कर्नाटक में जनता दल (सेक्युलर) और भाजपा के बीच औपचारिक गठबंधन की खबर के बाद से जेडीएस छोड़ने वालों का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। हालांकि यह भी सच है कि कर्नाटक राज्य विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद से ही पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भाजपा के साथ गठबंधन में अपने भविष्य को देखने लगा था। जैसे-जैसे राज्य में इसकी चर्चा जोर पकड़ने लगी, वैसे-वैसे पार्टी के पुराने नेता और कार्यकर्ता पार्टी से किनारा करने लगे थे। लेकिन 22 सितंबर 2023 को दिल्ली में इसकी औपचारिक घोषणा के बाद से तो जैसे भगदड़ सी मच गई है।
शनिवार, 23 सितंबर 2023 से पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष, सैयद शफीउल्ला का इस्तीफ़ा मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। हालांकि उनके त्यागपत्र में तारीख 21 सितंबर 2023 की पड़ी है, जो बताता है कि पार्टी में देवगौड़ा परिवार के अलावा शायद ही कोई बड़ा नेता इस फैसले के साथ अपने राजनीतिक भविष्य को जोड़ पा रहा है।
अपने पत्र में इस्तीफे की वजह के बारे में लिखते हुए शफीउल्लाह लिखते हैं कि “मैंने समाज की सेवा का बीड़ा उठाते हुए पार्टी के लिए जमकर इसलिए काम किया था क्योंकि हमारी पार्टी धर्मनिरपेक्षता के उसूलों पर खड़ी थी। अपवादस्वरूप सिर्फ एक बार ऐसी स्थिति आई थी जब राज्य में सत्ता पर काबिज होने के लिए हमारे नेता एच डी कुमारस्वामी ने भाजपा से हाथ मिलाया था। मैं यहां पर जिक्र करना चाहूंगा कि उस दौरान भी मैंने पार्टी से खुद को बाहर रखा था।
चूंकि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने अब भाजपा के साथ हाथ मिलाने का फैसला कर लिया है। इसलिए मेरे पास पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा देने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा है।”
इससे पहले जब इस साल मई में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली ऐतिहासिक जीत और 2024 लोकसभा में भी ऐसे ही परिणाम के कांग्रेस के दावे के बाद भाजपा और जेडीएस के लिए राज्य में अपने अस्तित्व को बनाये रखने को लेकर चिंतन शुरू हो चुका था। इसके साथ ही कर्नाटक में एक बार फिर से जेडीएस-बीजेपी के बीच गठबंधन की बातें सामने आने लगी थीं। इसके पहले भी दोनो पार्टियों के बीच 2006 में एक गठबंधन हुआ था, लेकिन यह लंबा नहीं चल पाया।
खुद को एक हिंदुत्ववादी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा को कर्नाटक में हार का डर सता रहा है। यही वजह है कि उसके लिए अब जेडीएस जैसे सेक्युलर विचारधारा वाली पार्टी के साथ अपना गठबंधन करना पड़ रहा है।
इसी गठबंधन की आस में कर्नाटक में बीजेपी ने विधानसभा चुनाव के नतीजे आ जाने के 4 महीने बाद भी विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का नाम आगे नहीं किया है। क्योंकि उसे जेडीएस को आगे कर अपनी रणनीति बढ़ानी है। पिछले सप्ताह भी बीजेपी और जनता दल (एस) के 15 से अधिक प्रमुख नेता और पूर्व पार्षदों के कांग्रेस में शामिल होने की खबरें कर्नाटक के अखबारों की सुर्खियां बनी हुई थीं।
इस कार्यक्रम में उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार भी मौजूद थे। एएनआई की रिपोर्ट के अनुसार, कांग्रेस का दामन थामने वाले नेताओं में पूर्व पार्षद एल श्रीनिवास, अंजनप्पा, एच सुरेश, वेंकट स्वामी नायडू, नारायण, रामू, बालन्ना, कबड्डी बाबू और एम नागराज जैसे नाम हैं।
