेट लगाते हैं।”
जंगल, जो कभी उनके जीवन का आधार था, अब उनके लिए दूर होता जा रहा है। पारंपरिक शिकार, जो उनके अस्तित्व का हिस्सा था, अब कानूनी और सामाजिक सीमाओं में बंध गया है। लेकिन बहेलिया समुदाय ने इस चुनौती को अपनी ताकत बना लिया। उन्होंने अपनी आजीविका के लिए खेती, छोटे व्यवसाय, और अन्य नए क्षेत्रों में कदम रखा।
शिक्षा और आरक्षण का सहारा
वर्ष 2011 की जनगणना में बहेलिया समुदाय को अनुसूचित जाति का दर्जा मिलने से उनकी जिंदगी में बदलाव का नया अध्याय शुरू हुआ। इस मान्यता ने उनके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, और रोजगार में नए अवसरों के द्वार खोले। मगरौर के अलावा पास के गांव जनकनपुर और कुछ भटपुरवा में भी इस समुदाय के लोग बसे हैंम और खेती-किसान भी कर रहे हैं।
शिक्षा ने बहेलिया समुदाय के बच्चों को सपने देखने और उन्हें पूरा करने का साहस दिया। आज उनके बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, और अफसर बनने का सपना देख रहे हैं। बेटियों की शिक्षा पर भी अब विशेष जोर दिया जा रहा है। यह समुदाय समझ चुका है कि शिक्षा ही उनकी अगली पीढ़ी को आत्मनिर्भर और सशक्त बना सकती है।

हालांकि समय के साथ उनकी जीवनशैली बदली है, लेकिन उनकी सांस्कृतिक धरोहर अभी भी जीवित है। उनके पारंपरिक गीत और नृत्य आज भी उनकी संस्कृति और प्रकृति के प्रति गहरे लगाव को दर्शाते हैं। उत्सवों में गाए जाने वाले उनके गीत न केवल उनकी परंपराओं को जीवित रखते हैं, बल्कि उनके संघर्ष और आशाओं को भी प्रतिबिंबित करते हैं।
बहेलिया समुदाय की यह यात्रा आसान नहीं रही। खानाबदोश जीवन से स्थायी बसेरा बनाने और शिकार से संरक्षक बनने तक की राह में उन्हें कई बाधाओं का सामना करना पड़ा। लेकिन उनकी मेहनत और जिजीविषा ने उन्हें नई राह पर चलने की ताकत दी।
आज मंगरौर गांव के बहेलिया समुदाय के लोग चाहते हैं कि सरकार उनके लिए स्वास्थ्य केंद्र खोले, जिससे उन्हें इलाज के लिए दूर न जाना पड़े। शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाने की भी उनकी अपेक्षाएं हैं। मंगरौर गांव के बहेलिया समुदाय ने यह साबित कर दिया है कि परिस्थितियां चाहे कितनी भी मुश्किल क्यों न हों, बदलाव संभव है। उनकी कहानी केवल चकिया प्रखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक प्रेरणा है।
एक समय जो लोग जंगलों में शिकार के लिए जाने जाते थे, वे आज पक्षियों के संरक्षक बन गए हैं। उनकी यह यात्रा हमें यह सिखाती है कि जिजीविषा, मेहनत और बदलाव की इच्छा से हर मुश्किल को पार किया जा सकता है। मंगरौर के बहेलिया समुदाय का यह साहस और उनकी नई पहचान हमेशा प्रेरणा के रूप में जीवित रहेगा।
(विजय विनीत, बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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