आज ही के दिन हमास ने इजराइल के किबुत्स क्षेत्र में घुसकर करीब 1200 नागरिकों की जघन्य हत्या कर दी थी, जिसके जवाब में इजराइल की सेना आईडीऍफ़ ने गाजापट्टी जैसे बेहद छोटे इलाके में रह रहे फिलिस्तीनियों के खिलाफ जिस प्रकार का हमला बोला, जो आज भी बदस्तूर जारी है, उसकी दूसरी मिसाल शायद ही कभी इतिहास में देखने को मिली हो।
कुल मिलाकर गाज़ा में 41,000 से ज्यादा लोगों को इजरायली सेना अभी तक मौत के घाट उतार चुकी है, और 96,000 से अधिक लोग घायल हैं।
गाज़ा में 19 लाख लोगों को अपने घरों को छोड़ दक्षिणी गाजापट्टी के इलाके में दिनरात बमबारी, विस्फोट से घिरे डेब्रिस के बीच, स्वास्थ्य सेवाओं के घोर अभाव के साथ संयुक्तराष्ट्र के तहत इजरायली सेना की निगरानी में राहत सामग्री के भरोसे जीने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
ये 19 लाख विस्थापित फिलिस्तीनी नागरिक गाजा की कुल आबादी का 90% हैं। यानि, जो 10% हैं, वे या तो मारे जा चुके हैं, या घायल हैं।
हाल ही में, न्यूज़ चैनल अल ज़जीरा ने गाजा नाम से 120 मिनट की डाक्यूमेंट्री तैयार की है, जिसमें हमास के हमले के बाद से लेकर आईडीऍफ़ की ओर से की गई बमबारी, निरपराध फिलिस्तीनियों के साथ की गई बर्बर क्रूरता, और अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर अपराधों का दस्तावेजी इतिहास बयां किया गया है।
लेकिन इस सबके बाजवूद, 365 दिन बीत जाने के बाद भी इजराइल अपने घोषित लक्ष्य को पूरा कर पाने में विफल साबित हुआ है, उल्टा अब यह युद्ध गाज़ा की सीमा से बाहर निकलकर लेबनान और ईरान की सीमा तक पहुंच गया है, और यह खतरा किसी भी समय समूचे मध्य पूर्व को अपनी चपेट में ले सकता है।
1 अक्टूबर को ईरानी सुपरसोनिक मिसाइल हमले से इजरायली सामरिक क्षेत्र सहित एअरपोर्ट और मोसाद के मुख्यालय पर बड़ा हमला हुआ, जो न सिर्फ इजरायली आयरन डोम के डिफेन्स सिस्टम को भेदने में सफल रहा, बल्कि अमेरिकी युद्धपोत में तैनात आधुनिकतम एंटी मिसाइल डिवाइस भी अप्रैल 2024 की तरह इस दफा ईरानी हमले को पूरी तरह से नाकाम कर पाने में सफल नहीं हो पाया है।
बता दें कि ईरान लंबे समय से खुद को रोके हुआ था, लेकिन इजराइल की ओर से लगातार ईरान को हमला करने के लिए उकसाया जा रहा था, ताकि हजारों की संख्या में फिलिस्तीनियों की हत्या और अपने क्रूर चेहरे के साथ सारी दुनिया में अलग-थलग पड़ जाने को वह ईरान के ऊपर थोपकर, पश्चिमी देशों विशेषकर अमेरिका को इस युद्ध में कूदने के लिए मजबूर कर दे।
इसके लिए इजराइल ने ऐसे कई हत्याकांडों को अंजाम दिया, जिसमें ईरान के भीतर हिजबुल्ला के प्रमुख नेता इस्माइल हानिया की हत्या से लेकर लेबनान में पेजर ब्लास्ट और 27 सितंबर को बेरुत में हिजबुल्ला के एक गुप्त ठिकाने पर भारी बमबारी कर इसके कमांडर हसन नसरल्ला की हत्या को अंजाम देना शामिल है।
ईरान, जिसे हमास, हिजबुल्ला और हुती विद्रोहियों का सरपरस्त और इजराइल के खिलाफ व्यापक प्रतिरोध खड़ा करने वाले एक महत्वपूर्ण ताकत के तौर पर समझा जाता है, और जिसने पिछले कई दशकों से अमेरिकी दबाव के आगे न झुकते हुए व्यापक प्रतिबंधों को सामना करने के बावजूद अभी तक हार नहीं मानी है।