विधानसभा चुनाव के बाद इसे कांग्रेस की तीसरी बड़ी कामयाबी बताया जा रहा था, क्योंकि इससे पहले बेंगलुरु में यशवंतपुर और आरआर नगर निर्वाचन क्षेत्रों से भी भाजपा और जेडी-एस के कई बड़े नेता कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं।
इस अवसर पर बोलते हुए डीके शिवकुमार ने दावा किया था कि “कांग्रेस अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों में भी अच्छा प्रदर्शन करेगी। मैं विधानसभा चुनाव में अपनी संख्या को लेकर बहुत आश्वस्त था, अब मैं कह रहा हूं कि हम लोकसभा और बीबीएमपी चुनाव में कई और सीटें जीतेंगे।”
बताते चलें कि 22 सितंबर 2023 को बीजेपी-जेडीएस के बीच नए गठबंधन के बारे में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ट्वीट करते हुए जानकारी दी थी, “हमारे वरिष्ठ नेता एवं गृह मंत्री अमित शाह की उपस्थिति में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एवं जेडीएस नेता एच.डी कुमारस्वामी से मुलाकात हुई। हमें इस बात की ख़ुशी है कि जेडीएस ने एनडीए में शामिल होने का फैसला लिया है। हम खुले दिल से उनका एनडीए में स्वागत करते हैं। इससे एनडीए और माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के “न्यू इंडिया, स्ट्रांग इंडिया” को और भी अधिक मजबूती प्रदान होने जा रही है।”
कर्नाटक राज्य विधानसभा चुनाव को गुजरे अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है। याद कीजिये, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के गृहनगर में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए के कहा था? मोदी के अनुसार, जेडी(एस) एक परिवार की ‘प्राइवेट लिमिटेड पार्टी’ है। इसके साथ ही उनका कहना था कि जेडीएस के नेताओं का मकसद किसी तरह 15-20 सीट जीतकर ‘लूट’ में हिस्सेदारी पाने का रहता है।
इसे बेहद तीखे बयान के तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन ध्यान से देखें तो पार्टी ने पिछले कुछ वर्षों से स्वंय की स्थिति को यहीं तक लाकर सीमित कर दिया है।
जनता दल के बिखरने के साथ कर्नाटक में देवगौड़ा ने जनता दल (सेक्युलर) का निर्माण कर बड़ी संख्या में समाजवादियों और मुस्लिम अल्पसंख्यकों सहित वोक्कालिगा समुदाय को पार्टी से जोड़े रखा और दक्षिण भारतीय राज्यों की तरह लगा कि कर्नाटक में भी जेडीएस के सशक्त क्षेत्रीय पार्टी के रूप में अपनी जडें जमाने में सफल रहेगी और कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए यह राज्य भी भविष्य में अभेद्य बनने जा रहा है।
लेकिन लगता है 2023 चुनाव एक क्षेत्रीय पार्टी के अंत की पटकथा पहले ही लिख चुका था, अब सिर्फ कागजी खानापूरी हो रही है।
इस बार जनता दल (सेक्युलर) के राष्ट्रीय अध्यक्ष देवगौड़ा को कर्नाटक विधानसभा चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा था। पिछली बार 2018 विधानसभा चुनावों की तुलना में जेडीएस की सीटों और वोट दोनों पर सेंधमारी कर कांग्रेस ने बंपर जीत हासिल करते हुए जेडीएस के लिए एक बार फिर से पिछली बार की तरह अपने लिए मुख्यमंत्री पद की राह बना पाने की किसी प्रकार की संभावना को ही पूरी तरह से खत्म कर दिया था।
224 विधानसभा सीट वाले कर्नाटक में पिछली बार जेडीएस को 18.3% वोट के साथ 37 सीटें हासिल हुई थीं। जबकि कांग्रेस (80) और बीजेपी (104) सीट हासिल करने के बावजूद स्पष्ट बहुमत हासिल करने से दूर थीं। लेकिन 2023 चुनावों में जेडी(एस) के मतों में भारी गिरावट दर्ज की गई और उसके खाते में 18.3% वोट के साथ 19 सीटें ही आ सकीं, जबकि कांग्रेस के पक्ष में 4.74% वोटों की बढ़ोत्तरी उसे पिछली बार की तुलना में 55 सीटों का इजाफा कर 135 सीट दिलाकर जेडी(एस) की संभावित भूमिका को पूरी तरह से खत्म कर चुकी है।
