बिहार: कमजोर और लचर स्वास्थ्य सेवाओं का कड़वा सच

पटना। बिहार, एक ऐसा राज्य जिसे अपनी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक धरोहर पर गर्व होना चाहिए, आज अपने सबसे बुनियादी अधिकार – स्वास्थ्य सेवा – के लिए संघर्ष कर रहा है। नीति आयोग और अन्य सरकारी संस्थाओं की रिपोर्टों ने बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की जो भयावह तस्वीर पेश की है, वह केवल आंकड़ों की कहानी नहीं है, बल्कि उन लाखों लोगों की दुखद वास्तविकता है जो असमय मौत का शिकार हो रहे हैं या अपनी जिंदगी को स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय स्थिति के कारण नर्क बना रहे हैं।  

नीति आयोग और स्वास्थ्य सूचकांक: बिहार की बदहाली का प्रमाण

नीति आयोग के 2023-24 के सतत विकास लक्ष्य सूचकांक में बिहार का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है। जहां केरल और उत्तराखंड जैसे राज्य स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में शीर्ष पर हैं, वहीं बिहार 57 अंकों के साथ सबसे निचले पायदान पर है। यह आंकड़ा केवल एक रैंकिंग नहीं, बल्कि यह दिखाता है कि राज्य की करोड़ों जनता आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, साफ पानी, स्वच्छता और पोषण जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है।  

स्वास्थ्य सूचकांक के दयनीय हालात

बिहार 2019-20 के नीति आयोग स्वास्थ्य सूचकांक में 31.00 स्कोर के साथ 18वें स्थान पर था। रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में मातृ और नवजात मृत्यु दर, प्रजनन दर और पोषण जैसे क्षेत्रों में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में डॉक्टरों, नर्सों और तकनीशियनों की भारी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार 1:1,000 डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात होना चाहिए, जबकि बिहार में यह 1:2,148 है।  

बजट का अधूरा उपयोग और कमजोर योजनाएं

पिछले छह वर्षों (2016-22) में बिहार सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए ₹69,790.83 करोड़ का बजट प्रावधान किया था, लेकिन उसमें से केवल ₹48,047.79 करोड़ (69%) का ही उपयोग हो सका। यानी, ₹21,743.04 करोड़ (31%) धनराशि बिना खर्च किए रह गई। यह धनराशि अगर सही तरीके से उपयोग होती, तो शायद कई अस्पताल बेहतर हो सकते थे, कई गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुल सकते थे और कई जिंदगियां बचाई जा सकती थीं।  

मरीजों का दर्द और सरकारी असंवेदनशीलता 

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की रिपोर्ट के आधार से हमें यह पता चलता है कि ओपीडी सेवाओं में 76% रोगियों का ही इलाज हो पाया। अस्पतालों में भर्ती मरीजों का आंकड़ा तो और भी भयावह है – केवल 23% मरीजों का ही इलाज हुआ। क्या यह उन गरीब लोगों के जीवन के साथ अन्याय नहीं है, जो सरकारी अस्पतालों को अपने अंतिम सहारे के रूप में देखते हैं?  

पटना में रहने वाली रशीदा परवीन (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि “ हमारे इधर तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ही नहीं है, वहीं अगर हम दूसरी जगह जाते हैं तो कहीं डॉक्टर नहीं होता तो कभी इलाज नहीं हो पाता। कई बार तो ऐसा हुआ है कि उनके पास दवा उपलब्ध नहीं होती है।”

स्वास्थ्य ढांचे की खस्ताहाली 

कैग (CAG) की रिपोर्ट ने बिहार के स्वास्थ्य ढांचे की गंभीर कमजोरियों को उजागर किया है। 49% पद खाली पड़े हैं, ऑपरेशन थिएटर और ब्लड स्टोरेज यूनिट्स जैसी बुनियादी सुविधाएं अनुपलब्ध हैं। यहां तक कि राज्य के 68% वेंटिलेटर तकनीशियनों की कमी के कारण बेकार पड़े हैं। यह उन मरीजों के लिए मौत का फरमान है, जिन्हें इमरजेंसी सेवाओं की सख्त जरूरत होती है।  