दूसरी ओर अरब मुल्कों के शेख जो पिछले वर्ष 7 अक्टूबर से पूर्व तक इजराइल के इतने नजदीक आ चुके थे, कि फिलिस्तीनियों की अपने लिए स्वतंत्र मुल्क की उनकी न्यायिक लड़ाई लगभग नेपथ्य में जा चुकी थी।
दिल्ली में हुए जी-20 सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की रोड प्रोजेक्ट की घोषणा, जिसमें भारत से इजराइल तक रोड प्रोजेक्ट पर अरब मुल्कों और इजराइल के बीच एकमत राय ने फिलिस्तीनी भाग्य को करीब-करीब सीलबंद करने का काम कर दिया था।
और संभवतः इसी को ध्यान में रखते हुए हमास ने फिलिस्तीनी-इजराइली इतिहास में पहली बार वो कारनामा कर दिखाया जिसके बारे में दुनिया में किसी ने कल्पना तक नहीं की थी, और जिसके जिसकी तैयारी में हमास कई वर्षों से जुटा था।
दुनियाभर में अपनी गुप्तचरी और जासूसी कारनामों के लिए मशहूर इजराइल की भारी सुरक्षा इंतजामात के बावजूद हमास के लड़ाके 7 अक्टूबर को इजराइली सीमा के भीतर घुस गये थे।
जहां सीमा पार पास ही में सांस्कृतिक आयोजन में जमा हुए यूरोपीय देशों से आये आगुन्तकों सहित हजारों इजरायली नागरिकों की हत्या और 251 नागरिकों को अगवा कर हमास के लड़ाके गाज़ा में अपने अंडरग्राउंड ठिकानों पर सफलतापूर्वक लौट चुके थे।
इस हमले के बाद दुनिया को पता चला कि इस हमले के लिए हमास कई वर्षों से तैयारी कर रहा था, और उसने गाजा में भूमिगत सुरंगों की 500 किमी लंबी श्रृंखला बना रखी है।
यही कारण है कि 7 अक्टूबर की घटना के 3 माह बाद ही इजराइल की सेना ने गाजापट्टी पर करीब 45,000 बम गिरा दिए। अप्रैल 2024 तक इजराइल गाज़ा में 70,000 टन से अधिक बम गिरा चुका था, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ड्रेसडैन, हैम्बर्ग और लंदन में गिराए गये कुल बमों से भी अधिक है।
ऐसा माना जा रहा है कि ईरान-इजराइल युद्ध की सूरत में खाड़ी देशों के राजतंत्र, जो अभी तक अमेरिकी प्रभुत्व के साए में पले-बढ़े हैं, ज्यादा से ज्यादा गुट निरपेक्षता की नीति को अपनाने पर विचार का रहे हैं। इन देशों का हाल के वर्षों में पश्चिमी मुल्कों के बजाय चीन की ओर आकृष्ट होना भी अमेरिकी हितों के प्रतिकूल है।
जिसे अमेरिकी साम्राज्यवाद के पराभव से जोड़कर देखा जा रहा है। अमेरिकी डॉलर की बादशाहत के बल पर आज अमेरिका कर्ज में डूबे होने के बावजूद हर वर्ष यूक्रेन और इजराइल को युद्ध के लिए सैकड़ों अरब डॉलर की मदद और आधुनिकतम हथियारों की आपूर्ति कर उसके हितों को आगे बढ़ाने के काम आ रहे हैं।
अमेरिका के ब्राउन यूनिवर्सिटी और आईवी लीग स्कूल का अनुमान है कि 11 सितंबर 2001 या 9/11 की घटना के बाद से अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी एशिया में हुए विभिन्न युद्धों और हमलों में तकरीबन 45-47 लाख लोगों की मौत हो चुकी है।
इसके अलावा करीब 3.8 करोड़ लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है। पूरी दुनिया में इस्लामोफोबिया का व्यापक प्रचार भी 9/11 के बाद अपने चरम पर पहुंचा, जिसमें पश्चिमी मीडिया और हुक्मरानों का हाथ था।