भाजपा को राज्य की सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस ने तत्काल जेडीएस के नेतृत्व को स्वीकारते हुए एच.डी कुमारस्वामी के नेतृत्व में सरकार का गठन किया। लेकिन बाद में भाजपा द्वारा जेडीएस खेमे में सेंधमारी किया जिसके बाद सरकार गिर गई थी। और इस प्रकार एक बार फिर बीजेपी ने ही अधिकांश समय राज्य की सत्ता अपने हाथ में संभाले रखी थी।
लंबे अर्से से कर्नाटक में यही स्थिति बनी हुई थी, और जेडीएस के पास भाजपा और कांग्रेस की तुलना में बेहद सीमित सीट होने के बावजूद हमेशा सौदेबाजी की स्थिति में बने रहने से आम लोगों के विकास की जगह दोनों प्रतिस्पर्धी गुटों के लिए जेडीएस को किसी प्रकार अपने पाले में करने की योजना पर जोर बना रहता था।
केरल राज्य ईकाई भी बगावत की राह पर
कर्नाटक की तुलना में केरल राज्य में जेडी(एस) के समूचे अस्तित्व के ही समाप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। दरअसल यहां पर जेडी(एस) के खाते में दो विधानसभा सीटें हैं, और पार्टी वाम मोर्चा गठबंधन सरकार में शामिल है। कर्नाटक में भाजपा और केरल में वाम मोर्चे के साथ गठबंधन का फार्मूला केरल इकाई के लिए भारी मुसीबत का सबब बना हुआ है। मजे की बात यह है कि पार्टी के पास पिनराई विजयन मंत्रिमंडल में एक मंत्री पद भी है। ऐसे में केरल जेडी(एस) नेतृत्व राज्य स्तर पर एक नई पार्टी के गठन की ओर कदम बढ़ाने की योजना पर तेजी से विचार कर रही है।
क्या बीजेपी डूबते जेडी(एस) का सहारा बनने जा रही है?
एच डी देवगौड़ा और कुमारस्वामी के लिए कर्नाटक में स्पेस लगातार सिकुड़ रहा था। इसमें कुछ सेंधमारी बीजेपी ने पहले ही कर दी थी, बाकी काम इस चुनाव में कांग्रेस और वोक्कालिगा नेता डी के शिवकुमार के बढ़ते प्रभाव की देन है। सत्ता से दूरी कुमारस्वामी को और कमजोर ही बना रही है, लेकिन अपने वैचारिक विरोधी भाजपा से सार्वजनिक तौर पर हाथ मिलाने से उसका आधार ही खत्म होने का अंदेशा उसे क्यों नहीं है, यह समझ से परे है। राजनीतिक पर्यवेक्षक इसे जेडी(एस) के पराभव से भी जोड़कर देख रहे हैं।
इतिहास गवाह है भाजपा ने हमेशा गठबंधन बनाकर क्षेत्रीय पार्टियों के आधार को ही कम किया है। महाराष्ट्र इसका जीता-जागता उदाहरण है। शिवसेना पिछले एक दशक से भी अधिक समय से इसी कशमकश में जूझ रही थी। एक समय महाराष्ट्र में जूनियर पार्टनर समझी जाने वाली भाजपा आज राज्य की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन चुकी है।
जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती हो या पंजाब में अकाली दल, या बिहार में नीतीश कुमार, इन सभी को गहराई से इस बात का आभास हो गया है कि बीजेपी से गठबंधन भले ही उनके लिए तात्कालिक सत्ता सुख का कारण बना हो। लेकिन उनकी जड़ों पर जो प्रहार कांग्रेस पार्टी को करना था, वह कभी न कर सकी। उल्टा हर गठबंधन से बीजेपी ही ज्यादा मजबूत होकर उभरी है, और उसके वोट बैंक पर कभी भी नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है।
ऐसे में कर्नाटक में सत्ता हथियाने के लिए नहीं, बल्कि सदन में विपक्ष का नेता बनने की हसरत लिए, अपने समर्थक आधार को खो देने की कीमत चुकाने वाले देवगौड़ा का पुत्रमोह कहीं जेडी(एस) के समूचे अस्तित्व को ही विलीन कर देने पर तो नहीं तुला हुआ है?
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
+ There are no comments
Add yours