पोठाही के रहने वाली सम्पूर्ण चंद्र बताते हैं कि “ हमारे यहां स्वास्थ्य उप केंद्र तो काफ़ी अच्छा बन गया है लेकिन आज तक वहां डॉक्टर उपलब्ध नहीं है। ऐसे में हमें मजबूरन दूसरे अस्पताल जाना पड़ता है। जब सरकार ने स्वास्थ्य केंद्र बनाया है तो वहां डॉक्टर क्यों नहीं है ये सोचने वाली बात है। हम सरकार से आग्रह करेंगे कि यहां जल्द से जल्द डॉक्टर की बहाली करे ताकि लोगों का उपचार ठीक तरीके से हो सके।”

दवाओं और उपकरणों की कमी: मौत की गूंज

2016-22 के दौरान, जरूरी दवाओं की उपलब्धता 14% से 63% तक सीमित रही। मेडिकल कॉलेजों और जिला अस्पतालों में 45% से 68% दवाएं अनुपलब्ध थीं। वेंटिलेटर और अन्य जीवन रक्षक उपकरण बिना उपयोग के पड़े हैं क्योंकि इन्हें संचालित करने वाला स्टाफ मौजूद नहीं है।  

कायाकल्प योजना: केवल कागजों तक सीमित  

सरकार की “कायाकल्प” योजना, जिसका उद्देश्य सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों में स्वच्छता और संक्रमण नियंत्रण को बढ़ावा देना था, भी केवल कागजों तक सीमित रह गई। सारण जिले में एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के निरीक्षण में यह पाया गया कि अधिकांश स्वास्थ्य सुविधाएं संक्रमण नियंत्रण के न्यूनतम मानकों को भी पूरा नहीं कर पा रही थीं।  

गांवों में बदहाल स्थिति और ग्रामीणों का दर्द

ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति और भी खराब है। गांवों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों और नर्सों की भारी कमी है। गर्भवती महिलाओं को समय पर जांच, पोषण और दवाएं नहीं मिलतीं। रिपोर्टों के अनुसार, 11% से 67% गर्भवती महिलाओं को आवश्यक आयरन और फोलिक एसिड गोलियां नहीं दी गईं।  

मारांची के और लोगों से जब हमने बात की तो आशीष से हमारी मुलाकात हुई। जब हमने उनसे गर्भवती महिलाओं के संबंध में पूछा तो उन्होंने बताया कि “ एक तो डॉक्टर नहीं हैं तो क्या फायदा स्वास्थ्य केंद्र का, हमें तो आयरन की गोली तक नहीं मिलती बाज़ार से जाकर लाना पड़ता है। अगर इमरजेंसी होती है तो एम्बुलेंस तक की सुविधा हमें नहीं मिल पाती है।”

सरकार की विफलता और जनता का आक्रोश 

बिहार के लोग आज गुस्से और बेबसी के उस दौर से गुजर रहे हैं, जहां उनकी आवाजें सरकार तक नहीं पहुंच रही हैं। यह राज्य, जिसने चाणक्य और बुद्ध जैसे महापुरुषों को जन्म दिया, आज अपनी जनता को स्वास्थ्य का बुनियादी अधिकार भी नहीं दिला पा रहा है। यह केवल सरकारी विफलता नहीं, बल्कि एक नैतिक अपराध है।  

आगे का रास्ता

बिहार को अपने स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने के लिए एक ठोस और दीर्घकालिक योजना की जरूरत है। राज्य सरकार को स्वास्थ्य बजट का पूरा उपयोग सुनिश्चित करना चाहिए और डॉक्टरों, नर्सों और तकनीशियनों की भर्ती पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। स्वास्थ्य सेवाओं की नियमित निगरानी और जवाबदेही तय करनी होगी।  

निष्कर्ष: बदलाव की गुहार

बिहार के कमजोर और लचर स्वास्थ्य ढांचे को सुधारना केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हर नागरिक की प्राथमिकता होनी चाहिए। बिहार के लोगों को एकजुट होकर सरकार से जवाब मांगना होगा। क्योंकि स्वास्थ्य केवल एक सेवा नहीं, बल्कि जीवन का अधिकार है। यह समय है, जब बिहार अपने स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने की दिशा में ठोस कदम उठाए, वरना लाखों गरीबों की जिंदगियां यूं ही असमय खत्म होती रहेंगी। 

(नाजिश माहताब स्वतंत्र पत्रकार हैं।) 

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