आज यूरोप और अमेरिका में यह काफी हद तक कम हो चुका है, लेकिन भारत जैसे हिंदू बहुसंख्यक देशों में यह आज सिर चढ़कर बोल रहा है। इसलिए, कुछ पश्चिमी विद्वानों का तो यहां तक मानना है कि असल में ईरान पर इजराइली हमले को अमेरिका ही हवा दे रहा है।
क्योंकि यह उसके 1979 में इस्लामिक क्रांति के बाद पीछे हटने और अब अन्य खाड़ी के अरब मुल्कों के बगावती तेवरों को शांत करने के लिए आवश्यक है।
लेकिन इसके साथ ही अमेरिका कहीं न कहीं एक समय में ही तीन मोर्चों पर बढ़-चढ़कर खेलने के जोखिमों से भी आशंकित है। ये हैं यूक्रेन-रूस, इजराइल-हमास, हिजबुल्ला, हुती, ईरान और सीरिया, तथा चीन-ताइवान।
इसमें अमेरिका के लिए सबसे बड़ी चुनौती असल में चीन से निपटना है, जो पहले ही एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन चुका है, और तकनीकी क्रांति के साथ बेहतर उत्पादकता के बल पर उसने अमेरिका सहित सभी प्रमुख पश्चिमी अर्थव्यवस्था की चूलें हिला रखी हैं।
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के साथ उसका प्रभाव पूर्वी एशिया ही नहीं यूरोप, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका तक फैलता जा रहा है। इसके साथ ही रूस-चीन की बढ़ती नजदीकियों ने भी सामरिक रूप से चीन की स्थिति को पूर्व की तुलना में काफी सुदृढ़ कर दिया है।
ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्था में चीन और रूस सहित बड़ी तेजी से विकासशील अग्रणी देशों का जुटान और डॉलर के समानांतर वैकल्पिक मुद्रा की ओर जोर, अमेरिकी अर्थव्यवस्था के चरमराकर ढह जाने का वायस बन सकता है।
इसके लिए अमेरिका दक्षिणी चीन सागर के साथ-साथ हिंद महासागर में भी एक ऐसे विश्वस्त देश की तलाश में है, जिसे वह इजराइल, यूक्रेन की तरह आर्थिक, सामरिक मदद कर चीन के खिलाफ इस्तेमाल कर सके।
लेकिन चीन-ताईवान विवाद को भड़काने के बावजूद, अमेरिका इसे जारी नहीं रख सका, क्योंकि चीन की ओर से ऐसा कोई प्रयास नहीं हुआ कि इस विवाद को एक हद से आगे बढ़ाया जा सके।
जबकि दूसरी तरफ, यूक्रेन-रूस और इजराइल-गाजा मोर्चे पर संघर्ष लगातार बढ़ने से उसके लिए इन मोर्चों पर ध्यान देना प्रमुख बना हुआ है।
इन दो मोर्चों पर भी दिक्कत यह है कि जैसे ही इजराइल ने लेबनान की तरफ दूसरा मोर्चा खोलकर अचानक से पश्चिमी एशिया के देशों को नींद से जगा दिया है, और अचानक से फिलिस्तीन का मुद्दा एक बार फिर से वैश्विक रंगमंच पर प्रमुखता से छाने लगा है, रूस ने तेजी से यूक्रेन के कई इलाकों पर कब्जे और अपने हमले को तेज कर दिया है।
अमेरिकी थिंक टैंक जानता है कि इधर उसकी 42,000 अमेरिकी सेना ईरान के खिलाफ मोर्चा खोलती है तो उधर यूक्रेन साफ हो सकता है।
जबकि ईरान के साथ संघर्ष में उतरने का मतलब एक दीर्घकालिक युद्ध में तब्दील हो सकता है, जो दशकों तक अमेरिकी प्रतिबंधों को धता बताते हुए परमाणु बम को एक-दो हफ्ते में ही विकसित कर उसकी सारी योजना पर पानी फेरने की क्षमता रखता है।
1 अक्टूबर के अपने हमले में ईरान ने साबित भी कर दिया है कि इतने प्रतिबंधों के बावजूद वह शांत नहीं बैठा रहा है, बल्कि उसके ड्रोन और मिसाइल की क्षमता कहीं से भी उन्नीस नहीं है।
30 सितंबर तक हसन नसरुल्ला की हत्या कर जो इजराइली राष्ट्रपति, बेंजामिन नेतन्याहू अपने टेलीविजन भाषण में ईरान के अवाम को सीधे संबोधित करते हुए उन्हें साफ़-साफ़ कहा था कि इजराइल पूरे पश्चिमी एशिया में जहां चाहे हमला कर लोकतंत्र की चाहत रखने वाले लोगों, विशेषकर पर्शियन और यहूदी नागरिकों की रक्षा, उन्नति और सुख-शांति के लिए धार्मिक कट्टरपंथी नेतृत्व को धता बताकर मेरा समर्थन करें।
इस संबोधन को पूर्व अमेरिकी जार्ज बुश के इराक पर हमले से पहले के भाषण की नकल के तौर पर देखा जा रहा है।
इसके अगले ही दिन ईरान के धर्मगुरु खामनेइ के निर्देश पर 180 से अधिक मिसाइल अटैक ने नेतन्याहू की सारी हेकड़ी निकाल दी है। अब वह ईरान के तेल ठिकानों पर हमले की धमकी दे रहा है।
पिछले एक वर्ष में करीब 20 अरब अमेरिकी डॉलर से भी अधिक की इमदाद पाकर भी इजराइल अभी तक हमास को गाजापट्टी के छोटे से इलाके में हजारों टन बम बरसाकर भी पूरी तरह से खत्म नहीं कर पाया है, और अब हवाई हमलों के बाद उसने लेबनान पर हल्ला बोल तीसरी बार हिजबुल्ला को पूरी तरह से नेस्तनाबूद करने की कसम खाई है।
लेबनान जो लंबे समय तक फ़्रांस का उपनिवेश रहा है, में बहुधार्मिक लोग रहते हैं। इस इजराइली हमले के खिलाफ फ़्रांस के राष्ट्रपति ने मुंह खोला है।
जो बताता है कि अमेरिकी हुक्मरानों के इशारे पर यूक्रेन, इजराइल के पीछे आर्थिक-सामरिक मदद लेकर खड़े होने वाले यूरोपीय देशों की आर्थिक स्थिति भी लगातार डांवाडोल हो रही है, और वे भी अब अपनी बर्बादी और अमेरिकी डिक्टेट की कीमत पहचानने लगे हैं।
सात समुंदर पार बैठकर अमेरिका एशिया, यूरोप और अफ्रीका को जब-तब झकझोरता रहा है। आज यूरोप में फासीवादी शक्तियों की आमद के पीछे जिस एशियाई, अफ्रीकी शरणार्थियों की समस्या को बड़े पैमाने पर चिन्हित किया जा रहा है, वो सब तो 90 के दशक से अमेरिकी साम्राज्यवाद की लगाई हुई आग का ही परिणाम है।
आज यूरोप के अधिकांश देश लिबरल डेमोक्रेसी को धता बताकर यदि दक्षिणपंथी या वामपंथी ध्रुवीकरण की ओर झुकाव दिखा रहे हैं, तो इसकी इबारत तो खुद इनके हुक्मरानों ने ही दूर बैठे अमेरिकी हुक्मरानों के इशारे पर तैयार की थी।
इसलिए, अंत में यही कहा जा सकता है कि कोई इस मुगालते में न रहे कि जो ताकतें सोवियत रूस के विघटन के बाद पूरी दुनिया में एकछत्र राज स्थापित हो जाने के बाद और भी ज्यादा खूंखार बनकर किसी भी मुल्क को चंद हफ्तों में नेस्तनाबूद करने से नहीं चूक रही थीं।
आज उनका वक्त ढलने के समय स्थायी शांति समाधान की राह खोज सकती हैं। ये आग उनकी लगाई हुई है, जिसे बुझाने का काम बहुध्रुवीय वैश्विक शक्तियों की एकजुटता के बल पर ही संभव है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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